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भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली एवं हिंदी विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय, सूर्यमणिनगर के संयुक्त तत्वावधान में ‘पूर्वोत्तर का भक्ति साहित्य और भारतीय दर्शन’ विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन आज दिनांक 5 मार्च 2022 को हुआ। संपूर्ति सत्र के पहले आयोजित दो अकादमिक सत्रों में विषय विशेषज्ञ के रूप में पधारे प्रो. हितेंद्र कुमार मिश्र, प्रो. अखिलेश कुमार राय, प्रो. जैनेन्द्र कुमार पाण्डेय, डॉ. सत्यदेव मिश्र और डॉ. विश्व बंधु का व्याख्यान हुआ। प्रो. हितेंद्र कुमार मिश्र ने भक्ति साहित्य को वर्णित करने क्रम में इस बात पर बल दिया कि भक्ति के सूत्र वैदिक ऋचाओं में मौजूद है। प्रो. अखिलेश कुमार राय ने दक्षिण भारत के भक्ति आंदोलन से उत्तर भारत और पूर्वोत्तर भारत के भक्ति आंदोलन को जोड़ा। उन्होंने यह भी कहा कि जो बात दक्षिण के भक्त कह रहे थे वही बात उत्तर भारत के भक्त कवि भी कह रहे थे। प्रो. जैनेन्द्र कुमार पाण्डेय ने भक्ति साहित्य को विवेचित करने के क्रम में यह बताया कि आज का युग स्मृतिभ्रंश के साथ कृत्रिम मेधा का भी है। ऐसे दौर में अपनी परंपरा को याद करना अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य है। उन्होंने बताया कि भारतीय दर्शन का प्रभाव न केवल भारतीय कवियों पर पड़ा बल्कि पाश्चात्य लेखकों (टी एस इलियट और डब्ल्यू. बी. यीट्स) पर भी पड़ा। उन्होंने बताया कि जिस प्रकार श्रीमद्भागवत गीत में श्रीकृष्ण स्त्री, शूद्र और पाप योनि में पैदा हुए लोगों को भी अपने धर्म में शामिल करने और उन्हें मुक्ति प्रदान करने की बात करते हैं ठीक उसी प्रकार शंकरदेव भी अनेक लोगों को अपने भीतर शामिल करने की बात करते हैं। डॉ. सत्यदेव मिश्र ने कहा कि राम सगुण हों या निर्गुण हों वे अंततः राम हैं। आज का भारत राममय भारत है। डॉ. विश्वबंधु ने कहा कि पूर्वोत्तर के भक्त कवियों ने अपने चिंतन में हमेशा मानुष सत्य को स्थापित किया है। एक सत्र की अध्यक्षता प्रो. अंबिकादत्त शर्मा ने की और दूसरे सत्र की अध्यक्षता प्रो. दिनेश कुमार चौबे ने की।
संपूर्ति सत्र में सर्वप्रथम मंचस्थ और मंचाभिमुख अतिथियों का स्वागत प्रो. विनोद कुमार मिश्र, संगोष्ठी संयोजक व अध्यक्ष, हिंदी विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय ने किया। उन्होंने विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. गंगाप्रसाद प्रसाईं के उदार व्यक्तित्व और मैत्री स्वभाव की प्रशंसा की। डॉ. आलोक कुमार पाण्डेय, हिंदी विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय ने दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी की आख्या प्रस्तुत की। उन्होंने सभी सत्रों का क्रमवार विवेचन प्रस्तुत करने के क्रम में यह बताया कि उद्घाटन सत्र और संपूर्ति सत्र के अलावा चार अकादमिक सत्र और दो समानांतर सत्र आयोजित किए गए। इसमें कुल 40 वक्ताओं ने प्रतिभाग किया। सैकड़ों की संख्या में उपस्थित श्रोताओं ने वक्ताओं को प्रोत्साहित किया। भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद से पर्यवेक्षक के रूप में पधारे प्रो. अंबिकादत्त शर्मा ने अपने उद्बोधन में ICPR से प्राप्त होने वाले अनेक प्रकार के अनुदान का सविस्तार विवेचन किया और शोधार्थियों को आवेदन के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने यह भी कहा कि यह संगोष्ठी अंतिम पड़ाव नहीं बल्कि भारत केन्द्रित चिंतन की शुरुआत है। यह आश्वासन दिया कि इस तरह के आयोजन के लिए उनकी संस्था इसी तरह आगे भी आर्थिक सहयोग प्रदान करेगी। प्रो. दिनेश कुमार चौबे ने अपने वक्तव्य में यह कहा कि इस तरह का आयोजन पूर्वोत्तर के सभी विश्वविद्यालयों में होना चाहिए। सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो. कृष्ण कुमार सिंह ने इस बात पर बल दिया कि यह संगोष्ठी न केवल सफल रही बल्कि सार्थक भी रही है। अंत में धन्यवाद ज्ञापन डॉ. मनोज कुमार मौर्य ने किया तथा मंच का संचालन डॉ. काली चरण झा ने किया।