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आज एक बार फिर बराक उपत्यका आंदोलित है। असम विश्वविद्यालय को लेकर प्रोफेसर प्रशांत चक्रवर्ती की विवादास्पद टिप्पणी ने बराक की आत्मा को गहरी चोट दी है। इस अपमानजनक बयान के खिलाफ छात्र, पूर्व छात्र, नागरिक और भाषा प्रेमी समाज एक स्वर में विरोध कर रहे हैं। सोशल मीडिया से लेकर सड़कों तक—हर जगह गूंज रहा है आक्रोश, उठ रही है जवाबदेही की माँग।
यह विरोध निस्संदेह ज़रूरी और न्यायोचित है।
लेकिन सवाल उठता है—क्या यह विरोध वास्तव में न्याय और सिद्धांत के प्रति हमारी प्रतिबद्धता है, या फिर यह केवल एक व्यक्ति-केन्द्रित, चयनित नैतिक चेतना की प्रतिक्रिया है?
जिस प्रोफेसर के बयान पर इतना आक्रोश उमड़ पड़ा है, वैसा ही एक घातक प्रहार पहले भी हुआ था बराक की अस्मिता पर—असम विधानसभा के भीतर से।
उस वक्त राज्य के एक प्रभावशाली नेता और मंत्री **चंद्रमोहन पटवारी ने खुले तौर पर कहा था:
भाषा शहीद तो पुलिस की गोली से मारे गए कुछ सामान्य लोग मात्र थे।
जब यह बयान बराक की आत्मा को तार-तार कर गया था, तब कहां था यह आक्रोश?
कहां था यह प्रतिकार, ये मीलों लंबी रैलियाँ? कहां थे वे युवा जो आज इतनी तेज आवाज में बोल रहे हैं?
तब बहुतों ने अपने राजनीतिक झुकाव और पसंद की पार्टी के नेता के खिलाफ बोलने से परहेज़ किया था।
यही तो मूल प्रश्न है—क्या हम “चयनित विरोध” की संस्कृति के आदि हो चुके हैं?
जब दोषी हमारे पसंद की सीमा के बाहर होता है, तब विरोध ज़ोरदार। लेकिन जब वही अपराध अपने गली-मोहल्ले या दल से जुड़ा होता है, तब हम चुप रहते हैं?
यही चुप्पी ही तो बार-बार हमारे गौरव को चोट पहुँचाने का अवसर देती रही है।
कभी भाषा शहीदों के बलिदान को नज़रअंदाज़ किया गया, कभी इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा गया, तो कभी बराक की अस्मिता को ही नीचा दिखाया गया।
जिस प्रोफेसर के खिलाफ आज जनसमूह मुखर है, उनके खिलाफ विरोध ज़रूरी है
लेकिन उतना ही ज़रूरी है कि यह विरोध सीमाओं से परे हो।
जो भी इस क्षेत्र की गरिमा को ठेस पहुँचाए—चाहे वह किसी भी विचारधारा या पद से जुड़ा हो—उसके खिलाफ एक स्वर में खड़ा होना होगा।
यही है बराक का असली इतिहास, यही है भाषा शहीदों की कुर्बानी की सच्ची विरासत।
अगर हम केवल पसंद या नापसंद के आधार पर सच को नजरअंदाज करते रहेंगे, तो एक दिन इतिहास हमें उसकी कीमत ज़रूर दिखाएगा।
जो आज प्रोफेसर के खिलाफ बोल रहे हैं, यदि वे तब चंद्रमोहन पटवारी के उस अपमानजनक बयान के खिलाफ खड़े हुए होते, तो शायद आज कोई और इस भूमि का अपमान करने की हिम्मत न करता।
लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हम अब भी “चयनित विरोधकर्ता” बने हुए हैं।
फिर भी अभी समय है—आइए, हम एक न्यायसंगत, निष्पक्ष और इतिहास-सम्मत प्रतिरोध की रेखा खींचें।
वरना विनाश की आहट अब दूर नहीं।
राजू दास, शिलचर





















