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पंच महाभूतों में एक अग्नि -अशोक “प्रवृद्ध”

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पंच महाभूतों में एक अग्नि अर्थात ऊर्जा मनुष्य के जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है। सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड में ऊर्जा के रूप में अग्नि ताप ही व्याप्त है। भोजन भी हमारे लिए एक ईंधन का कार्य करती है, जिससे हमें बल, ताकत अर्थात ऊर्जा प्राप्त होती है। भोजन, ईंधन आदि ऐसी क्षमता प्रदान करते हैं, जिससे कार्य किया जा सकता है।बिना ऊर्जा के कोई भी कार्य संभव नहीं है। वस्तुतः किसी भी वस्तु के कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा कहते हैं।ऊर्जा को कार्य करने की क्षमता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। ऊर्जा के अनेक रूप होते हैं, तथा ऊर्जा भिन्न-भिन्न स्रोतों से प्राप्त होती है।यांत्रिक ऊर्जा, रासायनिक ऊर्जा, ध्वनि ऊर्जा, ऊष्णीय ऊर्जा, प्रकाशीय ऊर्जा, विद्युत ऊर्जा, चुम्बकीय ऊर्जा आदि ऊर्जा के विभिन्न रूप हैं। भारतीय ग्रंथों में उल्लिखित तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि भारत में प्राचीन काल से ही ऊर्जा के महत्व को समझकर उसके संरक्षण के लिए प्रयास किए जाने की वृहत परंपरा रही है। संसार के प्राचीनतम ग्रंथ वेद में अग्नि अर्थात ऊर्जा का महत्त्व और उसके संरक्षण के संबंध में वृहत वर्णन प्राप्य हैं। वैदिक मत में अग्नि अर्थात ऊर्जा को वैश्वानर कहा गया है। वैश्वानर का अर्थ है- विश्व को कार्य में संलग्न रखने वाली शक्ति। इस वैश्वानर अग्नि (ऊर्जा) को सृष्टि के निर्माण में मुख्य कारक माना गया है। इस वैश्वानर अग्नि के संरक्षक के रूप में ऋग्वेद 1/1/1 में कहा गया है-

अग्निमीले पुरोहितम्‌।-ऋग्वेद 1/1/1
अर्थात-मैं अग्नि को चाहता हूँ। उसकी उपासना करता हूँ।

 अग्नि के महत्व को प्रतिपादित करते हुए ऋग्वेद 5/44/15 में कहा गया है-
अग्निर्जागार तमृचः कामयन्तेऽग्निर्जागार तमु सामानि पान्ति।
अग्निर्जागार तमयं सोग आह तवाहमस्मि सायं न्योमाः।।

– ऋग्वेद 5/44/15
अर्थात- अग्नि को जाग्रत रखने वाले को ऋचाएं चाहती है, उसे सामवेद का ज्ञान होता है। विद्या तथा सुख प्राप्त होते हैं। सोम उसे बंन्धुवत मानता हे।

इस मंत्र में ऋग्वैदिक ऋषि अग्नि अर्थात ऊर्जा के सदुपयोग और संरक्षण की ओर संकेत करते हुए इसे जाग्रत रखने का उपदेश दे रहे हैं। जाग्रत रखने का अर्थ है- यथावत तथा निरन्तर बढ़ाते हुए रखना। वैदिक परंपरा में अग्नि को तीन रूपों – पार्थिव अग्नि, अंतरिक्ष अग्नि, द्यौस्थानीय अग्नि में माना गया है। पृथ्वी पर उपस्थित अग्नि को पार्थिव अग्नि कहा गया है। स्थानीय विद्युत अग्नि को अन्तरिक्ष तथा सौर अग्नि को द्यौस्थानीय अग्नि माना गया हे। इस तरह यह वैश्वानर अग्नि सर्वत्र व्याप्त है। संपूर्ण चराचर जगत इसी अग्नि से दैदीप्यमान है।अग्नि के महत्व को प्रतिपादित करते हुए ऋग्वेद 7/62/5 में तीन प्रकार के उपद्रवों से रक्षा करने की प्रार्थना अग्नि से की गई है-

सूर्यो नो दिवस्पातु वातो अन्तरिक्षात्‌-अग्निर्नः पार्थिवेश्यः।
-ऋग्वेद 7/62/5
अर्थात -सूर्य आकाशीय उपद्रवों से, वायु अंतरिक्ष के उपद्रवों से तथा अग्नि पृथ्वी के उपद्रवों से हमारी रक्षा करे।

द्यौस्थानीय अग्निसे अथर्ववेद 2/16/3 में भी रक्षा करने की प्रार्थना किया गया है-
सूर्य चक्षुषा मा पाहि। – अथर्ववेद 2/16/3
अर्थात- हे सूर्य! आप मुझ पर दुष्टिपात रखते हुए मेरी रक्षा कीजिए।

अथर्ववेद 2/21/3 में सूर्य से अपनी जीवन शक्ति से प्रदीप्त करने की प्रार्थना की गई है-
सूर्यः यजेऽर्चिस्तेन तं प्रत्यर्च। – अथर्ववेद 2/21/3

वेदों में ऊर्जा के महत्व और उसे संरक्षित करने की बात तो कही ही गई है, वेदों में अग्नि अर्थात ऊर्जा को नष्ट करने तथा हानि पहुँचाने के लिए दण्ड का विधान भी किया गया है। अथर्ववेद 2/19/1 में अग्नि से प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि जो आपको हानि पहुँचाये उसे आप तपाओ और पीड़ित करो-
अग्ने यते तपस्त्रेन तं प्रतितप।- अथर्ववेद 2/19/1

वेदों में सूर्य से प्राप्त होने वाली सौर ऊर्जा का भी वर्णन है। सौर ऊर्जा के महत्व का वर्णन करते हुए ऋग्वेद 8/7/5 में प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि सूर्य से निरन्तर ऊर्जा मिलती रहती है-

विद्युद्दस्ता अभिद्यणः। -ऋग्वेद 8/7/5
अर्थात- सूर्य को किरणें निखुत रूपी हाथों से निरन्तर सर्वत्र व्याप्त होती रहती है।

वैदिक ग्रंथों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि सृष्टि के आदि काल में ही सूर्य से प्राप्त होने वाली अक्षय सौर ऊर्जा के महत्व का ज्ञान हमारे पूर्वजों का रहा है, जिसका वर्णन वेद में हुआ है। सूर्य की इस सौर ऊर्जा का वर्तमान में भी बहुत महत्व है, और कभी खत्म न होने वाली सूर्य से प्राप्त इस सौर ऊर्जा का अनेक विधियों से आज भी सदुपयोग किया जा रहा है। इनमें से एक सौर ऊर्जा से विद्युत उत्पादन है। ऋग्वेद 2/1/1 के अनुसार निपुत सूर्य की किरणों से उत्पन्न होती है, जो तत्काल जला डालने की शक्ति रखती है-
त्वमग्ने युभिस्त्वमायुशुक्षणि। -ऋग्वेद 2/1/1

ऋग्वेद 10/85/2 के अनुसार सूर्य को सोम बलवान बनाता है। सोम से ही यह पृथ्वी भी बलवान होती है –सोमेनादिलो बलिनः सोमेन पृथिवी यही। -ऋग्वेद 10/85/2
वेद में सोम का वर्णन चन्द्रमा, सोमलता, सूर्य के गैस- हाइड्रोजन, हीलियम आदि गैसों के अर्थ रूप में किया गया है। ऋग्वेद 10/85/2 में कहा गया है कि सोम सूर्य को बलवान बनाता है। यहां पर सोम का तात्पर्य हाइड्रोजन, हीलियम आदि गैस से है,क्योंकि सूर्य से सोम ही ऊर्जा का संचार करती है। यजुर्वेद में कहा गया है कि जल के रस का रस सूर्य में स्थापित है-
अपां रसम्‌ उद्वयमं सन्त समाहितम्‌
अपां रसस्य यो रमः।
-यजुर्वेद 9/3
यजुर्वेद के इस मंत्र के अनुसार जल का सूर्य है- हाइड्रोजन तथा आक्सीजन की समुचित संयोजन क्रिया। जल का रस हाइड्रोजन तथा हाइड्रोजन का रस हीलियम की ओर संकेत मात्र करते हैं। अथर्ववेद में 3/15/5 के अनुसार जल में अग्नि और सोम दोनों तत्व मिल हुए हैं-अग्नि षोमो बिभ्रति आप रतताः। – अथर्ववेद 3/13/5
यहां पर अग्नि का तात्पर्य आक्सीजन है, तो सोम का तात्पर्य हाइड्रोजन है। यजुर्वेद में सूर्य की ऊर्जा का महत्व प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि हे सूर्य! तुम्हारी दी हुई ऊर्जा तथा उस ऊर्जा से उत्पन्न अन्नादि कर्मो की सिद्धि करने वाला है। इसलिए आप हमें श्रेष्ठ कर्म में संयुक्त करें।

आधुनिक विज्ञान के अनुसार भी विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं का एक दूसरे में रूपांतरण किया जा सकता है। कार्य होने पर ऊर्जा एक रूप से दूसरी रूप में रूपांतरित होती है। प्रत्येक भौतिक, रासायनिक अथवा जैविक परिवर्तन की अवधि में ऊर्जा एक रूप से दूसरे रूप में रूपांतरित होती है। परन्तु इन सभी ऊर्जारूपांतरणों के समय ऊर्जा का कुल परिमाण अपरिवर्तित रहता है। ऊर्जा को न तो उत्पन्न किया जा सकता है, और न ही इसे नष्ट किया जा सकता है। इसका केवल एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तन होता है, और निकाय की सभी ऊर्जाओं का कुल योग नियत रहता है। ऊर्जा प्राप्त होने वाली वस्तुएं ऊर्जा का स्रोत कहलाती हैं। ऊर्जा के कई प्रकार के स्रोत होते हैं, जैसे- ऊर्जा के अनवीकरणीय स्रोत, अवशेष (जीवाश्मी) ईधन, ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोत, भोजन ऊर्जा, सौर  ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल से प्राप्त ऊर्जा, बायोमास से प्राप्त ऊर्जा आदि। वर्तमान में भारत सहित सम्पूर्ण विश्व में ऊर्जा का मुख्य स्रोत तेल व कोयला हैं। इनके खोज में वृहत कार्यक्रम चलाए जाने पर भी इनके नए स्रोतों का पता अत्यल्प संख्या में ही चल पाया है। जिसके कारण निकट भविष्य में ही तेल तथा गैस की मांग निश्चित रूप से उपलब्ध आपूर्ति से अधिक हो जाने की संभावना है। इस प्रकार की स्थिति को ऊर्जा संकट कहते हैं। ऊर्जा संकट के समय ऊर्जा की अधिक मांग व सीमित आपूर्ति होती है। जीवाश्मी ईधन भी सीमित मात्रा में हैं। इसलिए ऊर्जा स्रोतों का संरक्षण करने के लिए इनका यथासंभव कम उपयोग करना चाहिए। ऊर्जा बचाने के लिए गंभीरतापूर्वक प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। ऊर्जा के महत्व और ऊर्जा की बचत के माध्यम से ऊर्जा संरक्षण करने के प्रति जागरूकता फैलाने तथा अत्यधिक व व्यर्थ में ऊर्जा के उपयोग के स्थान पर कम ऊर्जा के प्रयोग के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से भारत में प्रतिवर्ष 14 दिसम्बर को राष्ट्रीय ऊर्जा संरक्षण दिवस मनाया जाता है। इस दिन भारत में विभिन्न प्रकार की ऊर्जा संरक्षण प्रतियोगिताओं का आयोजन कराया जाता है। ऊर्जा संरक्षण का अर्थ है- ऊर्जा के अनावश्यक उपयोग को कम करके कम ऊर्जा का उपयोग कर ऊर्जा की बचत करना। कुशलता से ऊर्जा का उपयोग भविष्य में उपयोग के लिए इसे बचाने के लिए बहुत आवश्यक है। ऊर्जा संरक्षण की योजना की दिशा में अधिक प्रभावशाली परिणाम प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य के व्यवहार में ऊर्जा संरक्षण निहित होना चाहिए। भारत सरकार के ऊर्जा मंत्रालय ने वर्ष 1991 में पुरस्कारों के माध्यम से अपने उत्पादन को बनाए रखते हुए ऊर्जा की खपत को कम करने में उद्योगों और प्रतिष्ठानों के योगदान को मान्यता देने हेतु राष्ट्रीय ऊर्जा संरक्षण पुरस्कार की शुरुआत की।ऊर्जा दक्षता ब्यूरो प्रत्येक वर्ष 14 दिसम्बर को आयोजित होने वाली समारोह का नेतृत्त्व करता है।पहली बार यह पुरस्कार 14 दिसम्बर1991 को प्रदान किये गए थे। तब से ही प्रत्येक वर्ष इस दिन राष्ट्रीय ऊर्जा संरक्षण दिवस मनाया जाता है और समारोहपूर्वक प्रतिष्ठित गणमान्य व्यक्तियों को ये पुरस्कार प्रदान किये जाते हैं।

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