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धम्मपद्द चित्तवग्गो~३ सूत्र- अंक~३८– आनंद शास्त्री

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प्निय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित-“धम्मपद्द” के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में चित्त वग्गो के तृतीय पद्द का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ–
“दुन्निग्गहस्स लहुनो यत्थ कामनिपातिनो ।
चित्तस्स दमथो।साधु।चित्तं।दन्तं।सुखावहं ।।३।।”
तथागतजी कहते हैं कि-“दुन्निग्गहस्स लहुनो यत्थ कामनिपातिनो”
और मित्रों ! यह मुश्किल है ! बहूत ही मुश्किल है ! तथापि असंभव नहीं है ! इसे समझने हेतु मैं एक बात रखता हूँ- यदि मुझे किसी अपने शत्रु को अपना मित्र बनाना हो तो सबसे प्रथम बात तो यह आती है कि, क्या मैं अपने शत्रु को कभी देखा हूँ ?
क्या उसे पहेचानता हूँ ? और जब पहेचानता ही नहीं,तो भला कैसे कुछ कर सकता हूँ ?
मेरा सबसे बड़ा शत्रु मेरी अपनी “काम- वासना” है ! ऋग्वेद ४•४•१४ में कहते हैं कि-
“य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति अथेतरे दुःखमेवापियन्ति।”
काम-क्रोध ये दोनों महान शत्रु हैं मेरे ! और दुश्मन तो बाहर से आते हैं ! लेकिन तो मेरे भीतर ही बैठे हुवे हैं-
“काम क्रोध ! लोभ ! मोह देह तिष्ठन्ति तस्कराः।
ज्ञान रत्नम् परात्पराय तस्मात जाग्रहि जाग्रहिः जाग्रहिः।।”
और तो और ये दोनों के दोनों ही स्त्रियों के शरीर में-“रज”और पुरूषों के शरीर में”वीर्य” से सीधा-सीधा सम्बन्ध रखते हैं।
और- “रज तथा वीर्य”का सीधा सम्बन्ध””बुद्धि या फिर प्रज्ञा”से होता है ! आप यूँ समझ लो कि-“रज-वीर्य” के क्षरण से बुद्धि नष्ट होती है,तभी तो मेरे श्री कृष्ण जी ने गीता में कह भी दिया कि-“जहि एनं दुरासदं।”
और यदि इनका क्षरण कम से कम होता है तो ये घनीभूत होकर- “ओजस्-ऋतम्” अर्थात बुद्धि का प्रज्ञा में रूपांन्तरण कर देते हैं !
आप विचार तो करें,यही स्पष्ट करते हैं “बुद्ध” ! वे कहते ही हैं कि विषयों का दमन करो ! किंतु दमन करने की भी तो कोई रीति होती है ! मेरी एक महिला मित्र हैं-हीमानी अग्रवाल” वो पिछले साल चुनाव में जीत गयीं ! उनके बहूत से राजनैतिक-विरोधी और पहले के भी शत्रु थे !जीतने के बाद उन्होंने पहला काम यह किया कि जो उनके विरोधियों की जरूरी और नैतिक शिकायतें थीं ! उन्होंने सबसे पहले उन्हें सुलझाया,अपने धूर विरोधियों के (जो निर्धन परिवार के थे) उन्हे नौकरी या व्यवसाय दिलवाया, उनके ऊपर जो झूठे केस चल रहे थे उन्हें सुलझाने में मदद की।
मित्रों  ! मैं एक दिन उनसे पूछ बैठा कि- हीमानी ! तेरी सत्ता है,प्रशासन भी तेरे साथ है-तो तूम अपने दुश्मनों से बदला नहीं लोगे ?
तो वो बोली-“हाँ” ! बदला ही तो ले रही हूँ ! मैं शत्रु को तो नहीं मिटा सकती लेकिन-“शत्रुता” को मिटा सकती हूँ ! अब इतना तो सामर्थ्य है ही मेरा ! और मैं वही कर रही हूँ ! मैं शत्रुता मिटा रही हूँ !तो मित्रों !  प्रकारान्तर से विषयों का दमन करने का यह श्रेष्ठतम् उपाय मैं समझता हूँ। इसका उत्कृष्ट उदाहरण आज हमारे यशस्वी प्रधानमन्त्री जी ने समूचे विश्व के समक्ष रखा है ! अपने वैचारिक और धूर विरोधियों को अपने साथ मिलाकर राष्ट्र तथा-“रामराज्य” की स्थापना हेतु एक सुन्दर प्रयास किया है।
तथागतजी कहते हैं कि-“चित्तस्स दमथो साधु चित्तं दन्तं सुखावहं “इन्द्रिय जनित विषयों का उपभोग करने से जो कृतिम् और छणिक सुखों की प्राप्ति होती है ! या फिर स्वर्ग जनित लोकों की प्राप्ति हो सकती है ! वे सभी सुख इस-“तृष्णा क्षय” से प्राप्त चन्द्रमा की सोलहवीं कला के तूल्य भी नहीं हैं।
मैं आपको एक गंभीर बात बताता हूँ ! तिथि प्रबोध में कहते हैं कि-“अमा सह वसत अस्यां चन्द्रार्कौ इति अमावस्याः!”
प्रकृति कि वाणी अर्थात”सृष्टि-“उत्पत्ति”के मूल तत्व-“रज और पुरूष तत्व” का निर्माण अन्न के रस से न्यूनतम् पन्द्रह दिनों में संभव हो पाता है ! और कई मूढ नित्य प्रति ही कामपीड़ित रहते हैं-“महर्षि वात्साययन काम शास्त्र में स्पष्ट कहते हैं कि-“वर्ष में एक बार भोग करने वाले दम्पत्ति योगी हैं ! और दो बार करने वाले सामान्य योगेच्छुक ! तीन मासमें एक बार भोग करने वाले सामान्य गृहस्थ, मास में एक बार भोग करने वाले भोगी ! पन्द्रह दिन में एक बार भोग करने वाले कामुक ! और साप्ताहिक भोग कर्ता रोगी ! और फिर नित्य ही भोग करने वालों को तो अपनी-“अर्थी” पहले ही मंगवाकर तैयार कर लेनी चाहिये।
अतः प्यारे मित्रो ! तथागतजी कहते हैं कि जो भिक्षु अपने काम-क्रोध का दमन करने में,उनकी दिशा मोड़ने में सक्षम हो जाते है, वह-“तृष्णा-क्षय” को प्राप्त कर लेते हैं ! मेरा अनुभव कहता है कि-
“मन मरे, चिन्ता मरे ! मरि-मरि जाय शरीर।
आशा-तृष्णा ना मरैं ! कहते दास कबीर॥
इस पेट और मन में ऐसी दावानल धधकती रहती है जो समूची सृष्टि में उत्पन्न अन्न और धन को पाकर भी ! समूचे विश्व और ब्रम्हाण्ड की सत्ता पा कर भी ! देवतुल्य सम्मान और आयु पाकर भी कभी शान्त नहीं होती ! किन्तु ये भी सच है कि जब भगवान श्री कृष्ण द्रौपदी की बटलोही में चिपके एक शाक को भी चखे लेते हैं तो दुर्वासा जैसे समूचे ब्रम्हाण्ड के अधिनायक महर्षि की क्षुधा तृप्त हो जाती है।
यही इस पद्द का भाव है शेष अगले अंक में!  मैं बहुत समय से धम्मपद पर अपनी बाल प्रबोधिनी लिखता आ रहा हूँ,मैं आपसे आग्रह करूँगा कि यदि आपको- धम्मपद्द  के विचार अच्छे लगते हैं तो उनका अपने व्यावहारिक,व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में पालन करने का प्रयास करें ! यह स्वीकार करता हूँ कि बीच-बीच में शरीर की अधिक आयु होने के कारण ! शारीरिक अस्वस्थता के कारण निबंध प्रेषित करने में असमर्थ होता हूँ इस हेतु आप सभी से बार-बार छमा प्रार्थी हूँ- “आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”

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