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धम्मपद्द चित्तवग्गो~५ सूत्र- अंक~४०– आनंद शास्त्री

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प्निय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित-“धम्मपद्द” के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में चित्त वग्गो के पाँचवें पद्द का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ–
“दूरंगमं एकचरं असरीरं गुहासयं ।
ये चित्तंसंयमेस्सन्ति मोक्खन्ति मार बन्धना।।५।।”
अब पुनः कहते हैं कि-” दूरंगमं एकचरं असरीरं गुहासयं”
विषयों के प्रति आकर्षण का मूल कारण चित्त का बाह्य-प्रवृत्तिओं में भ्रमण है ! और भी एक बात है कि-“चित्त” उन्हीं विषयों के पीछे भागता है जिन्हें प्राप्त करने की उसे थोड़ी सी भी संभावना दिखती है ! किंतु इसके साथ-साथ जैसे-जैसे इसकी इच्छाओं की पूर्ति होती जाती है,इसकी दौड़ आगे और आगे बढती ही जाती है-इसकी राक्षसी क्षुधा ! तृप्ति तो मुझे ईन्द्र-पद प्राप्त हो जाने पर भी नहीं होने वाली।
आप कल्पना करो ! अपनी बिल्कुल ही बाल्यावस्था तो मैंने मुम्बई की सडकों पर -“टपोरी” बनकर बितायीं थीं ! बूट पाॅलिस से लेकर गटर साफ कर-कर व्यतीत की थीं ! तब कभी सामान्य बच्चे की तरह खेलने-कूदने को नहीं मिला ! किन्तु उसके बाद  जब मैं फिर भी कुछ छोटा ही था तो हरिद्वार में रहता था ! और गर्मियों में बाहर घनघोर गर्मी पड़ रही होती थी,लू के थपेड़े चल रहे होते थे,और मैं अपने मित्रों के साथ बाहर खेलने जाने की जिद्द करने लगता था ! तो मेरी प्यारी -“ममतामयी आनंदमयी माँ मुझे कभी डाँट-कर,कभी समझा-कर, कभी कोई अच्छी सी पुस्तक देकर,और कभी-कभी तो मेरी पिटाई करके भी मुझे बाहर लू में जाने से रोक लेती थीं न ?
हाँ मित्रों ! तभी तो विवेक चूड़ामणिं में कहते हैं कि–
“इतः को न्वस्ति मूढात्मा यस्तु_स्वार्थे प्रमाद्यति।
दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरूषम्।।५।।”
जो इस दूर्लभ मानव शरीर और तिस पर भी “पौरूषस्य की क्षमता युक्त-“देह” पाकर भी परमार्थ साधन में प्रमाद करते हैं !उनसे बड़ा मूढ कोई और हो ही नहीं सकता।
प्रिय मित्रों ! तथागतजी यही कहते हैं कि-मैं-आप अपनी सभी बाह्य-ईन्द्रियों को-बाह्य संचरण से जैसे मेरी आनंदमयी माँ  रोक लेती थी ! वैसे ही आप भी उन्हें रोक सकते हैं ! मैं सच कह रहा हूँ इसी शरीर-में मनोहर उपवन,पुष्प-वाटिका,सुँदर सुँदर-पक्षी ,सुरम्य,पर्वत,चन्द्रमा,सूर्य,तारे सभी कुछ भरे पड़े हैं ! आप एक बार भीतर जाकर तो देखो ! आप इस समूचे ब्रम्हाण्ड में व्याप्त आकाश गंगाओं,नक्षत्रों से अपने भीतर उतर कर खेल सकते हैं !
यह मेरी स्वयं की अनुभूति है ! उस बगीचे के अर्थात अमरावती के उन दिव्य देवपुष्प-“पारिजात” को नित्यप्रति मानस पीठिका पर आरूढ़ होकर उन शिव को चढाता हूँ जिनके लिये ये पुष्प खिलते हैं।
प्रिय निजात्म स्नेही आत्म बन्धुवों ! संत कबीर ने आत्मलोक यात्रान्तर्गत मार्ग के अनेक इन दिव्य पडावों की अपने अनेक शबदों में रहस्यमय व्याख्या की है ! किन्तु ये तो निश्चित है कि-
“गुरू की बातें अटपटी ! झटपट लखी न जाय।
जो झटपट लखि जात तो-सब खटपट मिट जाय॥”
अब आप सोचो तो-जब आपकी इन्द्रियाँ ! जब आपका चित्त अंतर्मुखी हो जायेगा ! जब आपकी आँखें अपने-” तद् दूरे तद्ऽवन्तिके” से जो अभी तक बहूत दूर था ! प्रमाद के कारण जिसे आप देखने से वँचित थे ! उसी अपनी आत्मा को अपने इसी-“चित्त”के भीतर शयन करते हुए देखोगे।
हाँ मित्रों ! मेरे प्यारे- लड्डू गोपालजी मेरे मन के भीतर ही सो रहे थे ! मैं दुर्भागा उन्हें पालने में सुलाकर भुला बैठा था ! और यह तो मैं जानता भी हूँ ! और समझ भी सकता हूँ कि वे मेरी ह्रिदय-गुहा में सदैव निवास करते हैं ! किंतु एक बात है कि-“ये चित्तं संयमेस्सन्ति मोक्खन्ति मार बन्धना।”
जबतक मेरे इस नश्वर शरीर का पतन न हो जाये,मैं मर न जाऊँ ! अब इसमें भी मुझ अभागी को एक समस्या लगती है-इस शरीर का पतन कैसी-कैसी विषम परिस्थितियों में हो सकता है ! जैसे मुझे एक बार बचपन में मुम्बई कांदीवली में एक भवन निर्माण में मजदूरी करते समय बिच्छू नें डँख मार दिया था ! मैं घंटों रोता-चिल्लाता रहा था ! आज भी जब वो घटना स्मृति में आती है तो मैं सिहर उठता हूँ ! और मैं तो सुना हूँ कि मृत्यु-कालमें “हजारों-हजार”बिच्छू एक साथ डँख मार रहे हों इतनी भयानक वेदना होती है- जब शरीर से प्राण निकलते हैं तो-
“जन्म दुःखम् जया दुःखम् जारा दुःखम् पुनः पुनः।
मृत्यु काले महा दुःखम् तस्मात जाग्रहिः जाग्रहिः जाग्रहिः॥”
इतनी तैयारी करनी होगी मुझे ! इतना अंतर्मुखी दृढता पूर्वक मुझे होना होगा कि-“इस शरीर के जब टुकड़े-टुकड़े हो रहे हों !
जब मुझे कैंसर की भयानक वेदना हो रही हो !
जब सभी अंग-उपांड़्ग काम करना बंद कर चुके हों !
जब मेरा यकृत अथवा ह्रदय भयानक रूप से क्षत्तिग्रस्त हो !
जब मैं मल-मूत्र से लिथड़ा पड़ा होऊँगा बिस्तर पर !
जब अन्न तो क्या जल की एक बूँद भी गले के नीचे उतारने में मेरी इन्द्रियाँ सक्षम् नहीं होंगी-क्या तब भी मैं उस-“स्व-स्थ”में स्थिर रह पाऊँगा ! यदि रह पाता हूँ तो मैं सभी बंधनों से मुक्त अवस्य ही हो जाऊँगा। यही इस पद का भाव है ! शेष अगले अंक में प्रस्तुत करता हूँ–“आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”

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