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धम्मपद्द चित्तवग्गो~सूत्र- ७ अंक~४२– आनंद शास्त्री

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प्निय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित-“धम्मपद्द” के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में चित्त वग्गो के सातवें पद्द का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ–
“अनवस्सुतचित्तस्स अनन्वाहतचेतसो ।
पुञ्ञ पापपहीनस्स नत्थि जागरतो भयम् ।।७।।”
निजात्म स्नेही प्रिय मित्रों ! अब पुनः तथागतजी कहते हैं कि- “अनवस्सुतचित्तस्स अनन्वाहतचेतसो” और इसे समझने हेतु मैं प्रथम आपको एक दृष्टाँत सुनाता हूँ, आप यह ध्यान रखियेगा कि-“दृष्टांत” का तात्पर्य अपने-“सिद्धांत की स्पष्टता करना होता है – रामकृष्ण परमहंसजी के एक उच्चतम् साधना रत शिष्य थे-“कालीचरण जी”वे भी एक महान सन्यासी हुवे हैं ! उनके अनेक शिष्य थे ! एक बार एक धनाढ्य के युवा पुत्र- “शीतला चट्टोपाध्यायजी” उनके पास आकर बोले कि गुरूजी आप मुझे दिक्षा दे दो !
तो कालीबाबू बोले कि यदि दिक्षा लेनी है तो उच्चतम् शक्तियों को ! विद्याओं को प्राप्त करो तथा योग्य पात्र बनकर तब आना पड़ेगा ! और अब तो शीतला जी लग गये विद्याओं को प्राप्त करने में ! शस्त्र-निर्माण,संचलन,मल्ल,भौतिकी,रासायनिक, ज्योतिष,भैषज्य,सिलाई,भवन-निर्माण,काव्य,नृत्य,वेद ,शास्त्र, उपनिषद, चित्रकलादि जितनी भी विद्याओं का उन्होंने नाम भी सुना था ! आप विचार करना भगवान श्रीराम ने चौदह वर्षों का वनवास सहर्ष स्वीकार किया था बिलकुल उसी प्रकार वो सभी विद्याऐं उन्होंने चौदह वर्षों के अगाध प्रयत्न और लगन से सीखी ही नहीं बल्कि उनमें महारत भी प्राप्त की-इतनी लगन थी उनमें !और इसके बाद वे आकर कालीबाबूजी को बोले कि गुरूजी मैं सभी विद्याओं को जान चुका हूँ।
वे बोले कि गुरुदेव ! आप किसी भी विद्या के निष्णात से मेरी प्रतिस्पर्धा  कराकर मेरी पात्रता का अब निश्चय कर लें ! प्रिय मित्रों ! दूसरे दिन कालीबाबू ने अपने एक शिष्य को उनके पास भेजा-और वो शिष्य जाकर अकारण ही शीतलाजी को गालियाँ देने लगा ! कुछ देर तक तो उन्होंने सहन किया परन्तु फिर शीतलाजी ने उठाया डँडा और दौड़ा लिया उनको ! बिच्चारा किसी तरह से पिट-पिटाकर लौटकर आ गया।
उन दिनों में दतिया नरेश के दीवान-“दिवाकर-बिश्नोई जी “कालीबाबू के शिष्य थे ! दूसरे दिन दीवान साहेब का एक सिपाही शीतलाजी के पास जाकर बोला कि दीवान साहब अपना पद भार छोड़कर सन्यास लेना चाहते हैं ! और वे आपको रियासत का दीवान नियुक्त करना चाहते हैं ! क्या आप सहमत हैं ?
हाँ ! हाँ ! बिल्कुल ! मैं एकदम सहमत हूँ-तुरंन्त ही बोल पड़े “शीतलाबाबू ! अब पुनः उसी शामको एक अत्यंत ही कमनीय, सुकुमारी, सुँदर,नवयौवना षोडसी बालिका के साथ स्वयम् कालीबाबू शीतलाजी के घर पहुँच गये ! अब क्या हुवा कि जिन गुरुदेवकी एक आज्ञा के पालन हेतु शीतलाजीने अपने चौदह वर्ष लगा दिये थे ! वही काली प्रसादजी उनके घर पधारे ! किंतु– “शीतला प्रसाद उस नवयौवना की सुँदर आकृति-देह यष्टि से अपनी दृष्टि चाहकर भी नहीं हटा पा रहे थे।
“अनवस्सुतचित्तस्स अनन्वाहतचेतसो” हाँ मित्रों ! “आस्त्रवो दोष” इन काम,क्रोध और लोभ को ही कहते हैं ! तभी तो मेरे श्रीकृष्ण जी नें मुझे सावधान करते हुवे गीताजी•१६•२१•में कहा कि-
“त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभतस्मादेतत् त्रयं त्यजेत्।।”
ये काम-वासना,क्रोध तथा लोलुपता नर्क के साक्षात् द्वार हैं !
अतः-“पुञ्ञ पापपहीनस्स नत्थि जागरतो भयम्”
आप श्रेष्ठ विद्याओं को तो प्राप्त करें ! अथवा न भी करें ! इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता ! किंतु यदि मैं अपनी वासनाओं पर नियंत्रण नहीं कर पाता ! जबतक मुझे अपनी निंदा सुनने पर क्रोध आता है ! जबतक मैं अपनी लोलुपता पर विजय प्राप्त न कर लूँ ! तब तक इन नर्कों के द्वार में मैं जाऊँगा ही।
इन-“नर्कद्वारोंसे मुक्तिका एकमात्र उपाय है निष्कामकर्म” मित्रों ! आप-जैसे जो बुद्ध पुरुष होते हैं,वे निरंतर अप्रमाद-पूर्वक इन महान शत्रुओं के आक्रमण के प्रति जागते रहते हैं,सावधान रहते हैं ! आप जैसे लोग ऋद्धि-सिद्धियों की स्वप्न में भी कामना नहीं करते ! पुरुषार्थ इन विद्याओं की,धन,वैभव,पद, प्रतिष्ठा,मठ, आश्रमों,सुँदर-पुरुषों,सुँदरियों की प्राप्ति नहीं ! इनके त्याग में  निहित है ! किन्तु यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जिन्हें जो उपलब्ध नहीं हो सका उसके लिये उन्होंने घोषणा कर दी कि मुझे वह नहीं चाहिये ! इसे पाखण्ड कहते हैं ! जिनका विवाह उनकी अकर्मण्यता के कारण नहीं हुवा उन्होंने अपने आपको-“ब्रम्हचारी” घोषित कर दिया ? जिन्हें परिश्रम से कष्ट हुआ वो-“साधू” बन गये ? साधू बनने के वास्तविक अधिकारी -“महाराजा जनक,महर्षि याज्ञवल्क्य,महात्मा विदुर,महाराजा सुधन्वा, युवराज सिद्धार्थ और महाराजा भगीरथ,राजा गोपीचंद,युवराज महावीर थे ! जिन्होंने सत्य की खोज हेतु सर्वप्रथम असत्य का त्याग कर दिया।
मित्रों ! साधना पथ पर जो चलते दिखते हैं वास्तविक रूप से उन्होंने जो त्याग किया वही उनकी साधना का स्रोत है- “पुत्रेक्षणा,वित्तेक्षणा,कामेक्षण और सर्वाधिक भयानक-“लोकेक्षणा” होती है ! लोकेक्षणा अर्थात सम्माननीय कहलाने की-“इच्छा” इसके लिये लोग घर,द्वार,व्यवसाय,माता, पिता,पुत्र,धर्म,जाति,गोत्र,पूर्वजों के संस्कार सबकुछ व्यक्ति एक-“कुर्सी”के लिये छोड़ देता है ! आवश्यकता पडने पर अपने सगे-संबंधियों,माता-पिता,पुत्र,पति-पत्नी,मित्रों आदि को अपना शत्रु घोषित कर देता है यहाँ तक की उनकी हत्या तक करवाना देता है ! यही इस पद का भाव है ! शेष अगले अंक में प्रस्तुत करता हूँ–“आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”

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