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निज भाषा संस्कृति से युवा पीढ़ी को जोड़ने के लिए धार्मिक अनुष्ठान अति आवश्यक

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विकास के साथ विनाश भी जुङा हुआ इसलिए जितना हम दोहन करेंगे उतना ही विनाश अवश्यंभावी है.प्रकृति के साथ हमने खिलवाड़ किया तो उसका परिणाम हमें भूगतना पङा.विकास की रूपरेखा बनाते समय हमें ध्यान रखना होगा कि इसके बाद क्या क्या हो सकता है. लेकिन जीवन की आपाधापी एवं लकीर के फकीर बन कर हम इतने एडवांस बनना चाहते हैं कि अपने अस्तित्व को भी दाव पर लगा देते हैं. आजकल एक ही बच्चा होता है अधिकतम दो.उनके लालन पालन शिक्षा दीक्षा में हम अपना जीवन कारोबार संपत्ति जमाधन सब कुछ दांव पर लगा देते हैं लेकिन संतान का सुख नहीं पा सकते.सच कहा जाए तो बच्चों को भी मांबाप परिवार का सुख नहीं मिलता.नंबर वन बनाने के चक्कर में दो साल के बच्चे को ही स्कूल में भर्ती करवा देते हैं. मंहगे होस्टल में भर्ती करवाने से सिर्फ साल में ही अनुबंधित अभिभावक मिल सकते हैं. धीरे धीरे दूरियाँ बढती जाती है तथा विदेश भेजने के बाद तो अव्वल अधिकारी को मांबाप परिवार तो क्या भारत आना भी अच्छा नहीं लगता.

खैर साधन संपन्न लोगों की दुनिया अलग होती है लेकिन मध्यम वर्ग के लोग भी देखा देखी में अपनों से इसलिए दूर हो जाते हैं कि मातृभाषा मातृभूमि की जगह वो कर्मभूमि में ही रच बस जाता है.आजकल विवाह शादी भी सहयोगी समान स्तर के युवाओं में साथ साथ रहते हुए लगभग हो जाता है फिर भी साल में एक बार अपने गाँव शहर में बुलाकर परंपरागत त्यौहार धार्मिक सांस्कृतिक अनुष्ठान में उनको शामिल करना चाहिए ताकि अपनी भाषा एवं संस्कृति के रुबरु हो सके. . पांच सात दिन के कार्यक्रम में स्वाभाविक रूप से अपने परिवार एवं रिश्तेदार इकट्ठा होने से सिमित साधनों में मेल मिलाप बढेगा.अपनी भाषा संस्कृति एवं परंपरा का ज्ञान होने से अपने आप लगाव बढेगा.
अप्रवासी लोग भारत में भी रहकर अपने राज्य में जात झङुले के लिए नहीं जाते इसलिए उनके बच्चों के रिश्ते होने में भी दिक्कत आती है क्योंकि रहन सहन खानपान भाषा संस्कृति एवं परंपरा में भिन्नता आने के कारण लोग दूरी बनाए हुए हैं कि इतनी दूर रिश्ता नहीं करेंगे जबकि दूरी तो सिर्फ दो घंटे की है.आज कोई भी जाना आना चाहे तो दो घंटे में भारत के हर शहर में पहुँच सकता है लेकिन उनकी दूरियाँ अलग अलग तरह के कारणों से है.
इसलिए अपनी भाषा संस्कृति एवं त्यौहारों से युवाओं को जोड़ने के लिए हमें प्रयास अवश्य करना चाहिए.धार्मिक अनुष्ठान में वृद्ध माता पिता के अलावा अपने पुत्र पुत्रवधु को भी अवसर देना चाहिए ताकि उनके मन में भावना पनपने लगे कि हम भी इसके पात्र बन सकते हैं.
युवाओं को सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक कार्यक्रम में अधिकाधिक अवसर मिलने से तथा महिलाओं की भागीदारी बढने से समाज स्वत.ही उन्नत बनेगा.
मदन सिंघल पत्रकार एवं साहित्यकार
    शिलचर असम मो 9435073653

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