जब जब कोई संस्था निष्क्रिय होती है तब तब समाज में बगावत के सुर उबरना, मौन विरोध, सपष्ट विरोध एवं षड्यंत्र के साथ विरोध होना स्वाभाविक है। ऐसा समाज में होना घातक होने के बावजूद लोगों में जागरुकता आती है। ऐसे भी लोग होते हैं जो चंदा भी देते हैं, समाज के निमंत्रण पर ऐन वक्त पर जाकर सपरिवार भोजन करके ऐसे लौट आते हैं कि किसी रेस्टोरेंट में स्वादिष्ट व्यंजन का आनंद लेने गए। उन्हें ना तो कोई समाज व्यक्ति एवं कार्यक्रम से कुछ लेनादेना नहीं होता सिर्फ शर्म से चंदा देकर बंदा सपरिवार जाकर इतिश्री कर लेता है। संख्या के आधार पर शहर में उतनी ही संस्था होनी चाहिए जितनी जरूरत होती है लेकिन हर साल अनेक प्रतिष्ठित संस्थानों की नयी नयी ईकाइयों का गठन होता है उसमें लगभग अपने ही सदस्य अपने ही समाज के पदाधिकारियों को तरजीह दी जाती है जिससे समाज में उपेक्षा एवं विरोध शुरू हो जाता है। धन संग्रह करना आजकल कोई मुश्किल काम नहीं होता लेकिन समाज पर बोझ पङता है। स्थानीय लोगों के आंखों की किरकिरी बनने से एक दिन कभी भी कहीं भी अप्रिय घटना हो सकती है।संस्थानों के नाम से अथवा नाम बदलकर कुप्रयास समाज में अफरातफरी मचा देता है इसलिए नामों के चक्कर नहीं पङकर अधिकाधिक काम करें। सेवा समितियों में जनकल्याण के काम करने चाहिए। कल्ब एवं टृस्ट किसी उद्देश्य के लिए बनाए जाते हैं उनके नियमानुसार धन संग्रह के बङे बङे कार्यक्रम करने से लोग आकर्षित हो सकते हैं। ताजुब तब होता है जब पढेलिखे, प्रतिष्ठित लोग लीक से हटकर काम करने वाले लोगों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से बढावा देते हैं। समाज कहीं जरूरी तो कहीं मजबूरी में खुन पसीने से कमाई गयी राशि बहुरूपियों को देते हैं जो कभी धर्म के नाम पर कभी सामाजिक कभी सांस्कृतिक तो कभी मनोरंजन के नाम से गली गली में घुमते है। इसलिए बढती संस्था एवं निष्क्रिय संस्था दोनों ही समाज पर बोझ बन जाती है इसका समाधान वरिष्ठ एवं प्रतिष्ठित बंधुओं को आज नहीं तो कल करना ही होगा।





















