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परंपरा

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मचिया : बिहार की ग्रामीण महिलाओं की एक ऐसी कुर्सी जो उनके  लिए आरामदायक के साथ साथ व्यक्तित्व के हिसाब से शानदार भी है। पचारपाई की छोटकी बहिन जैसी ये मचिया बैठने में लकड़ी की पिढ़ई से कही ज्यादा आरामदायक होती है। इसकी पर्याप्त ऊंचाई रौब के अनुकूल होती है और शालीनता के दायरे में होती है। पहले के समय में घर की महिलाएं बड़ो के बराबर में नही बैठती थी। ऐसे में न जमीन पर बैठ सकती थी और न ही खड़े रहकर बात कर सकती थी। ऐसे में ये मचिया एक बेहतरीन विकल्प होता था। खास तौर पर जब घर के मुखिया कहीं बाहर से आते थे कुर्सी लगाकर बैठते और सारे घर का हाल चाल लेते थे तब मालकिन बड़की मां मचिया लेकर बैठकर इत्मीनान से सारी बातें बताती थी। इस मचिया पर ज्यादातर अधिकार बड़की मां का ही रहता था मानों ये मालकिन वाली कुर्सी हो। जब मां किसी काम से इधर-उधर होती थी तब ये मचिया बच्चों का खिलौना हो जाती थी। एक बच्चा मचिया पर बैठता था बाकी बच्चे धकेलकर गाड़ी बनाकर चलाते थे। घर में कोई सम्मानित महिला यदि मिलने आती थी तो उसे बैठने के लिए मचिया दी जाती थी।
ये मचिया कोई आम बैठका नही थी बल्कि एक तरह के सम्मान का प्रतीक थी। हमारे लोकगीत में भी मचिया का जिक्र अक्सर होता है जिस पर सासू मां बैठी रहती हैं। “मचिया ही बैठी है सासू तो बऊहर अर्ज करे”। चारपाई की तरह धीरे धीरे ये मचिया भी घर से गायब हो गई और अब तो प्लास्टिक की कुर्सी ने इनकी जगह ले लिया है और अब ये इनसे जुड़ी बातें यादों में रह गई हैं।
सौजन्य : अरूणिमा सिंह

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