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पिता — बबिता बोरा

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पिता ने कभी ज़्यादा कुछ नहीं कहा।
असल में, वे कभी ज़्यादा कुछ कहते ही नहीं थे।

“पिता” शब्द सुनते ही याद आती है —
शनिवार रात का इंतज़ार,
पेट्रोल की महक,
देवदार के पेड़ों की ठंडी छाया,
दूब घास पर टिकी ओस की बूँदों को चीरकर आती धूप की चमक,
और दस रुपये की चॉकलेट के सुनहरे रैपर में छिपी खुशी की महत्ता।

मेरे मन में पिता के लिए ढेर सारा गुस्सा और ढेर सारा सवाल अब भी दबा हुआ है।
कभी-कभी लगता है, शायद उनसे थोड़ी सी नाराज़गी भी है —
जो कभी खुलकर नहीं कह पाई।

पापा ने हमें कभी स्वार्थी होना नहीं सिखाया।
उन्होंने सिखाया — माफ़ करना,
सिखाया — कैसे भावनाओं को जिया जाता है।

अगर उस दिन पापा चुपचाप लाए हुए चॉकलेट मुझे अकेले खिला देते,
तो शायद मैं भी स्वार्थी होना सीख जाती।
अगर भारी बारिश में भी पापा काम पर न जाते,
तो शायद मैं बारिश में भीगने का सुख समझ पाती।
अगर प्रेम से दी गई पचास रुपये मंदिर में मेरे नाम पर चढ़ाने के बजाय
मुझे दे देते,
तो शायद मैं भगवान से डरना सीखती।

बिहू या पूजा के दिनों में अपनी हैसियत के अनुसार जो नये कपड़े
‘बाबू काका’ या ‘केरला काका’ जैसे ज़रूरतमंदों को देते,
उनसे मैंने सीखा — देने का सुख क्या होता है।
अगर ये न सिखाते,
तो शायद मैं अपने बैंक खाते में कुछ रुपये ज़्यादा जोड़ पाती।

वही पुरानी गेरुआ कमीज़, कुछ ही कपड़ों को धोकर पहन लेना —
अगर त्योहारों में पापा ने सजने-संवरने को ही महत्व दिया होता,
तो शायद बाहरी चमक-दमक ही मेरी आदत बन जाती।

मैं पापा की वजह से बहुत कुछ नहीं सीख पाई।
बहुत से लोगों को समझ नहीं पाई।
पापा की वजह से ही मैंने कभी किसी से बदला लेना नहीं सीखा —
जो तकलीफ़ दे गए,
उन्हें माफ़ कर देना ही सीखा।

जिसे दिल से चाहा,
जिसे थामकर रखना चाहा —
उसे खो देने पर भी खामोश रहना पड़ा —
क्योंकि मैंने पिता से यही सीखा।

लोग कहते हैं — मैं पापा जैसी हूँ।
“पापा की बेटी” कहने पर शायद माँ को थोड़ी सी जलन भी होती होगी,
लेकिन सच कहूँ —
मेरे मन में एक टीस रह जाती है —
कि मैं कभी पापा जैसी नहीं बन सकी।

मैं पापा की तरह चुपचाप आँसू नहीं रोक पाई।
पापा की तरह शिकायतों को दिल में दबाकर नहीं रख पाई।
पापा की तरह सहनशील, उदार, स्नेहमय और निष्पाप बनना…
मैं सीख ही नहीं पाई।

मैं पापा की आँखों जैसी पवित्रता अपने भीतर नहीं उतार सकी।


नोट:
मैं अपने पापा को शिव की तरह देखती हूँ —
नीलकंठ शिव की तरह।
जो हर दिन विष पीते हैं,
उसी तरह मैं भी हर दिन खुद को निगलती हूँ,
कष्ट सहती हूँ —
यह एक आदत बन गई है।
पापा की तरह।
शिव की तरह।

पापा ने कभी मेरे सामने आँसू नहीं बहाए।
तो फिर मैं क्यों नहीं सीख सकी —
अपने आँसू भीतर रोकना?

मैंने शिव की तरह प्रतीक्षा करना सीख लिया,
फिर क्यों नहीं सीख सकी —
जिसे खो दूँ, उसके लिए पछताना बंद करना?


लेखिका: बबिता बोरा
स्थान: शिलचर, असम 

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