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पालमपुर की बुद्धि माँ
एक समय की बात है — दूर-दूर तक फैले हरे-भरे खेतों और नीले आसमान के नीचे एक सुंदर गाँव था — पालमपुर।
यह गाँव मानो प्रकृति की गोद में बसा एक स्वर्ग था।
चारों ओर लहलहाते खेत थे, जिनमें गेहूँ की सुनहरी बालियाँ हवा के संग झूमती थीं।
खेतों के बीच से एक पतली-सी पगडंडी निकलती थी, जो नदी की ओर जाती थी।
सुबह होते ही जब सूरज की सुनहरी किरणें ओस की बूँदों पर पड़तीं, तो लगता मानो धरती ने हीरों की चादर ओढ़ ली हो।
गाँव के बीचोंबीच एक विशाल पीपल का पेड़ था — इतना पुराना कि कहा जाता था, उसकी छाया में गाँव की कई पीढ़ियाँ खेलीं और बड़ी हुई हैं।
दिन में बच्चे वहाँ खेलते, और शाम को गाँव के बुज़ुर्ग वहीं बैठकर किस्से सुनाते — पुराने ज़माने के राजा-महाराजा, युद्ध, प्रेम और त्याग की कहानियाँ।
गाँव में सब लोग एक-दूसरे को जानते थे, और हर घर में सादगी और अपनापन भरा था।
गाँव के हर व्यक्ति के मन में एक ही नाम के लिए असीम श्रद्धा थी — “बुद्धि माँ।”
वे एक दयालु, समझदार और सबकी भलाई चाहनेवाली वृद्धा थीं।
उनका असली नाम अब किसी को याद नहीं था — लोग कहते थे, उनकी बुद्धि, ममता और करुणा ने ही उन्हें “बुद्धि माँ” बना दिया था।
वे न केवल जड़ी-बूटियों की जानकार थीं, बल्कि लोगों के दुख-दर्द की मरहम भी थीं।
जब कोई बीमार पड़ता, तो माँ के बनाए काढ़े और जड़ी-बूटियाँ उसकी तकलीफ़ मिटा देतीं।
और जब कोई दुखी होता, तो उनके मीठे शब्द मन को शांति दे जाते।
गाँव में कहा जाता था — “जहाँ बुद्धि माँ का आशीर्वाद है, वहाँ दुख टिक नहीं सकता।”
बुद्धि माँ अपने दो बेटों — श्याम और मोहन — के साथ रहती थीं।
उनका घर मिट्टी और गोबर से लीपा हुआ, छोटा मगर बहुत साफ-सुथरा और शांत था।
घर के सामने एक तुलसी का चौरा था, जिस पर हर सुबह दीपक जलाया जाता था।
धूप की महक और तुलसी की खुशबू से पूरा आँगन पवित्र लगता था।
श्याम, माँ का बड़ा बेटा, बहुत मेहनती और ज़िम्मेदार था।
वह हर सुबह सूरज उगने से पहले उठ जाता, अपने गधे को पानी पिलाता, कुल्हाड़ी उठाता और जंगल की ओर निकल पड़ता।
जंगल गाँव से कई कोस दूर था।
रास्ते में पहाड़ी पगडंडियाँ, नदियाँ और काँटों से भरे झुरमुट थे, पर श्याम के चेहरे पर कभी थकान नहीं दिखती थी।
दिनभर वह सूखी लकड़ियाँ काटता, गधे पर लादता और शाम तक घर लौट आता।
जब वह घर आता, तो सबसे पहले माँ के चरणों में पैसे रखता और मुस्कुराकर कहता —
“माँ, यह आज की मेहनत की कमाई है। इससे घर चलेगा और आपकी दवा भी आएगी।”
माँ की आँखों में गर्व और प्रेम झलकता।
वह मुस्कुराकर कहतीं —
“बेटा, भगवान तुझे सदा सुखी रखे। मेहनत करनेवाला कभी खाली हाथ नहीं रहता।”
श्याम झुककर माँ के चरण छूता और विनम्रता से कहता —
“माँ, आपकी दुआ ही मेरे लिए सबसे बड़ी पूँजी है।”
श्याम की ईमानदारी और लगन के कारण गाँव के लोग भी उसका आदर करते थे।
किसी को मदद चाहिए होती, तो वह सबसे पहले श्याम को पुकारता — क्योंकि सब जानते थे कि यह लड़का सिर्फ मेहनती ही नहीं, नेकदिल भी है।
मोहन, छोटा बेटा, माँ की ममता का सजीव प्रतीक था।
वह बहुत संवेदनशील और सेवा-भाव से भरा हुआ था।
सुबह जब माँ मंदिर जाने की तैयारी करतीं, तो मोहन जल्दी से कह देता —
“माँ, पानी मैं भर लाता हूँ। आप धीरे-धीरे चलिए।”
वह माँ के साथ घर के सभी कामों में हाथ बँटाता —
कभी चूल्हे पर रोटियाँ सेंकता, कभी गाय को चारा डालता, तो कभी माँ के लिए पंखा झलता।
शाम को जब माँ थककर बैठतीं, तो मोहन धीरे-धीरे उनका सिर दबाता और कहता —
“माँ, आप थोड़ा आराम कीजिए, बाकी काम मैं कर लूँगा।”
माँ अपने दोनों बेटों को देखकर गर्व से भर उठतीं —
“श्याम मेहनत का उदाहरण है और मोहन प्रेम का प्रतीक।
जब तक तुम दोनों साथ हो, यह घर हमेशा खुश रहेगा।”
दोनों भाई एक-दूसरे के पूरक थे —
श्याम की मेहनत से घर चलता, और मोहन के प्रेम से घर में शांति बसती।
उनके घर में भले ही धन न था, पर संतोष, स्नेह और संसार की सबसे बड़ी दौलत — माँ का आशीर्वाद था।
एक दिन, जब सूरज ढलने को था और खेतों पर सुनहरी किरणें आख़िरी बार चमक रही थीं, तभी श्याम रोज़ की तरह जंगल गया हुआ था।
उधर घर में अचानक बुद्धि माँ को तेज़ बुखार चढ़ गया।
सिर में दर्द, शरीर में कंपकंपी और आँखों के आगे अँधेरा छा गया।
मोहन घबरा गया। उसने जल्दी से पानी लाकर माँ का माथा पोंछा, पर ताप कम नहीं हुआ।
वह दौड़कर गाँव के वैद्य जी के घर पहुँचा और हाँफते हुए बोला —
“वैद्य जी! जल्दी चलिए, मेरी माँ बहुत बीमार हैं!”
वैद्य जी तुरंत अपनी दवा की पोटली लेकर मोहन के साथ चल पड़े।
माँ की नब्ज़ देखकर उन्होंने गहरी साँस ली और कहा —
“बेटा, इन्हें अब आराम की ज़रूरत है। इनका शरीर बहुत थक चुका है। अब इन्हें ज़्यादा मेहनत नहीं करनी चाहिए।”
मोहन की आँखों से आँसू झरने लगे —
“वैद्य जी, मेरी माँ ठीक हो जाएँगी न?”
वैद्य जी ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा —
“अगर तुम दोनों उनका ख्याल ऐसे ही रखते रहे, तो कोई बीमारी इन्हें छू भी नहीं पाएगी।”
शाम को जब श्याम जंगल से लौटा और माँ को बिस्तर पर देखा, तो उसका दिल भर आया।
वह माँ के पास बैठ गया और बोला —
“माँ, अब मैं जंगल नहीं जाऊँगा। मैं आपके पास रहकर आपकी सेवा करूँगा।”
माँ ने धीरे से उसका सिर सहलाया और मुस्कुराकर कहा —
“नहीं बेटा, जीवन में मेहनत कभी मत छोड़ना।
भगवान ने हाथ इसलिए दिए हैं कि उनसे कर्म करो।
हाँ, अब दूर जंगल मत जाना — पास के जंगल से लकड़ी काट लिया कर, ताकि जल्दी लौट आए।”
श्याम ने माँ की बात मान ली।
वह पास के जंगल में ही काम करने लगा ताकि माँ को चिंता न हो।
उधर मोहन दिन-रात माँ की सेवा में लगा रहता।
वह माँ के लिए गर्म सूप बनाता, पैर दबाता, और रात भर उनके पास बैठा रहता।
धीरे-धीरे माँ की तबीयत सुधरने लगी।
उनके चेहरे पर फिर वही पुरानी मुस्कान लौट आई, और उनकी आँखों में अपने बेटों के लिए गर्व झलकने लगा।
एक दिन सुबह की ठंडी हवा चल रही थी।
आँगन में तुलसी के चौरे पर दीपक जल रहा था।
माँ ने अपने दोनों बेटों को पास बुलाया और कहा —
“मेरे प्यारे बेटों,
तुम दोनों ने जो प्रेम, एकता और परिश्रम दिखाया है — वही जीवन का सच्चा अर्थ है।
मनुष्य का घर तब नहीं बसता जब उसमें धन हो,
बल्कि तब बसता है जब उसमें प्रेम, करुणा और परिश्रम हो।
अगर हर घर में तुम्हारे जैसा प्यार हो,
तो यह धरती सचमुच स्वर्ग बन जाए।”
दोनों बेटों ने माँ के चरण छू लिए।
उस दिन सूरज की किरणें जैसे उनके घर पर नहीं, बल्कि उनके मन पर चमक रही थीं —
जहाँ प्रेम, सेवा और माँ का आशीर्वाद सदा के लिए बस चुका था।
“सच्चा सुख धन या वैभव में नहीं,
बल्कि प्रेम, एकता और सेवा में है।”
-दीपाली सिंह, बंगलौर





















