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पिता और पुत्र 

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कई साल पहले एक कहानी पढ़ कर बहुत रोया था। एक आदमी ने, जो बड़ी कंपनी में बड़े पद पर नौकरी करता था, गांव से आए अपने पिता को दोस्तों के आगे पहचानने से इंकार कर दिया था। बाद में उसने अपने पिता को टोका भी था कि ऐसे कैसे बिना बताए चले आए? आपको पता नहीं है कि मैं इतने बड़े पद पर हूं, मेरी कितनी इज्जत है? ऐसे में आप मुंह उठा कर चले आए और वो भी मेरे दोस्तों के सामने।
पिता का मुंह छोटा-सा हो गया था। पिता आए थे गांव से बेटे से मिलने। पूछते-पूछते बेटे के पास पहुंच गए थे।
जब मैंने कहीं ये कहानी पढ़ी थी तो बहुत रोया था। कई दिनों तक मन बहुत उदास रहा था। कोई कैसे अपनी मां, अपने पिता को दोस्तों से मिलाने में संकोच कर सकता है?
मैं बहुत से घरों में जाता हूं। बहुत से लोगों से मिलता हूं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, मैंने देखा, जाना कि बहुत से बेटे अपने मां-बाप को नकार देते हैं। जैसे-जैसे वो तरक्की की सीढ़ी चढ़ते हैं, कम पढ़ा-लिखा, कम कमाने वाला बाप गंवार लगने लगता है और फिर वो उससे दूर हो जाते हैं। दोस्तों के आगे अपने पिता, अपनी मां की सच्चाई छिपाने लगते हैं।
जबलपुर में हम कुछ दोस्त यूं ही टपरी की चाय पी रहे थे। एक ने कहा, “भैया कल चाय हमारे साथ पीजिएगा। नाश्ता भी करेंगे हम साथ-साथ।”
मैं तैयार हो गया। हमारे नए दोस्तों का ग्रुप हमारे साथ था। हम सब सुबह चल पड़े नाश्ता करने।
एक ठेले पर गरम समोसे, आलू बोंडा रखा था। वहां पहुंच कर उसने खुद पत्तल में हमारे लिए समोसा चाट बनाया। मैं हैरान था। वकालत की पढ़ाई कर रहा वो मेरा दोस्त रोड पर अपने हाथ से हमारे लिए चाट बना रहा था।
मुझे अच्छा लगता उससे पहले उसने कहा कि संजय भैया, मेरे पापा से मिलिए।
“पापा? वो कहां हैं।”
“भैया, इधर।” उसने इशारा किया, “ये मेरे पापा हैं। ये ठेला उन्हीं का है।”
मैं हतप्रभ था। मैंने पिता को प्रणाम किया। पिता ने खुश रहने का आशीर्वाद दिया।
मेरा दोस्त कह रहा था “भैया, ये मेरा छोटा भाई है। इसने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है। अच्छी नौकरी में था। फिर सब छोड़ कर पिताजी का हाथ बंटाने को खड़ा हो गया, ठेले पर।”
“वाह!”
नहीं। संजय सिन्हा अधिक नहीं लिखेंगे। आज वो चाहते हैं कि आप महसूस करें मेरे उन पलों को जब मैं ठेले पर दोस्त के पिताजी को लोगों को आलू बोंडा चाट, समोसा चाट बनाते और खिलाते देख रहा था। उससे भी अधिक उस भाव को, जब मेरे दोस्त ने कहा, “भैया, ये मेरे पापा हैं।”
आज की भौतिक दुनिया में महानगरों में जहां पढ़ी-लिखी, नौकरी शुदा संतानों के पास मां-बाप से मिलने का समय नहीं, कहीं जो वो मां-बाप बिना तैयार हुए दोस्तों के सामने आ गए तो पहचानने से संकोच करते हैं, जो अपनी झूठी शान बघारते नहीं थकते, सोशल मीडिया पर झूठी खुशियों की तस्वीरें चेंप कर डींग मारते हैं, जिनके पास अपने पिता, भाई के लिए समय नहीं वहां कोई है जो शान से अपने पिता से मिला रहा था। “भैया, पापा हैं।”
यहां वो लोग समोसा, आलू बोंडा, पोहा खाने आते हैं, जिन्हें प्याज, लहसुन से परहेज है। जिन्हें घर का बना ताजा नाश्ता पसंद है।
जिन्हें पापा पसंद हैं। जिन्हें अपने पापा से दोस्तों को मिलाने में कोई संकोच नहीं। जो जानते हैं कि ईश्वर कहीं है तो माता-पिता के रूप में ही है, वहां कल संजय सिन्हा समोसा चाट खा रहे थे।
यकीन कीजिए, मैं पता नहीं कितने साधु-संतों से मिला हूं। न जाने कितने तीर्थ स्थलों तक हो आया हूं, पर कल मेरे सामने संत खड़े थे। संत पिता। श्रवण कुमार पुत्र।
मैं कह नहीं सकता कि घर लौट कर मैंने जब अपनी पत्नी को इस मिलन की कहानी सुनाई तो वो कितनी देर तक स्तब्ध रही।
क्या सच में ऐसे लोग होते हैं? बेटा वकालत की पढ़ाई करके जज बनने की तैयारी में लगा है, पिता…
धन्य हैं वो पिता और धन्य हैं वो पुत्र।
आज आप संजय सिन्हा की कहानी साझा कीजिएगा। अपने बच्चों को सुनाइएगा कि ऐसे बच्चे भी हैं, ऐसे पिता भी हैं। दोनों को न ज़िंदगी से शिकायत है, न परिस्थिति से।
कल मेरे पास शब्द कम पड़ गए थे। आंखें मौन हो गई थीं।
खुद नहीं देख कर आया होता, खुद नहीं मिल कर आया होता तो ये कहानी आपको कैसे सुनाता। जिनके मन में जरा भी हीन भाव हो, उन्हें एक बार इस पिता की तस्वीर देखनी चाहिए। उस पुत्र की तस्वीर भी देखनी चाहिए…बस और कुछ नहीं।
खुश रहना मेरे भाई। बहुत भाग्यशाली होते हैं वो, जिनके सिर पर पिता का साया होता है।
#संजय सिन्हा, फेसबुक से साभार

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