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धम्मपद्द चित्तवग्गो~२ सूत्र- अंक~३७- आनंद शास्त्री

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प्निय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित-“धम्मपद्द” के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में चित्त वग्गो के द्वितीय पद्द का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ–
“वारिजो वखले थित्तो ओकमोकत उब्भतो ।
परिफन्दतिदं चित्तं मारधेय्यं पहातवे।।२।।”
भगवान श्री अर्हन पुनः कहते हैं कि-“वारिजो व खले थित्तो ओकमोकत उब्भतो” जिस प्रकार से एक मछली को आप जल से निकाल कर तपती रेत पर फेंक दो ! वो आतुरता पूर्वक भीषण रूप से काँपने लगती है ! छटपटाने लगती है,मृत्यु- भय से वह आर्त हो जाती है ! वही स्थीति मेरे चित्त की भी होती है,जब उसे-“परिफन्दतिदं चित्तं मारधेय्यं पहातवे”
मैं नाना प्रकार के शब्द,रूप,रस,गंध,स्पर्शादि विषयों से हटाकर”आत्मस्थ”करने का प्रयास करती हेँ ! मैं दूसरों का तो नहीं जानति,किंतु मेरे लिये यह पद्द स्वानुभूत है ! मैं अपनी आँखों से जाल में से निकालकर बाहर फेंकी हुयी मछलियों की तडफडाहट देखा हूँ ! वो कितनी बुरी तरह प्राण-प्रण से वापस जल में जाने को छटपटाती हैं ! मैंने मुर्गे बेचने वाले कसाईयो को देखा है जब वे पिंजरे से मुर्गे को निकालते हैं तब वह कितने भय से चीखता है।
क्यों कि इन बिचारी मछलियों का जन्म इसी जल में हुवा है! इन मुर्गों का जन्म इसी पिंजरे में हुवा है ! इसी में निरंतर प्रवाहित होते रहना,इसी में बंदी रहना इनकी स्वाभाविक प्रकृति है !
और इससे निकाले जाने पर-इनकी मृत्यु होनी ही है,ये बिल्कुल सुनिश्चित है।
मित्रों ! मेरी समूची इन्द्रियों के द्वारा मेरे चित्त को हजारों- हजार जन्मों से विषयों को भोगने की ! उनमें ही सतत् रमण करने की आदत पड़ी हुयी है।! मैं इन विषय भोगों के अभाव में जीवन की कल्पना नहीं कर सकता ! और फिर भला कल्पना करूँ भी तो कैसे ?
मैं देखता हूँ कि ये सब कृतिम भक्ति और ज्ञान के प्रति मेरे द्वारा किये जा रहे सभी प्रकार के ढोंग जैसे ही किन्ही विषयों की प्राप्ति होने की संभावना दिखती है-मेरा यह कृतिम सात्विकता का मुखौटा उतर जाता है,मैं आपको एक छोटी सी कहानी सुनाता हूँ–

मैं तब लगभग पच्चिस साल का था, एक बार अपने एक शिष्य जो पालनपुर (गुजरात)में रहते हैं,उनके घर गया था,तो पता चला कि-“परमपूज्य पाण्डुरंड़्ग शास्त्री आठवलेजी” आने वाले हैं ! मैं भी उनके साथ उनके दर्शनों को चल पड़ा! मैं देख रहा था हजारों-हजार,लाखों लोग सभी दिशाओं से उसी पण्डाल की तरफ जा रहे थे जहाँ पूज्य-पाद आने वाले थे-तभी रास्ते में मेरे शिष्य के कोई उनके परिचित मिले ! तो मेरे कान में मेरे शिष्य ने कहा कि ये बहूत खूँड़्खार लुटेरा है ! उसने इनसे पूछा कि कहाँ जा रहे हो ? ये इतनी बड़ी भीड़ कहाँ जा रही है ? इतने सारे लोग क्यों एक ही दिशा में दौड़े जा रहे हैं ?
तो मैं अचानक बोल पड़ा  कि एक बहूत बड़े रत्नों के व्यापारी आये है ! वे बहूत ही कम मूल्य में कीमती रत्न दे देते हैं ! हम सब वहीं जा रहे हैं-“रत्न” लेने ! बस फिर क्या था,वह “दस्यु-सम्राट” भी रत्नों की लालच में सभी के साथ चल पड़ा ! मैं एक बात जरूर कहूँगा कि भक्ति,योग अथवा ज्ञान को या तो ध्रूव,प्रहेलाद पा सकते हैं या फिर कोई”रावण और हिरण्यकश्यप” ही पा सकता है।
मेरे जैसे टुटपुँजियों के वश की बात नहीं है-उन्हें पाने की ! तभी एक महान आश्चर्य मैं देखा था ! वह कूख्यात लुटेरा सीधे मंञ्च पर-पाण्डुरंड़्ग शास्त्रीजी” के पास पहूँच गया ! उसे रोकने की किसी की हिम्मत भी नहीं हुयी,और वह उनसे पूछता है कि-
प्र-मैंने सुना है आपके पास बहूत सारे रत्न हैं ?
उ- हाँ ! तुमने बिल्कुल सच सुना है ?
प्र-क्या मुझे दिखा सकते हैं ?
उ- क्या सचमुच आप देखना चाहते हो ?
प्र-मैं झूठ क्यों बोलूँगा,इसी लिये तो आया हूँ ?
उ-तो मैं दिखाने वाला कौन होता हूँ,तुम स्वयम् ही देख लो,वे कीमती रत्न तुम्हारे पास भी तो हैं !
प्र-मेरे पास नहीं हैं,पहली बार अपने आपको टूटता हुवा सा पा कर वह “दस्यु-सम्राट”बोल पड़ा !!
उ- यदि तुम वस्तुतः उन्हे देखना ही चाहते हो-“तुम्हारे पास वे सभी रत्न हैं ! प्र-कहाँ हैं ? मैं उन्हें कैसे देख सकता हूँ ? आप बताइये ! मैं उन्हें अवस्य ही देखना चाहता हूँ ?
उ-हे मेरे प्यारे ! तुम अभी तक बाहर की तरफ देख रहे थे ! अब एक बार बस एक बार अपने भीतर देखने की कोशिश तो करो !और गहेराईयों में देखो ! और बस उस कूख्यात लुटेरे की अन्तर्यात्रा प्रारंभ हो गयी ! उसने अप्रतिम आत्म रत्न के प्रकाश को देख लिया ! वह तमस् की उस रेखा को पार कर गया-
“यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धामः परमम् ममः” वह अंतर्यात्रा का वह बिंदु था जिसकी कल्पना कठिन है !
“प्रातःकाले शिवम् दृष्ट्वा निशा पापो विनश्यतिः।
आजन्मा कृत मध्यान्हिः सायांनी सप्त जन्मनी॥”
और वह प्रसिद्ध संत”भैयाजी”के नाम से पाण्डुरंड़्ग शास्त्रीजी का आजीवन सहयात्री बन गया ! अर्थात-“स्वाध्याय परिवार” के प्रधान शिष्य ! किंतु उन पलों में ! उसकी आखों में मैंने जो तड़प देखी थी!!जो उत्सुकता देखी थी ! जो भूख देखी थी ! उस कुछ छणों की-“उच्चतम भूख”ने उन्हें”दस्यु से संत शिरोमणि”बना दिया।
अतः हे प्यारे मित्रो ! “परिफन्दतिदं चित्तं मारधेय्यं पहातवे”
चित्त जल्दी विषयों का त्याग करना तो नहीं चाहता- किंतु यदि उसे यह आभास हो जाये ! यह विश्वास हो जाये कि-इसके त्याग से प्राप्त-“अनन्य आत्मानिनाद” इससे कहीं अलग और अलौकिक है ! श्रेष्ठतम् है ! तो अवस्य ही वह अपनी नितांत अंतःयात्रा का पथिक बन जाता है ! यही इस पद्द का भाव है ! शेष अगले अंक में प्रस्तुत करता हूँ–“आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”

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