देबाशीष भट्टाचार्य, असम विश्वविद्यालय के बंगला विभागाध्यक्ष
अनुलिखन: अरिजीत आदित्य
“किसका नाम ले रहे हो?”
मेरे सिर के पीछे स्टेनगन की ठंडी नली सटी हुई थी। हम बस के नीचे दुबके पड़े थे, जैसे जानवर शिकारी से बचने की कोशिश कर रहे हों। मौत को इतने करीब से देखूंगा, ये तो ख्वाब में भी नहीं सोचा था। मगर उस पल वह मौत ही थी, जो मेरे सिर पर झुक कर खड़ी थी।
सुनाई दे रहा था, कुछ लोग बड़बड़ा रहे हैं — “ला इलाहा इल्लल्लाह”।
पास ही से आवाज आई, और वह लड़का मुझे छोड़ आगे बढ़ गया। तभी देखा, मेरे ठीक ऊपर जो सज्जन लेटे थे, उनके ऊपर एक ताजातरीन खून से लथपथ शव गिर पड़ा। माथे पर गोली का निशान, मौत मौके पर ही हुई होगी। उनका खून मेरे जैकेट तक में लिपट गया था — बिल्कुल ताजा।
कुछ ही देर में जन्नत कही जाने वाली बाइसारन वैली “मौत की घाटी” में तब्दील हो चुकी थी। आज सुबह जब पौने बारह बजे हम पहलगाम पहुंचे, और फिर डेढ़ बजे टिकट लेकर घोड़े पर बाइसारन की ओर निकले, तब तक वहां सब कुछ सामान्य था। करीब पांच सौ से ज्यादा पर्यटक मौजूद थे — फोटो खिंचवा रहे थे, हंस रहे थे, प्रकृति का आनंद ले रहे थे।
यह जगह किसी पोस्टकार्ड जैसी खूबसूरत लगती है — चारों ओर बर्फ से ढके पहाड़, हरे मखमली घास से ढका एक गोल मैदान, और चारों ओर लकड़ी की बाड़। अगर कहीं स्वर्ग है, तो शायद यहीं।
पर हमें क्या मालूम था, कि कुछ ही मिनटों में यह स्वर्ग नरक में बदल जाएगा?
बीते दिन हम श्रीनगर पहुंचे थे और रात शिकारों में बिताई। सुबह जल्दी पहलगाम की ओर रवाना हुए। रास्ते भर बीएसएफ और सुरक्षाबलों की चौकियां तो दिखीं, पर कोई खास गश्त नहीं थी। सुना था कि उग्रवादी पर्यटकों को निशाना नहीं बनाते, इसीलिए बाइसारन वैली में भी सुरक्षा के नाम पर कुछ खास नहीं था।
चार नंबर गेट से हम दाखिल हुए। मेरी पत्नी मधुमिता, बेटा और मैं साथ थे। एक स्थानीय विक्रेता पत्नी को चादर दिखा रहा था और मैं फोटो ले रहा था, तभी वो आवाज सुनाई दी — गोली की आवाज?
विक्रेता बोला, “साहब, यहां बंदर बहुत हैं, जंगल वाले खिलौना बंदूक से डराते हैं।”
पर तभी मेरे बेटे की नजर पड़ी — एक युवक स्टेनगन से एक दंपति पर गोली चला रहा था। आदमी वहीं ढेर हो गया।
कुछ समझ पाते, उससे पहले देखा कि फेंसिंग पार कर कुछ लड़के अंदर घुस आए थे — सात-आठ होंगे। कोई नकाब में नहीं था, लेकिन हाथ में स्टेनगन लिए सब शांत चेहरे के साथ एक-एक कर गोली चला रहे थे।
फिर मानो सब कुछ थम सा गया — आनंद-उल्लास चीख-पुकार में बदल चुका था। आवाज आई — “बस के नीचे छिप जाओ!”
हम तीनों भाग कर बस के नीचे घुस गए। वहां पहले से ही कई लोग दुबके पड़े थे। तभी एक सज्जन बस के सामने भागे, लेकिन जगह ढूंढते देर हो गई और मेरी आंखों के सामने गोली खाकर गिर पड़े।
काफी देर बाद जब महसूस हुआ कि लड़के दूसरी ओर बढ़ गए हैं, तो हम जोखिम लेकर बस से बाहर निकले और चार नंबर गेट पार कर नीचे उतरने लगे।
हमारे साथ उत्तराखंड की एक महिला, उनका बच्चा और कुछ अन्य लोग थे। मेरी गोद में एक अजनबी बच्चे को लिए हम कांटों, झाड़ियों से होते हुए नीचे उतरते रहे। मेरे जैकेट पर अब वो खून का निशान सूख कर काला हो चुका था।
करीब दो घंटे की मशक्कत के बाद एक ग्रामीण महिला मिलीं, जिनके हाथों में गोबर लगा हुआ था। उन्हीं के मोबाइल से हमने ड्राइवर को फोन किया। किस्मत से वह घोड़े वाला भी मिल गया जिसने हमें ऊपर पहुंचाया था।
छत्तीसगढ़ की एक महिला भी हमारे साथ थीं। उन्हें ऐसे अकेले छोड़ना मुश्किल था। पर सौभाग्यवश उनका ड्राइवर फोन पर मिल गया और उसने उन्हें सुरक्षित पहुंचाने का भरोसा दिया।
संध्या को जब हम वापसी की राह पर निकले, तब तक सब कुछ बदल चुका था। सुबह की वही शांत घाटी अब सायरनों की चीखों से थर्राती थी।
रात आठ बजे हम श्रीनगर लौटे। होटल में टीवी खोला तो देखा — बाइसारन में आतंकवादी हमले में 27 लोगों की मौत की खबर।
जब जैकेट उतारने लगा, तब तक वह खून का दाग गाढ़े काले रंग में तब्दील हो चुका था। पर जो दृश्य, जो चीखें, जो लहूलुहान चेहरे मैंने देखे, वे शायद जिंदगी भर मेरी आत्मा से चिपके रहेंगे।
साभार दैनिक वार्तालिपि




















