प्रिय मित्रों ! अपने पितृ-गणों को समर्पित करता हुवा यह श्रृंखला ! अपने पूर्वजों के चरणों में इसकी तृतीय ऋचा का तृतीय अंक मैं प्रस्तुत करता हूँ-
“आहं पितृन् त्सुविदत्रां अवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः।
बहिर्षदो ये स्धया सुतस्य भजन्त पित्वस्त इहागमिष्ठाः॥”
ऋषि कहते हैं कि-उत्तम ज्ञान से युक्त पितरों को तथा अपानपात् और विष्णु के विक्रमण को मैंने अपने अनुकूल बना लिया है!!कुशाशनपर बैठने के अधिकारी पितर अपनी इच्छाके अनुसार हमारे द्वारा अर्पित हवि और सोमरस को ग्रहण करें!!
और मैं इस अंक में भी आपसे प्रथम”विष्णु-विचक्रमण”पर ही चर्चा करता हूँ– कुछ वर्षों ! हाँ ! आप विश्वास नहीं कर सकते, तो न करें ! किन्तु कुछ सौ वर्षों पूर्व की घटना की एक स्मृति मेरे सुसुप्त मस्तिष्क में विद्यमान है-
वो मैं था अथवा कोई अन्य ये कहना उचित नहीं समझता किन्तु स्मृति ये है कि किसी योग्यतम तांत्रिक साधक ने अपनी साधनान्तर्गत एक अनोखा कृत्य किया था ! श्मशान के समीप स्थित एक पर्ण-कुटी में एकादश दिवसीय साधनोपरान्त अपने शिष्यों के द्वारा भैरवी का मस्तक-विच्छिन्न कर यज्ञ-कुण्ड में स्वाहा कर दिया था।
और अभी कुछ वर्षों लगभग उन्नीस सौ पचासी में मैं एक पहाडी पे स्थित किसी स्थान में रहता था ! पास में एक जल-प्रपात था ! मेरी छोटी सी कुटिया के बगल से ही हो कर उस तक जाने का पहाड़ी उबङ-खाबङ मार्ग था! मैं मध्यरात्रि ३~३० पे उठ जाता था तो किसी की “खङाँऊं पहन कर खट-खट चढने और उतरने की ध्वनि नित्य सुना करता था ! एक बार साहस जुटाकर बाहर निकल कर मैंने देखा तो एक कोई सात फुट के अति-वृद्ध सशक्त और ओजस्वी साधू थे जो एक वस्त्र धारण किये,त्रिपुँड तथा त्रिशूल धारी ऊपर से नीचे ऊतर रहे थे। मैं तत्काल नीचे से उन्हें दण्डवत मुद्रा से प्रणाम किया ! वे आकर मेरे पास रुक गये ! और बोले कि मैं जानता था कि कभी न कभी तुम मुझे देखेगो !चलो ये बताओ कि- मेरा एक कार्य कर दोगे ?
मैं तत्काल बोला कि सौभाग्य होगा मेरा आदरणीय ! तो वे बोले कि मैं तुम्हारे पास आज से अट्ठारह दिन तक नित्य रात्रि में बैठूँगा ! और तुम मुझे प्रतिदिन श्रीमद्भग्वद्गीताजी का एक अध्याय सुनाओगे ! मैंने तत्काल ही हाँ कह दिया। और अठारहवें दिन उन्होंने हमको बताया कि तुम जिस कुटिया में रहते हो ! उसी में मैं सदियों पूर्व रहता था ! और एक दिन ऊपर से फिसलने के कारण मेरी मृत्यु हो गयी थी ! और तबसे मैं तुम्हारी प्रतिक्षा कर रहा था। मेरा पुनर्जन्म इनसे गीताजी सुनने के बाद ही होना था ! और वे चले गये ! इसके पश्चात मैंने उन्हें फिर कभी नहीं देखा।
अतः मित्रों ! जैसे कि किसी की असामयिक मृत्यु होती है,हत्या, दुर्घटना,आत्महत्या, कष्टदायी व्याधियों से मृत्यु होती है ! ठीक है,मैं मानता हूँ कि ये उनका प्रारब्ध हो सकता है ! जैसे धुन्धुकारी के ही प्रकरण का मैं आपको स्मरण दिलाता हूँ ! कालान्तर में-“गोकर्ण” ने उनकी मुक्ति हेतु प्रयास तो किया ? धुन्धुकारी अर्थात अपने निशाचर पूर्वजों के भी कल्याण का मैं पक्ष रखना चाहता हूँ। कुछ दिनों पूर्व इनके ज्येष्ठ भ्राता वो दिल्ली में रहते थे,पुलिस विभाग में थे उनका कैंसर से असामयिक तथा अत्यंत ही कष्टदायी निधन हुवा था। उनका अंतिम संस्कार इत्यादि कराने और एक वर्ष उपरान्त इनकी भाभी,उनके बच्चों और उनकी अस्थियों को लेकर हम दोनों प्रयाग गये !अस्थि प्रवाह के पश्चात गया में श्राद्धादि कर्म किया।
मैं वहाँ पर इनके तथा भाभी और भतीजों के साथ सबसे पहले “प्रेत-शिला” पे गया ! वो गया के समीप एक दुर्गम मार्ग है ! मैं जब वहाँ गया तो स्पष्ट रूप से ये महसूस किया कि अनेक लोग मानों चीख-चीख कर मौन आर्तनाद कर रहे हों। एक भयानक तथा शरीर को थर्रा देनी वाली नीरव शान्ति वहाँ व्याप्त थी !कदाचित् शास्त्रीय पद्धतियों तथा आंतरिक श्रद्धा से उन-“प्रेतों” को वहाँ स्थापित न किये जाने के परिणाम स्वरूप वो नारकीय पीडा भोगने को अभिशप्त हैं-
“ये रूपाणि प्रतिभुञ्चमाना असुरा सन् _स्वधयाचरन्ति।
परा पुरो निपुरो ये भरन्त्यग्निष्टांल्लोकात् प्रणुदात्वस्मात्।।
मैं यह नहीं कहना चाहता कि श्राद्धादि कर्मों से वे अपने प्रारब्ध से मुक्त हो जायेंगे ! किन्तु आप स्मरण रखें कि इन कर्मों को न करने से आपकी सन्ताने-“कालसर्प योग” अर्थात पितृदोष से पीढीयों दर पीढीयों तक दुःखी तो रहेंगे ही। गया जाकर हम सभी को अत्यंत ही मानसिक क्षोभ हुवा ! रेलवे स्टेशन से ही तीर्थ-पुरोहितों के झुण्ड यात्रियों को किसी पशुओं की तरह फुसलाते हैं ! श्राद्ध सामग्री हेतू वे दुकान पे ले जाते हैं और एक ही पूजन सामग्रि जो सैकड़ों बार बिक बिक चुकी ! उसे ही पुनश्च बिकवा देते हैं ! और श्राद्ध प्रक्रियान्तर्गत घी के दीपक के स्थान पर मोमबत्ती जलाते हैं ! ये मैं “गया” की क्या कहूँ ये कुप्रथा अपने समूचे पूर्वोत्तर में व्याप्त हो चुकी है ! कदाचित् ये चर्च और बौद्ध स्तूपों का प्रभाव तथा यहाँ व्याप्त गाय-भैंसों की कमी, गरीबी तथा अयोग्य ब्राम्हण वर्ग का विरोध न करना हो ?
मित्रों ! मैं समझता हूँ कि पुरोहितजी द्वारा की गयी पद्धतियों से मैं पूर्णतया संतुष्ट था!!अर्थात वे शास्त्रज्ञ तो थे ! कुशल शास्त्रज्ञ कर्मकांडी किन्तु व्यावसायिक ! तदो परान्त जब “विष्णुपाद शिला” में हमने पिण्ड को अपने हांथों प्यार से सहलाते हुवे उसका लेपन कर दिया तो जो अनुभूति उस काल की थी ! मानों ऊपर नक्षत्रों से आ रही कोई रश्मि हमें अंतःआह्लाद से सराबोर कर रही थी ! आप स्मरण रखें कि यदि श्रद्धा से आपने श्राद्ध किया तो-
“ऊँ विष्णु शिव यम सोमराज हव्यवाहन कव्यवाहन मृत्यु रूद्र तत्पुरूषाणां यद् दत्तमन्नपानादिकं तदुपतिष्ठतामये।।
जो जीव के निकल जाने पर पञ्च तत्वात्मक मृतक शरीर शेष रहता है ! वो जलाये जाने के पूर्व तक प्रेत कहा जाता है। और मृतक जीव देहाध्यास के कारण उस शरीर में प्रविष्ट होने का बारम्बार असफल प्रयास करता है ! और असफल हो जाने पर ! वो यदि आपमें मनोबल की कमी होगी तो आपमें आवेशित होता ही है !आपको प्रभावित करता है। अगले अंक में पुनश्च इसी ऋचा के चतुर्थ भाग को प्रस्तुत करता हूँ……… आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्कांक 6901375971″
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पितृसूक्त मंत्र~तृतीय भाग चतुर्थ अंक आठ
मित्रों ! मैं इस अंक में भी आपसे प्रथम”विष्णु-विचक्रमण”पर ही चर्चा करता हूँ- किसी भी जड अथवा चैतन्य के निर्माण अथवा प्राकट्य को-“ऋक” कहते हैं। वह जहाँ से जहाँ तक स्थिर रहता है उसे “जू” अर्थात “ऋक+जू अर्थात-“यजु” कहते हैं,(आपने इस प्रकार यजुर्वेद के नामकरण का रहस्य भी समझ लिया होगा)
और इन दोनों के सम्मिलित होने पर ही-“सामगान” होता है जिससे अग्नियों से उत्पन्न ऊर्जा प्रस्वेद अर्थात जिसे अथर्ववेद कहते हैं ! यही चारों वेदों के नामकरण का तात्पर्य है। आप यह ध्यान रखें कि आप पहले अकेले थे अथवा प्रकृति अकेली थी !हममें संतानोत्पत्ति की ऐषणा आती है ! तो हमारे संसर्ग से हम एक से अनेक हो जाते हैं।
यह सांसारिक दृष्टि तथा वेदान्त दोनों ही दृष्टि से समान सिद्धांत है ! अतः कहते हैं कि-“अग्निषोमात्मकं जगत” अब जब संतान अर्थात सृष्टि होगी तो वो प्रथम कैसे होगी ? जब आप नितांत अकेले होते हैं तो शांत रहते हैं !और अपनी शाति से ऊबकर स्त्री अर्थात प्रकृति को पुकारते हैं ! अर्थात ब्रम्ह,विष्णु- “नाद” के रूप में प्रकट हुवे प्रथम ! और नाद के प्रवाहित होने हेतु पवन प्रवाहित हुवा। अर्थात पवन ही सूक्ष्म शरीरी है आपका ! जितने भी जीव हैं ! वे यहाँ हों अथवा अन्यत्र हों वे सभी के सभी-“प्राण” अर्थात वायु स्वरूप हैं ! अतः पितरों को-“वायव्येतिश्च” ऐसा सामवेद कहता है।
मित्रों ! “नपातं च”आपको इन पितरों को अनपात् अर्थात सामान्य अर्थ में कहूँ तो एक अनुपात में समान रूप से संतुष्ट करने का प्रयत्न करना होगा ! ये निश्चित है कि जो श्रेष्ठ पूर्वज हैं उनकी अपेक्षा निर्कृष्ट तथा दुःखी पितरों के दुःखों की निवृत्ति हेतु प्रयास आपको करना ही होगा। मैं ये कहना चाहता हूँ कि आप नाद हो ! आपकी पत्नी ध्वनि हैं ! आपके दादा,परदादा,नाना, परनाना नाद हैं और आपकी दादी,परदादी,नानी,परनानी ध्वनि हैं । और हमआप हमारी संतानें हमारे पूर्वज (क्यों कि वो भी किसी की संतान थे) “पवन”के बुलबुले हैं ! ये बुलबुले क्षीरसागर में भी हैं और कुम्भीपाक नर्क में भी हैं। किन्तु ये सभी के सभी हमारे पितर,पीढियाँ या संताने हैं ! जो क्षीरसायि विष्णु लोक में हैं ! वे अपने यज्ञों में तो आयेंगे ही किन्तु वैतरणी की यातना भुगत रहे अपने पितरों के लिये भी सोचना आपका कर्तव्य है।
तभी तो जीवों की चार गति कही गयी है-“स्वर्ग-मर्त्य-नर्क और चौथी विष्णु लोकों में ! और इसी कारण आप कर्मकाण्डान्तर्गत “क्षेत्रपाल” का चतुर्मुखी दीपक प्रज्वलित करते हो-
“भूतायं त्वा नारातये स्वरभि विर व्येषंद हन्ता दुर्याः।
पृथिव्या मुर्वन्तरिक्षमन्वेमि।
पृथिव्यास्त्वा नामौ सादयाम्य दित्या उपस्थेऽग्नेहव्यरक्ष।”
अर्थात मैं ऐसा समझता हूँ कि यदि आपमें इच्छाशक्ति होगी ! तो आप अपने नर्कगामी अर्थात अधोगामी पूर्वजों का भी हित-संपादित कर सकते हैं। गीता में स्पष्ट रूप से आज्ञा दी है कि योग भ्रष्ट पुरूषों का पुनर्जन्म होता है और वे पुनश्च अपनी अधूरी साधना को पूर्ण कर ऊर्ध्वगामी होते हैं।
मैं आपसे पूछता हूँ कि यदि उन श्रेष्ठ जनों का जन्म होता है ! तो इन निर्कृष्ट जनों का तो पुनर्जन्म होगा ही ? अब यदि आपने श्रद्धानुसार उनका श्राद्ध कर दिया तो उनकी मति में,मानसिकता में परिवर्तन क्यों नहीं होगा ? प्रेम से तो पत्थर भी पिघल सकते हैं ! मैं आपको एक गूढ रहस्य की बात कहता हूँ ! मेरे परिचितों में अनेक ऐसे लोग हैं जिन्होंने मुझसे मित्रता मात्र मुझे एक ज्योतिषी जानकर स्वार्थवश की थी ! किन्तु आज उनमें से अधिकांश मुझे अपने सगे पिता की तरह प्यार करते हैं।
आप यह याद रखें कि “पितृ-दोष” अर्थात ये एक ऐसा दोष है जो कि जैसे”मधुमेह,फाइलेरिया,स्वेत स्वित्रादि” आनुवंशिक हो सकते हैं वैसे ही यह भी वंशानुगत हुवा करते हैं ! बुरी गति में गये पितर आपको भी घसीट सकते हैं और यदि आप सबल हुवे ! उनके संबल बने तो आप उनको भी नर्क की आग से घसीट कर सोमरस पान करा सकते हैं ! और वैसे भी श्राद्धादि के नियम हैं कि-
“एकैकं विबुधेषु चर्षिसु तथा द्वौ-द्वौ कृतावञ्जली।
त्रिस्त्रीश्चेत्पितृणा स्त्रिया अपि परं त्वेकैकमेवं विधिः।।”
श्राद्ध में देवताओं को एक बार ही आप प्रणाम कर लो, वे प्रशन्न हो जायेंगे ! ऋषियों को दो बार तथा स्त्रीयों और अधोगामी पूर्वजों को तीन-तीन बार ! बारम्बार प्रणाम करना पडता है।
मित्रों ! पितर क्या हैं ? ये आपकी “छाया ! और राहू केतू भी तो छाया ही हैं न ? और इन दोनों के मध्य आप फंस गये तो बस कालसर्प योग बन गया ! राहू अर्थात हमारे गंदे और धृणास्पद विचार तथा केतू अर्थात उन विचारों के कारण उत्पन्न कर्तव्य विमूढ़ता की मेरी मनो-स्थिति। किंतु मुझे यदि अपना कल्याण करना है तो अपने सभी पितरों को भी कुशाशन पर बैठने का अधिकारी बनाना होगा। इसी के साथ इस ऋचा की प्रबोधिनी पूर्ण करता हूँ!!सूक्त की चतुर्थ ऋचा के साथ पुनः उपस्थित होता हूँ….. आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्कांक 6901375971″
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पितृ-सूक्त मंत्र-चतुर्थ,प्रथम भाग,नौवां अंक
मित्रों ! इस ऋचा में ऋषि कहते हैं कि-
“बहिर्षदः पितरऊत्यर्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम।
त आ गतावसा शंतमेनाऽथा नः शं योररपो दधात।।”
अर्थात- कुशाशनों पे विराजमान हे पितरों ! आप कृपा कर हमारी ओर आयें,यह हविष्य आपके लिये ही निर्मित की गयी है, इसे प्रेम से स्वीकार करें ! और अपने प्रेम सभर आशीष के साथ आप आयें और हमें भी क्लेशों से रहित सुख तथा कल्याण प्राप्त होने का आशीष दें।
मित्रों ! आप यह स्मरण रखें कि इस सूक्त के अधिष्ठाता देवता “पितर” ही महर्षि-“शञ्ख यामायन” ने निर्देशित किया है अर्थात सूक्त के देवता पितर होना इस तथ्य के द्योतक हैं कि वेदों ने पितरों को दैवीय सत्ता के समकक्ष माना है। क्यों कि यदि ऐसा न होता तो वेदों में कोई ना कोई तो-“आसुर-सूक्त” भी होते।
यहाँ कहते हैं कि-“वो हव्या चकृमा जुषध्वम” ये हवि हमने आपके लिये ही निर्मित की है ! ये अद्वितीय भाव हैं ऋषि के ! ये आप स्मरण रखें कि हविस्य का का निर्माण हो अथवा हमारी पाक शाला में भोजन का निर्माण ! पवित्रता तथा उनकी पौष्टिकता के साथ-साथ भावना की प्रधानता निःसंदेह होती है !मैं तो यहाँतक कहूँगा कि हमारे ठाकुरजी के निमित्त बन रहे प्रसाद में थोड़ी अनीयमितता तो शायद वे छमा-सिंधु सहन कर लें किन्तु पितरों के निमित्त बनते हविष्य में-“प्रमाद” बिलकुल ही अक्षम्य होगा।
मैं देखता हूँ कि जब भी किसी यज्ञ-अनुष्ठान समिधा की सूचि बनायी जाती है ! तो यव,तिल,धृत,शर्करा, पंचमेवा अक्षतादि की सवाया आदि इकाईयों पर विशेष बल दिया जाता है ! और वैसे ही- “जप तद दशांग हवन तद दशांग तर्पण तद दशांग मार्जन” किन्तु एक तथ्य को अनदेखा कर दिया जाता है कि इन सामग्रियों तथा भावनाओं के पवित्रता की। लोग कहते हैं कि त्रयोदशाह आदि मृतक-भोज को बंदकर देना चाहिये ! इसमें व्यर्थ-व्यय होता है ! ये उपदेश देने वालों से मैं पूछना चाहता हूँ कि हम अपने जन्मोत्सव,विवाह की वर्षगांठ आदि पर होने वाले भोज ! “किट्टी-पार्टी,होटलों के व्यय पर अंकुश क्यूँ नहीं लगाते ?
मैं मानता हूँ कि अधिकांश लोगों की श्राद्धादि करने की आर्थिक दृष्टिकोण से क्षमता नहीं होती ! किन्तु इसके मूल में आर्थिक क्षमता का कम सामाजिक दिखावे का दोष कहीं ज्यादा होता है !
और वैसे भी-“सत्यस्य नावः सुकृतमपीपरान।” सत्यकी नौका उसके सत्कर्मों से पार तो लगती ही है।
मित्रों ! ऋग्वेद दसवें मण्डल,चौदहवें अध्याय के द्वितीय मंत्र अर्थात यमसूक्त की ये ऋचा मैं नित्य इनके साथ पढने का प्रयत्न करता हूँ-
“यमो नो गातुं प्रथमो विवेद नैषा गव्यूतिरपभर्तवा उ।”
मेरे पाप-पुण्यों के ज्ञाता यम के मार्ग को कोई बदल नहीं सकता ! उसी मार्ग से अपने-अपने कर्मानुसार सबको जाना है।
हविष्यान्न,समिधा तथा सोमरस की विशेषता होती है कि वे पक्वान्न नहीं होते ! कच्चे अन्न तथा धृतादि का उपयोग जितना महत्व रखता है उससे कहीं ज्यादा महत्व उनकी न्यायोपार्जिता पर होता है। मेरा अभिप्राय है कि श्राद्ध-सामग्रियों का सञ्चय सदैव ही न्यायोपार्जित धन से होना चाहिये, तथा उनका निर्माण भी श्रद्धा से हो। आप यह स्मरण रखें कि जिस श्राद्ध सामग्री को गृहण करने आपके घर पे अतिथि आते हैं उन अतिथियों में न जाने किस रूप में आपके पूर्वज,पिता,पितामह,मातामही,कोई ऋषि ही क्या साक्षात नारायण भी आ सकते हैं। यहाँ तक कि कुशा से लेकर समिधादि में उपस्थित कृमि भी आपके पूर्वज हो सकते हैं ! आप उन्हें जला दो अथवा सावधानी से उन्हे पृथक कर अपनी सुचिता का परिचय देकर इस श्राद्ध सामग्री को उनके योग्य निर्मित होने दें।
सूक्त में कहते हैं कि-“बहिर्षदः पितर ऊत्यर्वागिमा”अर्थात कुशाशनों पे विराजमान हे पितरों आप हमारी ओर आयें ! ये सामान्य वाक्य नहीं है ! जैसे कि सामान्यतया इन कर्मों में आपने अनेक स्थानों पर कुशाओं को विचित्र प्रकार से रखने का विधान देखा होगा। किसी का अग्र भाग सीधा किसी का उल्टा,उनके मध्य दूरियाँ ! इनका भी सूक्ष्म वैज्ञानिकीय रहस्य है ! संक्षेप में इतना ही कहूँगा कि जिस-प्रकार स्थूल शरीर का आसन स्थूल होता है वैसे ही सूक्ष्म शरीर का आसन भी सूक्ष्म ही होगा।
अब इनपर आमंत्रित पितरों को अपनी ओर आकर्षित करना- “ऊत्यर्वागिमा” मित्रों ! वे आपकी ओर आकर्षित होंगे कैसे ?
“ऊँ गणपतये इहा गच्छ इहा तिष्ठः” कहते तो सभी हैं किन्तु मन से उस आसन पे ईष्ट बैठे कि नहीं बैठे, इसपर ध्यान देना प्राथमिकता होनी चाहिए ।
शिव-लिंग के मस्तक पर चढे नैवेद्य को चूहे द्वारा खाये जाने पर सगुणोपासना का परित्याग कर नूतन पथ का अन्वेषण करने वाले ये क्यों भूल जाते हैं कि वो-“मूषक” शिव भी तो हो सकते हैं ? आप उन आसनों पे बैठें,अथवा घर में आमंत्रित अतिथियों, औषधियों,अन्नादि में पितरों को देखें तो ? और आपको पुरोहित में साक्षात ब्रम्हा के होने की श्रद्दा भी तो हो ? और आप विश्वास रखें कि यदि ऐसा होता है तो आपके पूर्वज आपके द्वार पे आयेंगे ही ! “पत्रं पुष्पम फलं तोयं” आपके पास जो उपलब्ध है आप श्रद्धा से उन्हे निवेदित करो ! उन्हे ये विश्वास होना चाहिये ! वे सूक्ष्म शरीर से ! अपनी अंतर्चक्षु से आपके भीतर झांक कर देखने में सक्षम हैं कि आपने उन्हे “क्या-कैसे-क्यूँ और किस भावना” से अर्पित किया है ! अगले अंक में पुनश्च इसी ऋचा के द्वितीय अंक को प्रस्तुत करता हूँ……. आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्कांक 6901375971″