प्निय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित-“धम्मपद्द” के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में चित्त वग्गो के प्रथम पद्द का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ–
“फन्दनं चपलं चित्तं दुरक्खं दुन्निवारयं ।
उजुं करोति मेधावी उसुकारो।व तेजनं ।।1।।”
प्रिय सद्कर्मानुरागी मित्रों ! मैं समझ सकता हूँ कि धम्मपद्द की व्याख्या पढते-पढते बहुतों का-“चित्त उच्चाटित” हो चुका होगा ! इसे भी-“भिक्षु आनंद” समझते थे अतः उन्होंने तथागत जी से प्राप्त-“बोधिसत्व” के आगामी विचारों को अत्यंत ही धैर्य पूर्वक समझने हेतु -“चित्त वग्गो” ऐसा नाम दिया ! मैं एक छोटा सा दृष्टान्त इस पद्द के संदर्भ में आपके समक्ष उपस्थित कर रहा हूँ !पुनः तथागतजी कहते हैं कि-“फन्दनं चपलं चित्तं दुरक्खं दुन्निवारयं !” अर्थात ईन्द्रियों के द्वारा विषयों में प्रवृत्त होने वाले चञ्चलचित्त की लगाम अपने हाँथों में लेना थोड़ा-“श्रम साध्य” है ! फिर भी इसे धीर-गंभीर पुरूष धीरे-धीरे अपनः वश में करते हैं !
“करत-करत अभ्यास पुनि जड मति होहीं सुजानु।
रस्सी आवत-जात ह्वै शील पर पडत निशान ॥”
यह जो चित्त है ! यही तो मेरी काया में बैठा मेरा सबसे बड़ा शत्रु और मेरा सबसे सुह्रद मित्र भी है ! जब सृष्टि निर्माण के संकल्प हेतु ब्रह्मा विचारमग्न थे तो सर्व प्रथम शंका तो उन्हें कर्मों के निर्धारण पर थी ! कर्मदर्शन पर थी ! कर्मगति पर थी ! कर्म की दृष्टि पर थी।
और यही-“गीताजी” में श्री कृष्ण अर्थात-“साँवरे जी” ने अर्जुन के प्रति वर्णित भी किया है !अर्थात चिन्ता मग्न ब्रम्हा अर्थात होने वाले-” विधाता” से ! हठात् उनकी काया से एक पुरुष उत्पन्न होता है ! और वह ब्रह्मा जी से पूछता है-“हे प्रभो ! मैं आपसे उत्पन्न हुआ !मेरा नामकरण आप करें ! तो ब्रह्मा ने कहा कि–तू मेरी काया से उत्पन्न हुआ है ! अत: तेरा नाम-“काय-स्थ” अर्थात चित्त है ! यह प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र ही-“चित्त (गुप्त) “के नाम से जाने जाते हैं ! यह-“चित्रगुप्त” हैं कौन ?
मित्रों ! जिस प्रकार एक गंदी नाली से होकर गुजरने वाली वायु अपने साथ दुर्गंध,और उपवन से होकर गुजरने वाली वायु सुगंध लेकर चलती है ! पर-“वायु” तो एक ही है न ?
मैं स्पष्ट रूप से आपको बताने का प्रयास कर रहा हूँ कि ब्रह्माण्ड में जितने भी मनुष्य हैं ! उन सभी का चित्त-गुप्त(चित्र-गुप्त) एक होते हुए भी अलग-अलग है-“एकोऽहम् बहुश्या प्रजायेमम्”।
मेरा चित्त-गुप्त अलग है ! और आपका चित्त-गुप्त अलग है-
“तोरा मन दर्पण कहलाये,भले बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाये” मित्रों ! मेरे आपके मस्तिष्क तीन प्रकार के होते हैं —
“Conscious Mind”,
“Sub Conscious Mind” &
“Unconscious Mind”. —
अर्थात-“चेतन अर्ध चेतन और अचेतन” ! “चेतन मन” भी दो प्रकार के बताये गए हैं -“अन्तर्मन” और “बहिर्मन”।
मैं यह कर्म करूँ या न करूँ ? किस प्रकार से करूँ ? क्यों करूँ ?
इसका परिणाम अनुकूल होगा या प्रतिकूल ?
यह “बाहरी-मन” का कार्य है, बाह्य- मन कार्य को क्रिया-रूपेण परिवर्तित या अपरिवर्तित करने में सक्षम होता है, इसीलिये कहते हैं कि —-
“:मन गया तो सो गया,गहि कर राख शरीर।
बिना चढाये कामठी, क्यों कर लागे तीर।।”
अतः तथागतजी कहते भी हैं कि–
“उजुं करोति मेधावी उसुकारो व तेजनं ” किंतु आप जैसोंका अन्तर्मन सत्यसंकल्प होता हैं ! उसे जो करना है, वह करना ही है ! जैसे मुझे सोना है तो सोना ही है-यह बालसुलभ है ! स्वचेष्ट है !
बहुत से लोग मेरे पास आकर कहते हैं कि स्वामी जी ! मेरे हाथ की लकीरों में क्या लिखा है ? जी हाँ, यही तो Palmistry है ! यही Astrology है।
चित्त-गुप्त की माँ-“सरस्वतीजी” हैं,सद् और असद् बुद्धि की प्रेरणा शक्ति ! एक बार-चित्त-गुप्त ने अपनी माँ सरस्वतीजी से विचार विमर्श कर एक लिपि का निर्माण किया ! जिसे “ब्राह्मी-लिपि” कहते हैं। इसके पूर्व के वेदोक्त ग्रन्थ स्मृति में थे ! श्रुति में थे !वक्तव्य में थे।
आपने Short hand type-writer अथवा -“इको-चार्ट”को देखा है ! जो सीमित रेखाओं में ही पूरी पुस्तक को अथवा ह्रदय की स्थिति को लिख देता है ! आपने डेढ इंच की फिल्म देखी है ! जिसके अंदर तीन घंटे की Memory छिपी होती है !
आपने एक सेंटीमीटर का Memory card देखा है, जिसके अंदर 92 GB Data स्टोर रहता है ! यही मेरा चित्त-गुप्त है ! यही आपका भी चित्रगुप्त है।
यह मेरा-आपका मन ही-“चित्त गुप्त” है ! यह गुप्तरूप से सब कुछ चित्रण करता रहता है-“भले- बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाये।” मैं आपको एक रहस्य की बात बताता हूँ- हमारे अन्त:करण में दो प्रकार की शक्तियाँ हैं-“ईश्वरीय और आसुरी” जो सदैव विद्यमान रहती हैं–
सुमति कुमति सबके उर रहहिं, नाथ पुरान निगम अस कहहिं।
जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना,जहाँ कुमति तहाँ बिपति निदाना॥”
जहाँ हमारा हृदय हमें पापकर्मों को करने से रोकता है, वहीं दूसरी तरफ काम, क्रोध, लोभ इत्यादि विकार अपने क्षणिक लोभ के लिये पापकर्मों को करने के लिये उत्साहित करते हैं ! और इन दोनों कर्मों का जो लेखा- जोखा रखता है, वही आपका”चित्त” है,वही मन है।
जैसे एक बाण का निर्माण करने वाला व्यक्ति होता है ! उसे अत्यंत ही समाधिवत्- स्थिरता से बाण का निर्माण करना होता है ! वह टेढी-मेढी बाँस की खपाचियों को सावधानी पूर्वक एकदम सीधी कर देता है ! मैं आपको एक भेद की बात बताता हूँ-आपने-“स्पन्दन” शब्द का एक अर्थ सुना होगा-“निरंतर ईषच्चलन ।”
जैसे मेरा दिल-“धक्-धक्” कर निरंतर बिना किसी रुकावट के धणकता ही रहता है-और इसके स्पन्दन का रुकना ही”मृत्यु”है !
ठीक इसी प्रकार तथागतजी कहते हैं कि ! हे भिक्षु ! आपके भीतर बैठा संसार मर-जाये ! क्यों कि राग की ! विषयादि की किन्ही भी प्रकार से उपलब्धता की संभावना होते ही-“ध्यायते विषयां पुँसः,संड़्गम् तेषूपजायते” यह तत्काल ही ! और भी तीव्र गति से विषयों का चिन्तन करने लगता है–यही इस पद्द का भाव है ! शेष अगले अंक में प्रस्तुत करता हूँ–“आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”
हमारा ऐप डाउनलोड करें
- Admin
- April 1, 2024
- 11:28 am
- No Comments
धम्मपद्द चित्तवग्गो~१ सूत्र- अंक~३६ — आनंद शास्त्री
Share this post: