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पुस्तक समीक्षा

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पुस्तक : आचार्य रामचंद्र शुक्ल स्मृति ग्रंथ
संपादक : डॉ. परमात्मा नाथ द्विवेदी
मूल्य : 895 रुपये
पृष्ठ : 354
प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002
लोकहृदय के प्रतिष्ठापक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
बी. एल. आच्छा
कहते हैं कि आलोचकों की मूर्तियां नहीं बनती। पर दौलतपुर (रायबरेली) के आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी तो अपवाद हैं ही। और साहित्य में लोकहृदय के प्रतिष्ठापक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का व्यक्तित्व तो हिन्दी के हर पाठक में मूर्तिमान है। यह क्या कम है कि ग्राम अगौना जनपद बस्ती (उ.प्र) में सन 1884  में जनमे इस आचार्य की स्मृति मे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी परिषद बस्ती (उ.प्र.) द्वारा 2022 में एक महाग्रंथ का प्रकाशन हुआ है। डॉ. परमात्मा नाथ द्विवेदी के संपादन में प्रकाशित इस महाग्रंथ में शीर्ष विद्वानों के प्रकाशित आलेखों का ऐसा संचयन है, जो शुक्ल-प्रस्थान के सभी परिप्रेक्ष्यों को खंडन-मंडन और तुल्यार्थक विवेचन के साथ निरपेक्ष भाव से मूल्यांकित करता हो।
यों शुक्ल प्रस्थान से पहले आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य को ज्ञान-विज्ञान की धाराओं के साथ किसानों-मजदूरों के जीवन से जोड़ने की दिशा दी थी। उन्होंने हिन्दी आलोचना को टीका पद्धति से निकालकर सामाजिक-सांस्कृतिक संवेदन के साथ नए युग की सामाजिकी से जोड़ा। विश्लेषण पद्धति से अभिवर्धित किया। भाषा के मानकीकरण के साथ आदर्शों और नैतिक मूल्यों को संयोजित किया। इस प्रवर्धित दिशा में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सृजन भूमि के साथ आलोचना की परम्परा को विराट क्षितिज से समृद्ध किया। आचार्य शुक्ल ने अपने प्रस्थान बिन्दु पर इस बीज वाक्य को धुरी बना दिया-” सच्चा कवि वही है, जिसे लोकहृदय की पहचान हो, जो अनेक विशेषताओं और विचित्रताओं के बीच मनुष्य जाति के सामान्य हृदय को देख सके। इसी लोकहृदय में हृदयलीन होने की दशा का नाम रस दशा है।” यही बीज वाक्य रामचरित मानस सके अध्यात्म के बजाय लोकमंगल के सामाजिक धरातल तक आलोचना का मानदण्ड बना। परलोक की धारणा के बजाए प्रकृति के विराट बिम्ब में चरितार्थ हुआ। शुक्ल जी ने रेखांकित किया कि स्वर्ग का मार्ग भी संसार के बीच से होकर जाता है। साहित्य का आनन्द व्यापार अपनी रसात्मक अवधारणा से भावयोग तक आया। साधारणीकरण ने इस भाव योग को आलम्बन धर्म में साक्षात् किया। दर्शन और अध्यात्म के ज्ञानयोग – कर्मयोग के समान साहित्य में भावयोग को समकक्षता से कुछ अधिक मान मिला। पश्चिमी आलोचना और मनोविज्ञान से भारतीय काव्यशास्त्र की भाव-योग, धारणा से जोड़ते हुए हिन्दी आलोचना को एक व्यापक फलक मिला।
इस पुस्तक के विभिन्न खंडों में शुक्लजी के व्यक्तित्व, कृतित्व, आलोचना और अंततः साक्षात्कार के माध्यम से समझने का उपक्रम किया गया है। उल्लेखनीय यह है कि शुक्ल जी की इतिहास विषयक धारणाओं के खंडन या आलोचना की सैद्धांतिकी को व्यावहारिक रूप से  निदर्शित करने वाले आलेखों से एक खुली दृष्टि मिली है। इसी तरह मनोविकार सम्बंधी निबन्धों में भी शुक्ल जी के व्यक्तित्व के अनेक पक्ष उजागर हुए हैं। पश्चिमी आलोचना के व्यक्तिवैचित्र्यवाद पर शुक्लजी की प्रहारक दृष्टि जितनी सजग रही है, उतने ही वे इलियट, रिचर्ड्स और फ्रायडीय मनोविज्ञान के उपादेय पक्षों को आलोचना में समाहित करते गये हैं। बड़ी बात यह है कि हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली अपनी व्याख्यात्मकता से न केवल स्पष्ट होती चली गई है, बल्कि  व्यावहारिक आलोचना की दिशा भी प्रशस्त हुई है। अलबत्ता  शुक्ल-प्रस्थान के आलोचकों ने उनकी इतिहास विषयक धारणाओं’ का खंडन भी किया है और  निजी धारणाओं के कारण न्यायनिष्ठा पर सवाल भी खड़े किये हैं। हिन्दी की  ऐतिहासिक आलोचना के सूत्रपात के साथ पश्चिमी आलोचना के अनुषंगी पक्षों का तात्विक विश्लेषण करते हुए ये आलेख महिमा मंडन के बजाए मूल्यांकन का स्वतंत्र नजरिया रखते हैं।
शुक्ल जी के व्यक्तित्व और परिवेश,प्रकृति के रमणीय दृश्यों में सम्मोहन, सोलह वर्ष की अवस्था में ही लेखकीय प्रतिष्ठा, स्वतंत्रता आंदोलन की राजनीतिक-सामाजिक धाराओं से जुड़ाव, विश्व साहित्य के साथ विज्ञान, दर्शन, इतिहास, मनोविज्ञान समाजशास्त्र और यूरोपीय काव्यशास्त्र के साथ भारतीय काव्यशास्त्र का अध्ययन उन्हें सामंजस्य धरातल पर खड़ा करते हैं; जहां अध्यात्म और विज्ञान, भारतीय और पश्चिमी काव्यशास्त्र शुक्ल जी की व्यावहारिक आलोचना की सैद्धांतिकी बनते जाते हैं। हां, डॉ. शिवनाथ ने उनके आरंभिक जीवन, कद- काठी, शिक्षकीप प्रभाविता, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में उनके कृतित्व की यशस्विता को एक शिष्य के नाते व्यक्त किया है।
आचार्य शुक्ल ने हैकल की पुस्तक ‘द रिडल ऑफ यूनिवर्स’ का अनुवाद किया, ‘विश्व प्रपंच’ शीर्षक से और एक लंबी भूमिका भी लिखी ,जो विज्ञान और दर्शन तक जाती है। एडविन अर्नाल्ड की पुस्तक ‘लाइट ऑफ एशिया’ का छन्दोबद्ध अनुवाद ‘बुद्धचरित’ शीर्षक से किया। राखालदास बन्दोपाध्याय के बांग्ला उपन्यास शशांक का अनुवाद किया। एडिसन के ‘एस्से ऑन इमेजिनेशन’ का अनुवाद किया ‘कल्पना का आनन्द’ शीर्षक से। और ये अनुवाद जितना देश-देशान्तर, सृजन और मूल्यांकन के प्रतिमानों, विज्ञान और अध्यात्म के क्षितिज तथा भारतीय और पश्चिमी आलोचना की योजक दिशा को उनके शुरुआती दौर में ही लक्षित करते हैं। अनुवाद भी आक्षरिक ने होकर भावानुवाद और अपनी वैचारिक भूमिका से समृद्ध है। इन्हीं के बीच से संस्कृति की भारतीय चेतना, लोकमंगल के प्रतिमान और भावयोग से मानव चित्त के साधारणीकरण के आयाम इतिहास  और सृजन-दृष्टि के संकेत देते हैं।
आचार्य शुक्ल का ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ हिन्दी का पहला वैज्ञानिक इतिहास कहा जाता है। मगर इसकी स्थापनाओं को लेकर जितनी व्यापक आशंसा मिली है, तो कुछ आपत्तियां भी। कुंवरपाल सिंह ने लिखा है-“आचार्य शुक्ल की इतिहास दृष्टि ही मूल शक्ति भ्रान्तिहीन साहित्यिक विवेक है।” पर यह कहने के बावजूद डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित ने उन बिन्दुओं को रेखांकित किया है, जो उनकी उपलब्धियां हैं, और इतिहास लेखन की सीमाग्रस्तता भी। उनकी दृष्टि से यह इतिहास विकसनशील ऐतिहासिक आलोचना का सूत्रपात करता है। अपुष्ट कृतियों का निषेध करता है। इतिहास लेखन में तथ्यात्मकता के साथ सृजनात्मक रोचकता है। इतिहास, मूल्यांकन और शास्त्र की मिलीजुली भूमिका है। ऐतिहासिक अभिलेखों के दस्तावेजीकरण की अपेक्षा विवेचन-विश्लेषण प्रधान है। भक्तिकाल को जन प्रवृत्ति का प्रवाह कहना मौलिक दृष्टि है। पश्चिम की आयातित काव्यशास्त्रीय धारणा को सारे विवेचन के बाद हावी नहीं होने दिया है। साहित्येतर धारणाओं से साहित्य का मूल्यांकन करने की दृष्टि को नकारकर साहित्य की स्वायत्तता को स्थापित किया है। पर शोधपरक सर्वेक्षण की प्रवृत्ति का अभाव, प्रगतिवादी आंदोलन की उपेक्षा, भक्ति काल को पराभव की देन मानना, चन्द बरदाई, कबीरदास, केशवदास, विद्यापति, प्रेमचन्द पर अवमूल्यन जैसी स्थापनाएं, तथ्यान्वेषण के बजाय मूल्यांकन पर अधिक जोर, इतिहास में युगों का नामकरण, काव्येतर गद्य विधाओं के साथ समकालीन रचनाकारों पर चलताऊ टिप्पणियां, छायावाद को बांग्ला के माध्यम से आयातित मानना जैसे अनेक बिन्दुओं पर उन्होंने तटस्थ भाव से टिप्पणी की है। इससे शुक्ल जी की भाववादी मान्यताओं के अनुसार रचित साहित्य के साथ रागात्मक पक्षधरता प्रकट होती है। खासकर तुलसी और जायसी के लिए। वे यह कहने में चूकते नहीं है कि “इन कारणों से उनका इतिहास, अन्तिम तो नहीं बन पाया, लेकिन अभूतपूर्व अवश्य है और एक श्रेष्ठ प्रस्थान।” डॉ विद्यानिवास मिश्र ने उनकी आध्यात्मिक दृष्टि  और अंतर्विरोधों को जतलाते हुए कहा है कि ये शुक्लजी के समग्र व्यक्तित्व को छोटा नहीं बनाते। डॉ. युगेश्वर ने भी पुनर्मूल्यांकन में इस विशिष्टता को रेखांकित किया है – “शास्त्रीय विवेचना के साथ वैयक्तिकता का मेल । हास्य-व्यंग्य भावना का योग ।चिंतन और वैयक्तिकता के साथ प्रौढ़ प्रांजल भाषा का यह रूप हिन्दी में विरल है।”
रस और साधारणीकरण संबंधी रामचन्द्र शुक्ल की अवधारणाओं को डॉ रामलखन शुक्ल ने बखूबी विवेचित किया है। भाव योग की कर्म और ज्ञान योग से समकक्षता,जगत्  की अनेकरूपता, मनोविज्ञान या मनोविकारों चित्तवृत्तियां, काव्य के विषय का विशेषत्व, बिम्ब कल्पना, विशिष्ट मूर्ति में उस भाव की साधारण पाठक-दर्शक में आश्रयत्व जैसे अनेक पक्ष हैं। रामचन्द्र शुक्ल ने इसे सूत्र रूप में कहा है- “साधारणीकरण आलम्बनत्व धर्म का होता है।” इसका तात्पर्य यही है कि कवि का जो विशेष है, उस गुण-धर्म की स्थिति पाठक-दर्शक में विद्यमान रहती है। विशेष पात्र में समान धर्म की प्रतिष्ठा के कारण वह विशेष पात्र सभी सहृदयों का आलम्बन हो जाता है। शुक्ल जी बहुत स्पष्टता के साथ लिखते है-” जब तक किसी भाव का कोई विषय इस रूप में नहीं लाया जाता कि वह सामान्यतः सबके उसी भाव का आलम्बन हो सके, तबतक उसमें रसोद्बोधन की पूर्ण शक्ति नहीं आती।इसी रूप में लाया जाना हमारे यहां साधारणीकरण कहा जाता है।”
आचार्य शुक्ल भारतीय काव्यशास्त्र की भावयित्री प्रतिभा के कायल हैं, पर पश्चिमी काव्यशास्त्र से साक्षात्कार करते हुए एक समन्वित आलोचना दृष्टि से जोड़ते हैं। डॉ. सत्यदेव मिश्र की यह टिप्पणी सही है -“साहित्य के मूल प्रश्नों पर विचार करते हुए समय वे शायद ही किसी पाश्चात्य समीक्षक से आतंकित हुए हों।” विकासवाद, मनोविज्ञान, स्वछंदतावादी साहित्य, सदाचार के प्रतिमानों को गहराई से निखारा-पखारा है। उनके सिद्धान्तों का मूल स्रोत यदि भारतीय था तो उनका पल्लवन-पुष्पन पश्चिमी।” इस दृष्टि से वे मूल्यवादी समालोचक रिचर्ड्स के निकट हैं। रिचर्ड्स के मनोविज्ञान में मानव की एषणाओं के उत्तेजन की बात शुक्ल जी के मानव मन की चित्तवृत्तियों के उत्प्रेरण से मेल खाती हैं। रिचर्ड्स के संप्रेषणीयता सिद्धान्त और साधारणीकरण में योजकता को पहचाना जा सकता है। प्रभाववादी समीक्षा के बजाए वैचारिकता को जो बहुमान मिला है,वह इसी काव्यशास्त्र  के विस्तृत होते धरातल का संकेतक है। पर शुक्ल जी ने पश्चिमी आलोचना के अभिव्यंजनावाद , कलावाद आदर्शवाद का खंडन कर किया है। असल में जीवन, प्रकृति और लोकमूल्यों को उन्होंने प्रतिष्ठित किया, आलोचना के चमत्कार-मूल्यों का खण्डन किया। डॉ. सियाराम तिवारी ने पश्चिम की ‘नई आलोचना (न्यू क्रिटिसिज्म) परिप्रेक्ष्य में शुक्ल जी की आलोचना दृष्टि के साम्य और भिन्नता को विश्लेषित किया है।
इस संग्रह में कई आलेख शुक्ल जी की प्रतिभा के विराट क्षितिज के परिचायक हैं। आचार्य शुक्ल का वेदान्त मार्ग, शुक्लजी का कवि रूप, अनुवादक रूप, भाषा-दृष्टि, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी और शुक्लजी का विशेषतः छायावाद को लेकर दृष्टि वैभिन्य, सांस्कृतिक आलोचक के रूप में शुक्ल, शुक्ल-परवर्ती आलोचना, शुक्लजी का काव्यालोचन, गद्य की सत्ता का आकलन, शुक्ल जी का पारिभाषिक शब्दकार, प्रगतिशील समीक्षा और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे अनेक विषय तात्त्विक विश्लेषण और वस्तुपरक या तुलनात्मक  समन्वयी दृष्टि से प्रभावी हैं। पर शुक्ल जी के मनोविकार से संबंधी निबंधों से चर्चा किये बगैर बात अधूरी रह जाएगी। इनमें शुक्ल जी का भावलोक, समाज दर्शन, मनोविज्ञान, वैज्ञानिक दृष्टि, विश्लेषण की सूक्ष्मता, सूत्रबद्धता और व्याख्या, व्यंग्य और हास्य, शैलीगत नवीनता, वैचारिक गंभीरता, स्वच्छन्द विचरण, नैतिक प्रतिमानों का उदात्त  रूप जैसे अनेक तत्त्व हैं, जो इतिहासकार-आलोचक से सर्वथा अलग एक व्यक्ति-व्यंजक निबंधकार के रूप में उनके व्यक्तित्व को दर्शाते हैं। इनमें शास्त्रीय तत्त्वचिंतन नहीं है,पर व्यावहारिक मनोविज्ञान और समाज- दर्शन प्रत्यक्ष है। इनमें समास शैली की ऐसी सूत्रबद्धता है, जिसे वे व्यास शैली में खोलते चले जाते हैं। समास और व्यास या सूत्र और व्याख्या शैली  की जुगलबंदी में समाजदर्शन और मनोवैज्ञानिक वृत्तियाँ स्वच्छंद, व्यक्तित्व के साथ पाठक को बाँधे रखती हैं। डॉ.विजयेन्द्र स्नातक उनकी निबंध शैली और वैचारिक प्रवाह को व्याख्यायित  किया है।
यों आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पर अनेक ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं। परवर्ती आलोचना में आचार्य शुक्ल की विचारणाओं की उपादेयता और सीमाओं का मूल्यांकन हुआ है। पर शुक्लजी ने साहित्य के केन्द्र में जीवन को रखा। मनुष्य की चित्तवृत्तियों की समानता के आधार पर लोकहृदय को लक्षित किया। अध्यात्म के बजाए प्रकृति ही रमणीयता में उसे उदात्त बनाया। साहित्य की इतिहास दृष्टि की वैज्ञानिक और साहित्यिक प्रवृत्ति लक्षित दृष्टि को केन्द्रीय बताया। भारतीय काव्यशास्त्र का पुनराविष्कार करते हुए रसात्मक प्रतिमान, भावयित्री प्रतिभा, ‘चित्तवृत्तियों की समानता के कारण साधारणीकरण और पश्चिमी काव्यशास्त्र के योजक तत्वों, का आलोचना में सन्निवेश कर हिन्दी आलोचना को नया घरातल दिया। इस पुस्तक संकलित सभी  निबंध ऐसे विद्वानों के हैं, जो अपने समय के ख्यात आलोचक रहे हैं। इसलिए विषयगत विश्लेषण में गंभीर पारदर्शिता और मूल्यांकन में पारवेधी वस्तुपरकता है। निश्चय ही यह पुस्तक रामचन्द्र शुक्ल जीवन और अवदान का समग्र परिचय देती है।
(लेखक प्रख्यात साहित्यकार एवं समालोचक हैं।)

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