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पितृ-सूक्त मंत्र~१ अंक~१

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प्रिय मित्रों !अपने पितृ-गणों को समर्पित करती हुयी इस श्रृंखला का मैं अपने पूर्वजों,ऋषियों के चरणों में इसकी प्रथम ऋचा प्रस्तुत करता हूँ-
“उदीरतामवर उत् परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।
असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु॥”
सुधिजन! ऋग्वेद दशम मण्डल के १५ वें सूक्त की १ से लेकर १४ पर्यन्त की ऋचायें पितृ-सूक्त के नाम से विख्यात हैं ! और इसे भी हमारे मंत्र-दृष्टा ऋषियों ने पूर्वमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा के वैदिक सिद्धांतों का अनुशीलन करते हुवे दो भागों में विभक्त किया है-
प्रथम की आठ ऋचायें जहाँ पितरों को आमंत्रित करने हेतु !उनका आह्वान करने हेतु हैं ! वहीं अंत की छे ऋचायें अग्नि-देव के प्रति हैं कि वे भी उचित पितरों को बुला लें ! और उन्हें अपनी पंक्ति में स्थान दें ! उनके साथ हविष्य गृहण करें ! और मैं इस प्रथम अंक में आपसे इसके मंत्र दृष्टा ऋषि के संदर्भ में ये बताना उचित समझता हूँ कि इस सूक्त के ऋषि-“शञ्ख यामायन” हैं।
वे कहते हैं कि-“उदीरतामवर उत् परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः”अर्थात नीचे-ऊपर तथा मध्यस्थानों में रहनेवाले सोमपान करने के योग्य सभी हमारे पितर उठकर तैयार हों !अर्थात ये तो निश्चित है कि-“सोमपान”के अयोग्य पितर भी हैं !और यदि अयोग्य हैं तो वे कौन हैं ? क्या और कैसे मैं उन्हें इसके योग्य बना सकता हूँ ?
एक परम्परा रही है कि मैं अपने पूर्वजों को श्रेष्ठ ही मानता हूँ चाहे वो धुँधुकारी ही क्यों न हों ! मैं सदैव उन्हें स्वर्गवासी ही कहता हूँ ! कभी किसी ने आज तक यह नहीं कहा कि मेरे पितर नर्कवासी भी हो सकते हैं !, लोगों ने भला ऐसा कैसे सोच लिया कि मृत्योपरांत औरंगजेब,अलाउद्दीन,बख्तियार खिलजी,बाबर अफजल जैसे लोग जन्नत जायेंगे ? यदि ऐसे लोग जन्नतनशीं होंगे तो निःसंदेह जहन्नुम उससे बेहतर होगी ! वैसे मैं ये प्रार्थना करूँगा कि आप ऋग्वेदोक्त •१०•१६•५• मंत्र को अवस्य देखें……
“अव सृज पुनरग्ने पितृभ्यो यस्त आहुतश्चरति स्वधाभिः
आयुर्वसान उप वेतु शेषः सं गच्छतां तन्वा जातवेदः॥”
जब मैं ये शरीर त्याग दूँगा-तो पँञ्च-तत्व अपने-अपने समूह में मिल जायेंगे !  किन्तु-“मैं” अर्थात जातवेदा जीवात्मा ,तो रहूँगा ही  !चलो आप पूर्वजन्म के सिद्धांत को नहीं मानते ! स्वर्ग और नर्क को नहीं मानते ! तो बिलकुल भी मत मानो ! किन्तु प्रकारान्तर से आपने ये तो मान ही लिया कि “मैं” हूँ।
और यदि मैं हूँ तो मेरे अच्छे या बुरे पितर भी हैं ! ये जो कुछ लोग अभी पितृपक्ष में-“तर्पण” करने की सोच रहे हैं ! वे अंधविश्वासी हो सकते हैं ! शायद आप उन्हे पौराणिक भी कह सकते हैं ! किन्तु वेदोक्त ऋचायें इस संदर्भ में बिलकुल स्पष्ट और सार्वभौमिक हैं ! और वैसे भी मुस्लिम हों या ईसाई सभी ने प्रकारान्तर से पुनर्जन्म को स्वीकार किया है।
जब पात्रों का आह्वान आप करते हो ! तो करने के पूर्व आपको उनके अस्तित्व को प्रथम स्वीकारना होगा ! जैसे कि आपने मुझे पुकारा या मेंशन किया- “आनंद !!!! तो मुझतक आपकी पुकार तो पहुँची ! कैसे पहुंची ?
इस आभासी शोषल मीडिया में जब आपकी आवाज मैं यहाँ अपने घर  बैठा सुन सकती हूँ ! इस नेटवर्क के द्वारा सुन सकता हूँ ! आप मुझे न जाने कितनी दूर बैठे पढते हो ! ये दूरी कुछ की•मी• या सैकडों हजारों मिल दूर हो सकती है ! तो लाखों अरबों कीलोमीटर क्यूँ नहीं हो सकती ? यहाँ ऋचा में पुनश्च कहते हैं कि-वे पितर खङे हों,जो सोमपान के अधिकारी हैं !और वैसे तो लोगों ने यह भी सोच रखा है !और एक मिथ्या-धारणा भी बना रखी है कि “सोमरस”अर्थात-“मद्य” हाँ ये मद्य तो है किन्तु “शिवसंकल्पित मद्य”और आप विश्वास रखना कठ•१••१•६•के इस मंत्र पे-
“सस्यमिव मत्र्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः।”
ये शरीर तो फसलों की तरह उगता है,पुष्ट होता है,मरता है और फिर से उगता है।
किन्तु सोमरस-पान की ईच्छा हेतु ही आप और आपके पितर भटकते रहते हैं ! ये एक आधिदैविक अधिकारी की बात है-“पितरः सोम्यासः”अर्थात ये स्पष्ट है कि सभी पितर सोमपान के अधिकारी नहीं हैं ! जो सौम्य स्वभाव के हैं उन्हें ही आपकी हविष्य मिल सकती है ! अन्यान्य पितरों के आह्वान की ये ऋचा है ही नहीं ! और उनके आह्वान की ऋचा कमसे कम पितृ सूक्त में प्राप्य नहीं है।
वैसे मैं आपको एक बात पुनश्च कहूँगा कि अथर्ववेद •१२• २• ४५• में कहते हैं कि- “पितृणां लोकमपि गच्छन्तु।”
पितृ-“पितृलोक” में जाते हैं ! अर्थात ये अधिकार और अनाधिकार को समझे बिना यदि मैं आगे बढता हूँ तो मेरा प्रयत्न व्यर्थ होगा ! प्रिय मित्रों ! मैं समझता हूँ कि मेरे सभी पूर्वज स्वर्गवासी नहीं हुवे ! और सभी नर्कवासी भी नहीं हुवे ! और लगभग सभी पृथ्वी वासी तो प्रकारांतर से हुवे ही हुवे ! अब यदि जन्म के सिद्धांत को मैं मानता हूँ तो एक समस्या आती है ! और वह यह कि जिनका जन्म हो चुका उनका आह्वान भी होगा ! तो वे कैसे सोमपान अथवा हविष्य गृहणार्थ आयेंगे ?
और सूक्त-ऋचा स्पष्ट कहती है कि-“असुं य ईयुरवृका” जिन्होंने नूतन जन्म धारण कर लिया है और जो उन हविष्य के अधिकारी हैं-“ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु” वे सभी हमारे निमंत्रित किये जाने पर आयें!! क्रमशः सूक्त की द्वितीय ऋचा के साथ पुनः उपस्थित होता हूँ !….. आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्कांक 6901375971″

पितृ-सूक्त मंत्र २~१ अंक~२
अपने पितृ-गणों को समर्पित करती हुयी इस श्रृंखला को ! अपने पूर्वजों के चरणों में इसकी द्वितीय ऋचा का प्रथम अंक मैं प्रस्तुत करता हूँ-
“इदं पितृभ्यो नमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो य उपरास ईयुः।
ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता ये वा नूनं सुवृजनासु विक्षु॥”
नूतन तथा पुरातन सभी पितृ-वृन्द जो यहाँ से चले गये हैं,अन्य स्थानों में हमसे उत्तम स्वजनों के साथ निवास कर रहे हैं ! जो यम,स्वर्ग,मर्त्य अथवा विष्णु लोकों में निवास कर रहे हैं ! उन सभी को आज हमारा प्रणाम निवेदित हो।
प्रिय मित्रों ! सूक्त में ऋषि का यह कथन मैं जब देखता हूँ तो सोचता हूँ कि उनकी दृष्टि कितनी सर्वकालिक तथा सार्वभौमिक थी ! वे कहते हैं कि-” सुवृजनासु विक्षु”हम आपको प्रणाम निवेदन करते हैं ! आप स्वीकार कर लो।
आप यह स्मरण रखें कि जैसे हम-आप जीव हैं वैसे ही हमारे पितृ भी-“जीव” हैं ! उन्हें समझने के लिये मैं अपने स्थूल शरीर से ऊपर ही नहीं उठना चाहता ! तो भला उन्हे समझूँगा कैसे ? ऋचा में कहते हैं कि-“ये पूर्वासो य उपरास ईयुः”जो इसके पूर्व यहाँ से चले गये हैं!!अर्थात हमारे घर से चले गये हैं ! हमारे परिवार,सम्बन्धादि को छोडकर चले गये हैं ! अपनी इच्छा से गये कि अनिच्छा से गये ! किन्तु चले गये हैं ! उनतक मेरी प्रार्थना पहुंचने की विधि भी ऋषियों ने बतायी है, ऋग्वेद द्वितीय मण्डल के चौथे सूत्र में कहते हैं कि-
“अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरिड्यो नूतनैरूत स देवाँ एह वक्षति॥”
अग्नि देवता ही देव तथा पितरों से स्तुत्य हैं और वे ही देव तथा पितरों को आपके यहाँ लाने में समर्थ हैं। प्रिय मित्रों ! आप प्रथम “यम” तथा”यमलोक” को भी समझ लें ! बङी भ्रान्तियाँ पाल रखी हैं हमने-आपने इस संदर्भ में ! “यम”नियमन को कहते हैं अनुशास्ता को कहते हैं ! निष्पक्ष न्यायाधीश को कहते हैं ! और सर्व-प्रथम सोमरस पान का अधिकार यज्ञों में “यमराज”को ही है ! अर्थात ये यम लोक किसी नर्कादि को नहीं कहते ! ये तो हमारे अपने न्याय हेतु गठित प्रतिक्षाधीन न्यायालय की एक पीठिका है। देश,काल,स्थिति और संयोग जन्य जिन-जिन व्यक्तियों और पशु-पक्षि,कृमि और वनस्पतियों का हमारे जीवन में कभी,कहीं, और किसी भी प्रकार से सम्पर्क होता है ! इसका एक अर्थ यह भी है कि उनका पहले भी हमसे सम्बन्ध हुवा था ! और आगे भी होता रहेगा- “न त्वेवाहं जातुनाशं न मे नेमे जनाधिपः।” और तो और एक काँटा भी यदि मुझे आज चुभा है तो निश्चित रूप से मैं भी कभी काँटा बनकर उत्पन्न हुआ होऊँगा और उसे चुभा भी होऊँगा ! तभी तो यजुर्वेद •१२•३६~३९ वीं तक के मंत्रों में कहते हैं कि-
“अप्स्वग्ने सधिष्टव सौषधीरनु रूध्यसे।
गर्भे_सञ्ञायसे_पुनः……..॥”
निःसंदेह मैं मानव,पशु,पक्षी,जल,वनस्पति औषधि आदि नाना योनियों में भ्रमण करता रहता हूँ ! तो मेरे पूर्वज भी करेंगे ही ! मैं आपको कुछ सत्य उदाहरण देता हूँ!!मैं अंधविश्वासी नहीं हूँ !मुझे मुझपर विश्वास है-
मैं किसी अंजान नगर में जाता हूँ,या आप ही जाते हैं ! तो ऐसा लगता है किन्ही किन्ही स्थानों,गलियों में आप कभी आये थे ! कुछ-कुछ जानी पहचानी सी स्मृतियाँ ! किन्ही व्यक्तियों,बच्चों, स्त्रीयों यहाँ तक कि किन्ही पशु और पक्षियों तक से अचानक अपनापन अथवा शत्रुता का बोध होता है ! अर्थात-“गतासून गताशूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ?” और तो और यहीं शोषल मीडिया,प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया पर भी आपकी किसी से शत्रुता और मित्रता होती रहती है।
मुझे स्वयम् की कुछेक पूर्व जन्मों की स्मृतियों का अभी तक बोध है ! कुछेक सम्बन्धों को मैं चाहता न चाहता हुवा भी निभाने को किसी डोर से बंधी कठपुतली की तरह खिंचा चला जाता हूँ !ऋचा में ऋषि कहते हैं कि-“इदं पितृभ्यो नमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो” जो नये पितर चले गये और जो पहले ही जा चुके हैं ! जैसे कि किसी अकस्मात में किसी का निधन हो गया ! उनका शरीर तो पञ्च-तत्वों में मिल गया ! किन्तु जीव कहीं न कहीं गया ! उनकी आधी अधूरी वासनायें रह गयीं। आपने इस शरीर के साथ क्या किया,यजुर्वेद कहता है कि-
“य  निखाता ये परोप्ता ये दग्धा ये चोद्धृताः।”
गाड दिया,जला दिया या जल में प्रवाहित कर दिया ! वो तो मिट्टी से बना था और मिट्टी में ही मिल गया ! किन्तु उस शरीर का स्वामी जीव तो पहले ही निकल गया। किन्तु यहाँ पर एक रहस्मय बात न कहूँ तो गलत होगा ! चलिये ये तो ठीक है कि आपने पितरों को आमंत्रित कर लिया ! वे यमादि लोकों से आ भी गये ! किन्तु जो मर्त्यलोक में पुनर्जन्म ले चुके ! किन्ही भी योनियों में आ चुके वे भी आयेंगे ! वो आपके इस आमंत्रण पे-” कुशा,जल, जौ,तिल,मधु,अक्षत,दूध,धृत,दधि,जल बनकर आयेंगे !,
वे सत्तू,शर्करा,पुष्प,तुलसी,पलाश,सब्जी,फल बनकर आयेंगे !
मित्रों ! वे आपके आमंत्रणपर कौवे,कुत्ते,गाय,चींटी,घून,कृमि, अतिथि, भिक्षुक, पुरोहित बनकर आयेंगे ! जो श्रेष्ठ हैं वे श्रेष्ठ योनियों के शरीर से और जो निर्कृष्ट हैं वे अधमाधम योनियों के शरीर से आयेंगे ! किन्तु-“आयेगे”! मेरे विचार से अभी इस ऋचा का भाव अधूरा है- सूक्त की इस द्वितीय ऋचा के अगले अंक के साथ पुनः उपस्थित होता हूँ!….. .. आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्कांक 6901375971″

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