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पूर्वोत्तर का भक्ति साहित्य और भारतीय दर्शन’ विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी प्रारंभ 

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शिलांग 4 मार्च: भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली एवं हिंदी विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय, सूर्यमणिनगर के संयुक्त तत्वावधान में ‘पूर्वोत्तर का भक्ति साहित्य और भारतीय दर्शन’ विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन आज दिनांक 4 मार्च 2022 को हुआ। उद्घाटन सत्र में सबसे पहले मंचस्थ अतिथियों ने दीप प्रज्वलन करके कार्यक्रम का शुभारंभ किया तत्पश्चात विश्वविद्यालय के कुलगीत का गायन किया गया। इसके बाद मंच पर उपस्थित अतिथियों का पारंपरिक स्वागत किया गया। संगोष्ठी के संयोजक प्रोफेसर विनोद कुमार मिश्र, अधिष्ठाता, साहित्य संकाय व अध्यक्ष, हिंदी विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय ने सभी अतिथियों का स्वागत किया। इस सत्र में बीज वक्ता के रूप में उपस्थित प्रोफेसर कृष्ण कुमार सिंह, संकायाध्यक्ष, अनुवाद एवं निर्वाचन विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदू विश्वविद्यालय, वर्धा ने भक्ति के अखिल भारतीय प्रभाव को व्याख्यायित करते हुए बताया की भक्ति संपूर्ण भारतीय समाज को जोड़ने का कार्य करती है। भक्ति के मूल में एकात्मता की स्थापना है। भक्त कवि चाहे दक्षिण भारत का हो या पूर्वोत्तर का हो या मध्य भारत का सब भारत को एकता के सूत्र में स्थापित करने का कार्य कर रहे थे। उन्होंने तमिल साहित्य से लेकर असमिया साहित्य में मौजूद भक्ति के तत्व और उसके उद्देश्य को ठीक ढंग से वर्णित किया। मुख्य वक्ता के रूप में उपस्थित और भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद से पर्यवेक्षक के रूप में उपस्थित प्रो. अंबिकादत्त शर्मा, वरिष्ठ आचार्य, दर्शन विभाग, डॉक्टर हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर ने अपने वक्तव्य भक्ति के दार्शनिक पक्ष को वर्णित किया। यह भी बताया कि भक्ति के दो स्वरूप उपस्थित हैं- धर्ममय और योगमय। उन्होंने बताया कि भक्ति मानवीय सर्जना की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है। मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित प्रोफेसर योगेश प्रताप सिंह, कुलपति, राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, त्रिपुरा ने न्यायपालिका के भीतर दर्शन और न्याय व्यवस्था में दर्शन की महत्ता को वर्णित किया। उन्होंने बताया कि जब-जब न्यायपालिका किसी शब्द अथवा केस को लेकर हतप्रभ की स्थिति में आती है तो वह अपने पुराने ग्रन्थों का सहारा लेती है। वहीं से अपने मंतव्य को व्याख्यायित करती है। विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित डॉ. दीपक शर्मा, कुलसचिव, त्रिपुरा विश्वविद्यालय ने भक्ति आंदोलन को पहला राष्ट्रीय और स्वदेशी आंदोलन बताया। उन्होंने बताय कि भक्ति की यूरोप केन्द्रित व्याख्या मान्य नहीं हो सकती है। भारत में कभी दासप्रथा नहीं रही है और न ही सामंतवाद रहा है जिससे मुक्ति के रूप में भक्ति काव्य को व्याख्यायित किया जाए। सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो. रामेश्वर मिश्र, पूर्व अध्यक्ष, हिंदी विभाग, विश्वभारती शांतिनिकेतन, बोलपुर ने भक्ति आंदोलन को व्याख्यायित करने के दौरान लोक और शास्त्र के बीच मौजूद गैप को प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि भक्ति आंदोलन लोक को अभिव्यक्त करता है वह शास्त्र की हिमायत नहीं करता है। मंच का संचालन डॉ. ऐश्वर्या झा ने किया और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. काली चरण झा ने किया। इस अवसर पर सैकड़ों की संख्या में शोधार्थी/ विद्यार्थी मौजूद रहे। इसके अलावा त्रिपुरा विश्वविद्यालय के शैक्षणिक और गैरशैक्षणिक सदस्य उपस्थित रहे साथ ही महाविद्यालयों से आने वाले शिक्षक और छात्रों की उपस्थित अच्छी रही। उद्घाटन सत्र के अलावा अन्य दो अकादमिक सत्र भी आयोजित हुए जिसमें वक्ता के रूप में प्रो. दिनेश चौबे, डॉ. आशुतोष कुमार, डॉ. अमरेन्द्र त्रिपाठी, प्रो. दिलीप मेधी, प्रो. हितेन्द्र मिश्र, प्रो. सत्यपाल शर्मा, डॉ. अरुण कुमार पाण्डेय उपस्थित रहे। मंच का संचालन डॉ. आलोक कुमार पाण्डेय ने किया।

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