पत्रकार का जीवन और संघर्ष
– विनोद भारद्वाज
पत्रकारिता को लेकर आम धारणा है कि यह एक ग्लैमरस पेशा है। इसमें नाम, पैसा और सामाजिक प्रतिष्ठा तीनों ही मिलते हैं। नेता हों या अधिकारी, सभी पत्रकारों को महत्व देते हैं। इसी कारण, कई लोगों को लगता है कि पत्रकारों के जीवन में कोई संघर्ष नहीं होता। परंतु वास्तविकता इससे बिल्कुल उलट है। पत्रकारिता की राह चुनने वाला व्यक्ति लगातार संघर्ष, चुनौतियों और अनिश्चितताओं से घिरा रहता है।
समय की बलि चढ़ती निजी जिंदगी
एक पत्रकार का जीवन बेहद व्यस्त और अनियमित होता है। समय का कोई ठिकाना नहीं—सुबह कब हुई और रात कब बीत गई, इसका एहसास तक नहीं होता। खबरों की खोज में परिवार, रिश्ते, स्वास्थ्य और निजी समय अक्सर बलि चढ़ जाते हैं।
जहां आम लोग त्योहारों और छुट्टियों का आनंद लेते हैं, वहीं पत्रकार संभावित खबरों की तलाश में जुटे रहते हैं। माता-पिता, जीवनसाथी और बच्चों को समय देना उनके लिए किसी सपने जैसा होता है। अक्सर महत्वपूर्ण पारिवारिक अवसरों से वे चूक जाते हैं, क्योंकि खबरें इंसान से नहीं, बल्कि समय से चलती हैं।
संघर्षों की अंतहीन कतार
पत्रकारिता की दुनिया न केवल प्रतिस्पर्धात्मक बल्कि जोखिम भरी भी होती है। कई बार सच्चाई उजागर करने के प्रयास में पत्रकार शत्रु बना लेते हैं। उनकी खबरें सत्ता, अपराधी गठजोड़, उद्योगपतियों या अन्य प्रभावशाली लोगों के खिलाफ होती हैं, जिससे वे खतरे में पड़ सकते हैं।
बाहरी खतरों के अलावा, आर्थिक असुरक्षा भी एक गंभीर समस्या है। पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग आज भी मूलभूत आवश्यकताओं—रोटी, कपड़ा और मकान—की पूर्ति के लिए संघर्षरत है। बड़ी-बड़ी मीडिया कंपनियां गिने-चुने पत्रकारों को ही अच्छा वेतन और सुविधाएं देती हैं, जबकि अधिकांश कम वेतन, अनिश्चित नौकरी और संस्थानों के शोषण का शिकार होते हैं।
संस्थान और सरकारों की उदासीनता
मीडिया संस्थान पत्रकारों से श्रम की पराकाष्ठा तक काम करवाते हैं, लेकिन जब उनकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है, तो उन्हें बिना किसी सहारे के छोड़ दिया जाता है। नए और सस्ते श्रमिक आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, जिससे अनुभवी पत्रकारों की कोई विशेष सुरक्षा नहीं होती।
सरकारें भी पत्रकारों के कल्याण के प्रति उदासीन बनी रहती हैं। पत्रकारों के लिए न कोई ठोस सामाजिक सुरक्षा नीति है, न ही नौकरी की स्थिरता। नतीजा यह होता है कि कई पत्रकार वेतन में कटौती, अचानक नौकरी से निकाले जाने और मानसिक तनाव के दौर से गुजरते हैं।
बदलते समय की चुनौतियाँ
कोरोना महामारी ने पत्रकारों की स्थिति को और चुनौतिपूर्ण बना दिया। कॉस्ट-कटिंग, छंटनी और वेतन कटौती जैसे कदम मीडिया संस्थानों ने उठाए, जिससे हजारों पत्रकार प्रभावित हुए।
वर्तमान दौर में पत्रकारिता तेजी से डिजिटल मीडिया की ओर बढ़ रही है। हालांकि, यह बदलाव अवसर तो ला रहा है, लेकिन नए नियम-कायदे और सरकारी पाबंदियाँ इसे और कठिन बना रही हैं। स्वतंत्र और ईमानदार पत्रकारों के लिए चुनौतियाँ पहले से कहीं अधिक हो गई हैं।
निष्कर्ष: संघर्ष का माद्दा जरूरी
पत्रकारिता पेशा सिर्फ नाम और शोहरत का नहीं, बल्कि संघर्ष और त्याग का दूसरा नाम है। समाज की बुराइयों पर प्रहार करने वाला यह चौथा स्तंभ खुद ही शोषण का शिकार है।
हमें जरूरत है कि—
- सरकारें पत्रकारों के अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस नीतियाँ बनाएँ।
- संस्थान पत्रकारों के हितों को प्राथमिकता दें, न कि केवल व्यवसायिक लाभ को।
- पत्रकार खुद अपनी स्थिति को नियति मानने के बजाय अपने हक के लिए आवाज उठाएँ।
हिंदी पत्रकारिता दिवस के इस अवसर पर, हम केवल प्रार्थना कर सकते हैं कि सरकार, मीडिया संस्थान और समाज इस महत्वपूर्ण पेशे के प्रति अधिक संवेदनशील और उत्तरदायी बनें। क्योंकि जब तक पत्रकार सुरक्षित नहीं, तब तक लोकतंत्र भी सुरक्षित नहीं!