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धम्मपद यमकवग्गो~ सूत्र-16 अंक~16

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प्निय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित #धम्मपद के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में यमकवग्गो के 16 वें पद्द का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ—
“इध मोदति पेच्च मोदति कतपुञ्ञो उभयत्थ मोदति।
सो मोदति सो पमोदति दिस्स्वा कम्म विसुद्धिमत्तनो।।”
इसे संस्कृत में कहते हैं कि-
मोदतेऽत्र तथा प्रेत्य चोभयत्राऽपि पुण्यकृत्।
स्वं कर्म निर्मलं दृष्ट्वा, मोदतेऽसौ प्रमोदते।।
भगवान अजातशत्रु जी पुनः कहते हैं कि–“स्वं कर्म निर्मलं दृष्ट्वा” इस श्लोकमें स्पष्टतया “स्वर्ग”अर्थात”सर्ग” की बात कहते हैं ! कर्मोंका निर्मल होना-मल रहित होना ! मैं अपनी सबसे प्रिय चीज उन्हे दे दूँ ! क्या-“तन-मन और धन”यहीं तो मैं अटका हुआ हूँ’ ! जैसे ही ये तीनों सद्गुरू को अर्पित कर देता हूँ,सौंप देता हूँ !
बस वे तत्काल अपनी “ज्ञानाग्नि”से इन तोनों के मोह से मुझे मुक्त कर देते हैं, पर ये सौंपने वाले ! और लेने वाले दोनों का ही मिलना जरा मुश्किल है ! गुरु देव तुम्हारे संसार को भष्म कर अपनी काया में लिपटा लेते हैं ! होता क्या है ! जानते हैं ?  पहले संसार मेरे भीतर घुसा हुवा था ,घर,धन,सम्बन्ध, शिक्षा, सब के सब मेरे भीतर घुसे हुवे थे ! और अब मैं उनमें तो होऊँगा पर वे मुझमें में नहीं होंगे। मित्रों ! ये आश्चर्यजनक है कि इतना बडा संसार हमारे अपने भीतर घुसा बैठा है ! हजारों हजार नाते,रिश्ते, शत्रु,मित्र,मध्यस्थ,परिचित,नगर,गांव,देश,घर,सामान जीतने बाहर हैं उनसे हजारों हजार गुना अधिक ये हमारे भीतर भरे पड़े हैं ! एकबार बाहर का संसार छूट सकता है किन्तु अंदर का संसार ?
और ये संसार बुद्ध पथ पथिक के लिये-“उत्पलमल्लिकाय” जैसे कमल का फूल जल में रहते हुवे भी जल उस पर टिक नहीं पाता वैसे आप संसार में रहेंगे-“नीलाब्जकण्ठसदृशाय”लेकिन यह याद रखना कि ऐसा नहीं है कि संसार के दुःख आपको तब छोड देंगे, ये जो संसार है न यह भक्तों को कुछ ! ज्यादा ही सताता है ! राम, सीता,राधा,गोपियां,उद्धव,विदूर,ध्रुव,प्रहेलाद,नरसी,मीराजी, सुकरात,शेख फरीद,संत दरियाव,नामदेव,तुकाराम,संत ज्ञानेश्वर किसी भी संत की जीवनी उठाकर आप पढ लेना ! ससार ने उनको रुलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी ! लेकिन! इन सभी ने क्या किया संसार को गाली दी ?   श्राप दिया ? अपने को सताने वालों को भष्म कर दिया ? इन्होंने एक दूसरों के घर जलाये ?राजकीय सम्पत्तियों को नष्ट किया ? दूसरे घरों की,सम्प्रदायों की स्त्रीयों का शोषण किया ? निरीह बालकों की हत्या की ?
छोटी-छोटी बच्चियों को जंजीरों से बाँधकर बाजारों में बेचने की कोशिष की ? जेहाद के नाम पर आतंकवादी बने ? रोटी के बदले अधर्मान्तरण किया ? मन्दिरों को तोड़ने के बाद उनके भग्नावशेषों पर-“महज-जिद्दें” खडी कीं ?
नहीं ! संत ऐसा नहीं कर सकते,वे तो अपने को सताने वाले को भी ह्रिदय से आशीष देते हैं, यही कर्मों का निर्मल होना है ! तथागतजी कहते हैं कि- “चोभयत्राऽपि पुण्यकृत्” यह ऐसी शीतल निर्मलता है जो हमें कभी भी मानसिक-रूपेण आप्लावित नहीं कर सकती ! भयाक्राँत नहीं होने दे सकती ! आप जैसे सन्मार्ग पथ पथिकों का कभी भी”अकल्याण”संभव नहीं है ! प्रिय मित्रों !ये तो संभव है कि-“योगभ्रष्टादि पुरूषस्यः पुनर्जन्मम् च उच्यते” अर्थात महात्मा बुद्धादि ने भी तो लोक कल्याणार्थ अथवा कर्मफल शेषार्थ अनेक जन्मों को धारण किया ! और वे सभी जन्म उत्तरोत्तर श्रेष्ठत्व को प्राप्त कराते गये ! और इसे ही आप कर्म फल का सिद्धांत कह सकते हैं ! आप विचार करें ! हम आज और अभी से अपने कर्मों को सुधार लें ! पाप कर्म से दूर हो जायें ! मांसाहार छोड दें ! उन पैसों से किसी असहाय की सहायता करें तो निःसंदेह उनका फल आज नहीं मिलेगा ! किन्तु इससे मिलती मानसिक शक्ति,तनाव से मुक्ति तथा अद्भुत अद्वितीय शांति आपके बाह्यान्तर अस्तित्व को संतुष्ट कर देगी ! इसकी सम्भावना अधिक है कि पापाचार के फल ही अभी मिलेंगे ! अर्थात ये भी शाश्वत सत्य है कि अच्छे कर्मों के फल भी मिलेंगे।
मैं यह कहना चाहता हूँ कि- “सो मोदति सो प्रमोदति” ! मैं एक रहस्य की बात आपको बताता हूँ-जब आद्य श्री शंकराचार्य जी का वध करने कापालिक तत्पर था ! जब मन्सूर की खाल उतारी जा रही थी ! जब बुद्ध के कानों में कील ठोंकी जा रही थी ! जब सुकरात अपने लिये विष पीस रहे थे !और जब मीराबाई विष का प्याला पी रही थीं ! तब उन सभी की प्रशन्नता का भेद मेरे जैसे भला क्या जान सकते हैं ! और यही सर्वोत्तम् स्वर्ग सुख है ! सर्ग है, सोपान है सांवरेजी के रँगमहल में प्रवेश करने का प्रवेश द्वार है यह ! “सो मोदति सो प्रमोदति”।
इस प्रकार यह स्पष्ट करते हैं कि- “दिस्स्वा कम्म विसुद्धिमत्तनो”
इस पद्यांतर्गत महात्मा बुद्धजी ने “स्वर्ग और नर्क”की सत्ता,उनके अस्तित्व,पुनर्जमादि मान्यतायें और कर्मों के अच्छे तथा बुरे प्राप्त होते फलों की ब्याख्या कर यही सिद्ध किया है कि वे भी शास्त्रादि मान्यताओं के पक्षधर थे ! वे नास्तिक नहीं थे,वे अति श्रेष्ठ आस्तिक तथा “वैदिक वाड़्ग्मय” के अर्वाचीन कालीन पुरोधा थे ! यही इस”पद्द”का भाव है!!शेष अगले अंक में !  -“आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”

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