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धम्मपद्द यमकवग्गो~सूत्र -७ अंक~७ — आनंद शास्त्री

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सम्माननीय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित-“धम्मपद्द” के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में यमकवग्गो के सातवें पद्द का पुष्पानुवाद भगवान श्रीतथागत के श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ—
“शुभानुपस्सिं विहरन्तं इन्द्रियेसु असंवुतं।
भोजनम्हि अमत्तञ्ञुं कुसीतं।हीनवीरियं।
तं वे पसहति मारो वातो रूक्खं व दुब्बलं।।७।।”
और इसे संस्कृत में कहते हैं कि–
विरहन्तं शुभप्रैक्षमिन्द्रियेष्वप्यसंवृतम्।
भोजनादिष्वमात्राज्ञमलसं हीनवीर्यकम्।
प्रसह्य पातयेन्मारो वातो वृक्षमिवाबलम्।।
भगवान अजातशत्रु जी कहते हैं कि–“शुभानुपस्सिं विहरन्तं इन्द्रियेसु असंवुतं” मैं इस पद को तथागतजी के अनुसार समझने का प्रयास करता हूँ ! ये जो मेरी आँखें,कान,रसना,त्वचा,इत्यादि जो भी विषयों का उपभोग करने वाले मन के “यंत्र”हैं !
यह मेरा विषयोन्मुखी मन इन्हीं ईन्द्रियों जनित प्राप्य भोगों को भोगते हुवे मान बैठा है कि बस ! जो कुछ भी सुख है वह यही है।
इस पद को समझने हेतु मैं एक दृष्टांत कहता हूँ– महाराजा भर्तहरी जी कहते हैं कि- “एक कुत्ता था ! उसे एक सूखी हुयी हड्डी मिल गयी ! वह उसे कुतरने का प्रयास करने लगा ! वह सुखी हुयी हड्डी को ही खाने की कोशिष करने लगा ! परिणामतः उस हड्डी की करचली नुकीली नोक उसकी “डाढों”में लग गयी !
उसकी डाढों से खून रिसने लगा ! और वह कुत्ता ! अपने ही जबणों के,अपनी ही डाढों के रिसते खून को “हड्डी का रस” समझ ! बडे ही आनंद से ! चाव के साथ चूसने लगा ! और अपने ही खून को पी-पी कर अंततः वह कुत्ता ! कुत्ते की मौत को प्राप्त हुवा। यहाँ यह भी विचारणीय है कि उपरोक्त दृष्टांत का नायक- “कुत्ता” है ! अर्थात अपनी ही इन्द्रियों से अपने ही-“रस-बल-सामर्थ्य” का पान करने वाला ! छणिक इन्द्रियों के आवेग में बहक जाने वाला अंततः अपना स्वयं का सर्वनाश कर बैठता है।
मित्रों ! तथागतजी कहते हैं कि-“भोजनम्हि अमत्तञ्ञुं कुसीतं हीनवीरियं” ऐसा क्यों हुवा ! उसका कारण बताते हुवे तथागतजी कहते हैं कि ! किन्हीं भी परिस्थियों में विषयों का उचित मात्रानुसार सेवन पथ्य है ! किसी भी बिमारी को मिटाने हेतु ली जाने वाली औषधि की भी एक मात्रा होती है ! मात्रा से अल्प अथवा अधिक मात्रा का सेवन  किसी भी प्रकार से “ब्याधि-विनाशक”होने के स्थान पर”ब्याधि-वर्धक” हो जाता है ! भोजन का स्वादिष्ट होना आवश्यक है किन्तु उसका पौष्टिक होना ! स्वास्थ्यवर्धक होना स्वादिष्ट होने से अधिक आवश्यक है।
जो औषधि की मात्रा नहीं जानते-वे न तो वैद्य हो सकते हैं,और न ही “आरोग्य-लाभ”करने वाले”रुग्ण” जन ! “बुद्ध” स्पष्ट रूप से उद्घोस करते हैं कि ! विषयों का,भोजनादि पदार्थों का “जीवन-यापन”हेतु अत्यावश्यक रूप से उपयोग कर्ता ही एक योग्य भिक्षु हो सकता है ! मैं यह कहना चाहता हूँ कि, भोजनादि पदार्थों का अतिशय सेवन करने वाला !अथवा सर्वथा परित्याग करने वाला,ये दोनों ही असंयमी कहे जाते हैं।
मैं तो स्पष्ट शब्दों में आपको एक बात अवस्य ही कहूँगा कि “बुद्ध”ही नहीं हमारे सभी शास्त्र स्पष्ट रूप से आज्ञा देते हैं कि-
अपने”व्यक्तिगत-अंगों”का अनावश्यक रूप से स्पर्श तो क्या यथा संभव दर्शन भी करना अनुचित है ! महा विनाश का हेतु हो सकता है ! यदि मैं पवित्रतादि में प्रमाद करता हूँ ! अपने आपको मानसिक और शारीरिक दोनों ही रूपों से ब्रम्हचारी स्वरूप से संयमित होने से नहीं बचा पाता !तो उसका क्या परिणाम होगा ?
मैं अवस्य ही”पतित”हो जाऊँगा ! और कामादिवेग निःसंदेह मुझे अपने मायाजाल में फँसाकर “नष्ट”कर देंगे ! इस प्रकार यह स्पष्ट करते हैं कि-“प्रसह्य पातयेन्मारो वातो वृक्षमिवाबलम्”-
“जो गीरि से भू पर गिरहिं मरहिं सो एकहिं बार।
जो चरित्र गिरि से गिरै बिगरहिं जनम हजार।।”
यदि मेरा चरित्र ही निर्बल हो गया ! यदि अनायास ही मेरा पुरुषत्व किसी अन्य के “नारित्व”की कामना करता है ! तो जैसे ही जब थोड़ी सी भी तेज वायु चलेगी ! जब गोकुल में”अंधकासुर”आयेगा ! अर्थात इन्द्रियों के राज्य में विपरीत इन्द्रियों का प्रवेश होगा ! तो निर्बल सत्व-हीन वृक्ष की तरह मैं काम के वशीभूत हुवा अनायास ही किसी भी स्त्री के समक्ष आत्मसमर्पण कर बैठूँगा ! अतः यह स्पष्ट करते हैं कि यदि मैं “आत्मोपलब्धि” का ईच्छुक हूँ तो सर्व प्रथम मैं अपनी ईन्द्रियों पर नियंत्रण करने हेतु तत्पर रहूँ ! इसी संदर्भ में श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं कि-
“असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥”
यहाँ भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को विशेष रूप से-“महाबाहो” कहकर सम्बोधित किया है ! अर्थात वे उनके बाहुबली होने का स्मरण दिलाते हुवे कहते हैं कि केवल रणक्षेत्र में बाहुबली होना पर्याप्त नहीं है अपितु अपने-आप के भीतर भी अपने मन को सभी इन्द्रियों के साथ वश में रखना भी एक बाहुबली का परिचायक है।यही इस”पद्द”का भाव है....-“आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”

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