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प्रतिष्ठित साहित्यकार मिथिलेश भट्टाचार्य एक संस्मरण — मीता दास पुरकायस्थ

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“मृत्यु कोई अंत नहीं,
वह केवल जीवन के दूसरे सुर में प्रवेश है।”
— रवींद्रनाथ ठाकुर

अचानक जैसे आकाश का सीना फट गया और उसने एक नक्षत्र को अपने में समा लिया — 20 अक्टूबर 2025 की रात।
आकाश और उज्जवल हो उठा, पर शिलचर की एक प्रकाशमयी किरण चुपचाप बुझ गई —
चले गए पूर्वोत्तर भारत के प्रमुख कहानीकार और संपादक मिथिलेश भट्टाचार्य

खबर सुनते ही कानों में गूंज उठा उनका मृदुल स्वर, फोन पर हमेशा मुस्कुराते हुए कहते,
“मीता, एक दिन आओ, बराक उपत्यका और बाहरी बराक के साहित्य पर खूब देर तक बातें होंगी।”
कैसे चले जा सकते हैं वे इतनी जल्दी! उम्र हुई थी, फिर भी हमारे लिए उनकी जरूरत थी अपार।

“Every story ends,
but not the storyteller.”

उनका जन्म 23 फरवरी 1946 को हुआ।
1967 में “अनिश” पत्रिका में उनकी पहली कहानी प्रकाशित हुई — और वहीं से शुरू हुआ उनका साहित्यिक सफर।
इसके बाद चार दशकों से अधिक समय तक उन्होंने बांग्लादेश, पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर भारत की असंख्य पत्रिकाओं में लगातार लिखा।

मिथिलेश भट्टाचार्य की कहानियों में बहती थी नदी जैसी जीवनधारा —
मजदूरों का मौन दुख, पेड़ों के पत्तों जैसी निःशब्द आत्माएं।
सरल भाषा, पर गहरी संवेदना।
उनकी लेखनी आम लोगों के हृदय की धड़कनों का अनुवाद थी।

“जिनके प्राण में सृजन का प्रकाश होता है,
उनकी मृत्यु भी उजाला फैलाती है।”

— हुमायूं आज़ाद

उनकी संपादित पत्रिका ‘परंपरा’ बराक उपत्यका की एक महत्वपूर्ण साहित्यिक धारा थी।
‘परंपरा’ के हर अंक में झलकती थी विचारों की स्वच्छता, गद्य की सुंदरता, और मनुष्य को समझने की ललक।
उन्होंने मुझे भी लिखने को कहा था, पर मैं शायद अपनी ही उपेक्षा या आलस्य में कभी नहीं भेज पाई।
शायद आत्मविश्वास की कमी ही जिम्मेदार थी।

उन्होंने जीवनानंद दास की 125वीं जयंती पर विशेष अंक प्रकाशित कर
साहित्य के प्रति अपने गहरे उत्तरदायित्व को जीवंत कर दिया था।
मुझे वह अंक भेजकर बोले थे,
“पढ़कर बताना, कैसा लगा। अगले अंक के लिए भी कुछ लिखना।”
उनका वह स्नेहमय स्वर आज भी कानों में गूंजता है।

मेरे और मिथिलेश दा के बीच संपर्क था घनिष्ठ और सतत।
अक्सर फोन पर बात होती थी।
वे ‘दिगंतिका’ के नियमित लेखक थे — हर अंक में पूरे उत्साह से लिखते थे।
कहते, “तुम्हारी पत्रिका मुझे मिलती है तो बहुत अच्छा लगता है, मीता।
तुम्हारे काम की सही कद्र नहीं हुई है।”

फिर थोड़ा रुककर कहते,
“तुम बहुत अच्छा काम कर रही हो, लोग जानें ये जरूरी है।”

वे कहते, “जब भी पश्चिम बंगाल के साहित्यिक या संपादकीय जगत के किसी व्यक्ति से बात होती है,
मैं तुम्हारा नाम जरूर लेता हूँ —
कहता हूँ, ‘आप लोगों के यहाँ एक मीता दास पुरकायस्थ हैं — असाधारण काम कर रही हैं।’”
उनका यह स्नेह, यह अपनापन — मेरे लिए आशीर्वाद बन गया।

वे ‘बराकेर नोतुन दिगंत’ के भी नियमित पाठक थे।
हर अंक की खबर रखते, मेरे हर प्रयास में प्रोत्साहन देते।
कहते, “तुम अकेले जो कर रही हो, वह बहुत बड़ा काम है।
तुम बहुत ऊर्जावान और मेहनती हो। मैं तुम्हारे साथ हूँ।”

“To live in hearts we leave behind
is not to die.”

— थॉमस कैंपबेल

अक्सर कहते, “एक दिन समय निकालकर आओ, खूब बातें होंगी।”
कहते, “अपनी किताबें और ‘दिगंतिका’ लेकर आना।”
मैं हर बार कहती, “ज़रूर जाऊँगी, दादा।”

अंत में तय हुआ था कि कवि आशुतोष दास के साथ जाऊँगी उनके घर।
पर समय के निर्दयी प्रवाह में वह हो न सका।
दुर्गा पूजा की व्यस्तता, माँ की बीमारी — सब मिलकर उस इच्छा को अधूरा छोड़ गए।
सोचा था दीवाली के बाद जाऊँगी,
पर दीवाली की रोशनी में ही बुझ गया उनके जीवन का दीप।

अब फोन के उस पार उनकी आवाज़ नहीं —
सिर्फ स्मृति बनकर सान्त्वना देती है,
“मीता, ठीक हो ना?”

उन्होंने कहा था कि उनके मित्र डॉ. तपोधीर भट्टाचार्य सर ने
उन्हें मेरे साहित्यिक काम के बारे में बताया था।
वे बोले थे —
“मनुष्य मरता नहीं, उसकी स्मृतियाँ जीवित रहती हैं
प्रेम में, वाक्य की छाया में।”
— जीवनानंद दास

मिथिलेश भट्टाचार्य बराक उपत्यका के कथासाहित्य के एक पीढ़ीनायक थे।
वे जानते थे — कहानी केवल मनोरंजन नहीं,
बल्कि जीवन को समझने और मनुष्य को जानने का माध्यम है।
उनकी रचनाओं में था नदी, आकाश, पेड़, खेत, पसीना, दुख और प्रेम —
जो हमारी मिट्टी की गंध में रचे-बसे यथार्थ को अमर बना देते थे।

वे थे विनम्र, सौम्य, अदम्य —
प्रांतीय फिर भी सर्वव्यापी।
उनकी भाषा थी बादलों से ढके भोर की तरह — कोमल, अव्यक्त,
जीवन से एकाकार।

अब वे फोन पर नहीं कहेंगे —
“मीता, भेजा है, कहानी कैसी लगी?”
उनकी भेजी कई रचनाएँ अब भी मेरे पास हैं,
जो आगे प्रकाशित होंगी — पर वे देख नहीं पाए।
पहले डाक से भेजते थे, बाद में मैंने कहा PDF भेजने को —
मैंने सिखाया कैसे भेजना है।

उनकी लेखनी, उनका स्नेह, उनका आशीर्वाद
रह गया है मेरे हर काम के पीछे, हर शब्द के भीतर।

मिथिलेश भट्टाचार्य हमें छोड़कर चले गए,
पर उनकी कहानियाँ, उनकी हँसी, उनका ऊर्जस्वी स्वर
अब भी हवाओं में तैरता है।
वे अब किसी अज्ञात देश में हैं,
पर अपनी रोशनी यहाँ भी फैला रहे हैं —
हमारी मिट्टी में, हमारे कागज़ पर, हमारे हृदय में।

हाल ही में कवयित्री, छंदकार और कहानीकार अर्चना दास
और कवि आशुतोष दास की पुस्तकों के
‘नতুন दिगंत प्रकाशनी’ से प्रकाशित होने की खबर सुनते ही
उन्होंने वे दोनों पुस्तकें मुझसे माँगी थीं।
विशेषकर अर्चना के बारे में वे बार-बार पूछते थे,
मेरी प्रशंसा सुनकर जानना चाहते थे उसके बारे में।
17 सितंबर को ‘नতুন दिगंत प्रकाशनी’ के पुस्तक-प्रकाशन समारोह में
वे आमंत्रित थे, पर निजी कारणों से नहीं जा सके।
बच्चों के लिए अर्चना की लिखी पुस्तक
मेरे अनुरोध पर अर्चना ने उन्हें भेज भी दी थी।
उन्होंने कहा था — “मैं उस पर लेख लिखूँगा,
तुम पश्चिम बंगाल के किसी अखबार में भेज देना।”

“Death is not the opposite of life,
but a part of it.”

— हरुकी मुराकामी

श्रद्धा और प्रणाम, मिथिलेश दा।
आप हमेशा रहेंगे —
बांग्ला कहानी साहित्य में,
हर ‘दिगंतिका’ के पन्नों में।
‘नতুন दिगंत प्रकाशनी’ और उसके सभी अंग
आपको नतमस्तक श्रद्धा और स्नेह अर्पित करते हैं।

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