फॉलो करें

धम्मपद्द चित्तवग्गो~सूत्र- ९ अंक~४४-आनंद शास्त्री

52 Views

प्निय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित-“धम्मपद्द” के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में चित्त वग्गो के नौवें पद्द का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ–
“अचिरं वतयं कायो पठविं अधिसेस्सति।
छुद्धो अपेतविञ्ञाणो निरत्थं व कलिड़्गरं।।९।।”
पुनः तथागतजी कहते हैं कि,हे भंते ! मित्रों ! इस-“भंते” सम्बोधन को भी समझना होगा ! हमारे शास्त्रों में-“भ” भाषा,ज्ञान,विज्ञान अर्थात-“दर्शनशास्त्र,वेदान्त” को कहते हैं ! अर्थात जिन्होंने अपने मानवीय जीवन को इनके लिये समर्पित कर दिया ! उनको-“भंते” कहते हैं ! तथागत बुद्ध कहते हैं कि- जबतक दृढ वैराग्य न हो !तब तक कामादि शत्रुओं का समूल नाश नहीं होता। अर्थात जबतक बीजों को भून नहीं दिया जाता तबतक उनमें कभी न कभी नयी नयी कोपलें फूटती रहेंगी।
इस संदर्भ में मैं आपसे कुछ बातें करना चाहूँगा-मैं लगभग १८ महीनों से धम्मपद की बाल- प्रबोधिनी लिखने हेतु प्रयास रत हूँ !साथ ही मैं-“भक्तिसूत्र,ब्रम्हसूत्र ,माण्डूक्योपनिषद,विज्ञान भैरव तंत्र” की भी प्रबोधिनी_लिखता हूँ ! मेरा प्रयास अपनी सांस्कृतिक धरोहरों को आपके समक्ष प्रस्तुत करना मात्र है,मैं किसी भी मत-मतांतर का विरोधी नहीं हूँ- मैं देखता हूँ कि, वर्तमान राजनैतिक विद्वेषके कारण कुछ लोग बुद्ध को ही हेय समझ कर उनका विरोध करते हैं ! कुछ लोग तंत्रात्मक कौलाचार की उच्च ज्ञान परम्परा का विरोध करते हैं ! कुछ लोग सनातनी संस्कृति का या फिर ओशो,कबीर,आर्य-समाज का विरोध करते हैं ! कुछ लोग वर्ण-व्यवस्था का समर्थन तथा कुछ लोग विरोध करते हैं।
और तो और कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि स्त्रियों और शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार है !और कुछ लोग ये कहते हैं कि बिल्कुल ही अधिकार नहीं है।
तो प्रिय मित्रों ! इस संदर्भ में तो मैं मात्र इतना ही कहूँगा कि हल्दी,नमक, मिर्ची, मसालों के चंद टुकणे रख-कर पँसारी की दुकानें नहीं खुला करतीं ! मेरी-आपकी, विश्वकी प्राचीनतम संस्कृति तथा सांस्कृतिक रूप से सर्वरूपेण समृद्ध धरोहरों तथा साहित्यों को ! विभिन्न विचार-धाराओं को ! किसी एक दड़बे में कृपया बंद न करें ! इसे सुचारु रूप से निर्वाध प्रवाहित होने दें !मतैक्यता तथा सर्व सच्छास्त्र सम भाव से ही शत्रुता की समाप्ति संभव हो सकती है ! वस्तुतः गीताजी का एक वाक्य मुझे और आपको अवस्य ही प्रिय होगा–
“ध्यायते विषयां पुँसः ,सड़्गम्     तेषूपजायते।
सड़्गात-संजायते कामःकामात् क्रोधाभिजायते।।
क्रोधात्  भवति संमोहः संमोहात् समृतिविभ्रमः।
स्मृति भृंशात् बुद्धिनाशो   बुद्दिनाशात् प्रणश्यति।।”
मित्रों-“काम मात्र वासनाओं को ही नहीं कहते सभी  कामनायें ईच्छायें कामवासना की प्रतिकृति हैं ! कितने आश्चर्य की बात है कि-“अचिरं वतयं कायो पठविं अधिसेस्सति” अर्थात किसी निश्चल काष्ठ की तरह एक दिन मेरा यह शरीर श्मशान में निष्क्रिय पड़ा अग्नि में भष्मिभूत हो रहा होगा ! किंतु फिर भी मैं इस शरीर को जाति,गोत्र,लिंग, सम्प्रदाय,संस्कृतियों की सीमा से बाँधकर अपने-आपको ही बाँध-बैठता हूँ ! ये बन्धन मेरे बनाये हुवे हैं ! ये काल्पनिक बन्धन हैं और कल्पना से ही इनसे मुक्ति मिल सकती है ! अन्यथा ब्रम्हाण्ड की कोई भी उपासना पद्धति हमें मुक्त नहीं करा सकती।
महाबोधि स्पष्ट कहते हैं कि- “छुद्धो अपेतविञ्ञाणो निरत्थं व कलिड़्गरं” अर्थात आपका यह शरीर मात्र तभी तक किसी योग्य है जब तक ये भीतर साँसें चल रही हैं ! ह्रदय धड़क रहे हैं,अन्यथा तो फिर–
“हाण जलै ज्यूँ लाकड़ी केश जलै ज्यूँ घास।
सब तन जलता देखिकर भयहुँ कबीर उदास।।”
मेरी एक बहुत ही अच्छी आदत बचपन से रही है,मैं बचपन में हरिद्वार की नीलधारा,युवावस्था में  हरिशचन्द्र-घाट अथवा गुजरात में माधू-पावड़िया और अब इस अवस्था में अपनी माँ के साथ सिलचर में सुभाष-श्मशान स्थान” में लगभग हमेशा बैठता हूँ ! चिताओं को जलती देख एक अद्भुत सा सुकून मिलता है,इस देह की नश्वरता के साथ ही नाना खण्डनात्मक विचारों से मन भी मुक्त हो जाता है ! श्मशान की निरवता जीवन-मृत्यु की निरन्तरता की दिग्दर्शिका है ! वहाँ महाभैरव के संग क्रीड़ा करतीं श्मशान काली अघोरेश्वर शिव की वही अंकशायिनी हैं जो उनकी इष्ट देवी हैं।
मित्रों !मेरी किशोरावस्था के कुछ दिन,कुछ-रातें ! बहुत सारे अमुल्यतम् पल-कदाचित् कुछ वितृष्णा से भरे पल ! अथवा आश्चर्यमयी साधनाओं के वे पल ! उनका वर्णन कभी करने का प्रयास करूँगा-मेरे वे पल महा-श्मशान में ही व्यतीत हुवे हैं ! कभी हल्की गर्म चिता पर बैठकर ! अधजली भीतर सी सुलगती अस्थियों की तपिश के बीच ! अंधेरी सूनसान ठन्डी रातों में बर्फ के समान ठन्डी हो चुकी चिता-आसन पर बैठकर मैं जलते शरीरों, मुर्दों के बीच अपने आपको ! अपने ज्यादा समीप पाता हूँ ऐसा मेरी तबसे लेकर आज और अभीतक अटल विश्वास है !उन शरीरोंके जलने से उठती भीनी भीनी सी सुगंध मुझे ऐहसास दिलाती हैं कि यही सुगंध तेरे इस शरीर में भी है-जिसे तूँ बड़े यत्न से सजाने और सँवारने का प्रयत्न करता है ! सच कहता हूँ एकबार आप श्मशान में आधीरात को जाकर देखो तो ! अंधकार के साम्राज्य में उन चिटचिटाती चिंगारियों की मधुर ध्वनि सुनकर देखो ! महाकालिका का वह अट्टहास आपको भयभीत करते-करते धीरे-धीरे असीम शान्ति के उस द्वार में प्रविष्ट करा देगा-“यद्गत्वा न निवर्तन्ते।”
प्रिय मित्रों ! काश इस जीवन में इस,शरीर के रहते नाना मत-मतांतरों, संस्कृति,सच्छास्त्रों,संतजनों के विरोध की अपेक्षा !काम-क्रोधादि-जनित विकारों की अपेक्षा अपने शिव के स्मरण तथा पुनः उनकी स्मृतियों में ही लगाने का प्रयास करूँ ! तभी इस नश्वर शरीर की सार्थकता है ! यही इस पद का भाव है ! शेष अगले अंक में प्रस्तुत करता हूँ–“आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”

Share this post:

Leave a Comment

खबरें और भी हैं...

लाइव क्रिकट स्कोर

कोरोना अपडेट

Weather Data Source: Wetter Indien 7 tage

राशिफल