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बराक उपत्यका में चाय उद्योग और चाय जनगोष्ठी का इतिहास- दिलीप कुमार

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असम में चाय उद्योग के 200 वर्ष पूर्ति का कार्यक्रम असम सरकार करने जा रही हैं। असम में चाय के पौधे का खोज 1823 में हुआ किंतु चाय बागान 1835 में सदिया में शुरू हुआ। बराक घाटी में 24 साल बाद अर्थात 1855 में प्रयोगात्मक रूप से शिलचर के नजदीक वर्षांगन में चाय की खेती शुरू की गई। जो बाद में कटहल चाय बागान और वर्तमान में बजरंग की स्टेट के नाम से जाना जाता है। एसजी विलियमसन एंड कंपनी ने चाय बागान का शुभारंभ किया। वर्षांगन के साथ ही चेनकुड़ी और इस्तालपुर (मधुरा) में भी चाय बागान शुरू हुआ। विलियमसन ज्यादा दिन चलाने नहीं सके और मैसर्स एमसी लियोड एंड कंपनी को चाय बागान बिक्री करके काछाड़ से चले गए।

बाद में लंदन के मेयर लॉर्ड इनसेप ने एमसी नेल एंड कंपनी को काछाड़ में चाय बागान शुरू करने का निर्देश दिया। इसके बाद इस कंपनी में शिलचर के उत्तर में बराक नदी के उस पार दुधपातिल में चाय बागान शुरू किया। दूधपातिल के दूरबीनटीला, कन्हाईकुड़ी, मूलीदार क्षेत्र में चाय बागान शुरू करने के बाद इसका नामकरण किया गया दूधपातिल टी कंपनी। मेयर लॉर्ड इनसेप के आर्थिक बैकिंग के बल पर एमसी नेल एंड कंपनी ने कई स्थानों पर चाय बनाने की शुरुआत की। काछाड़ अर्थात वर्तमान बराकवैली में चाय बनाने की पहली फैक्ट्री दूधपातिल में स्थापित हुई।

अंग्रेज मालिकों के अलावा भी आर्थिक रूप से समृद्ध अनेक भारतीयों ने भी विभिन्न स्थानों पर चाय बागान लगाना शुरू किया। बैकुंठ चंद्रगुप्त, दीनानाथ दत्ता एवं अब्दुल रहमान बर्भुइया ने बर्नारपुर और रहमान नगर में दो चाय बागानों की स्थापना की। स्थानीय चाय बागान मालिकों को अंग्रेज मालिकों द्वारा विभिन्न प्रकार से परेशान किया जाने लगा। जैसे उनका श्रमिक लेकर चले जाना, नाला बंद कर देना जैसे उत्पीड़न से भी स्थानीय बागान मालिकों की उन्नति को अंग्रेज बागान मालिक रोकने नहीं सके।

चाय बागान शुरू होने के साथ ही श्रमिकों की समस्या उत्पन्न हुई। इसके लिए बागान मालिकों ने दलाल तैयार किया जो कमीशन लेकर वर्तमान के बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश आदि क्षेत्रों से लोगों को लोभ- लालच देकर काम के लिए काछाड़ लाने लगे। यहां आने के बाद उनसे गुलामों की तरह काम लिया जाने लगा। उनके रहने-खाने, पेयजल, चिकित्सा आदि की भी कोई समुचित व्यवस्था नहीं थी। लोग जंगली जानवरों के हमले में, सांप के काटने से और विभिन्न संक्रामक बीमारियों से मरने लगे। परेशान होकर श्रमिको ने पलायन शुरू किया। लेकिन भागना भी आसान नहीं था क्योंकि उस समय यातायात के साधन अत्यंत सीमित थे। चाय बागान के श्रमिकों को एक बागान से दूसरे बागान में भी आने-जाने पर प्रतिबंध था।

अंग्रेज बागान मालिकों के जुल्म और अत्याचार की एक घटना से 1920 में पूरे काछाड़ में आक्रोश फैल गया। 25 मई 1920 को खरील (कड़ियल)चाय बागान किड्स सहायक मैनेजर विलियम लेमन रीड ने श्रमिक हीरा ग्वालिन को को प्रस्ताव दिया, जिसमें हीरा ने इंकार कर दिया। इसके 1 सप्ताह बाद लेमन रीड रात को 10:00 बजे के बाद हीरा के घर गया, हीरा की मां तारामनि ने पुत्र नेपाल को पिता गंगाधर ग्वाला को बुलाने के लिए भेजा। गंगाधर ग्वाला के आते ही असिस्टेंट मैनेजर विलियम लेमन रीड ने रिवाल्वर से गोली चला दी। जिसमें गंगाधर ग्वाला और नेपाल बुरी तरह घायल हुए और बाद में गंगाधर ग्वाला का देहांत हो गया। कोर्ट में मुकदमा चला किंतु ब्रिटिश प्रशासन से प्रभावित अदालत में रीड बेकसूर घोषित हो गया। इसी प्रकार की विभिन्न घटनाओं शोषण और अत्याचार से क्षुब्ध श्रमिक धीरे-धीरे संगठित होने लगे। चारों तरफ गोपनीय बैठके और चर्चाएं होने लगी, आंदोलन का वातावरण तैयार हो गया।

21 मई 1921 को चरगोला और लंगाई वैली के हजारों श्रमिकों ने काम का बहिष्कार करके “मुलुक चलो” आंदोलन किया था। ‌ श्रमिकों को रोकने में विफल अंग्रेजों ने कई स्थानों पर फायरिंग करके बड़ी संख्या में श्रमिकों को मौत के घाट उतार दिया। लोग कहते हैं कि पदमा नदी का पानी श्रमिकों के खून से लाल हो गया था। जालियांवाला बाग कांड से भयंकर इस हत्याकांड की इतिहास में उतनी चर्चा नहीं हुई, जितनी होनी चाहिए थी। स्वाधीनता संग्राम में चाय जनगोष्ठी के लोगों ने भी बढ़-चढ़कर के भाग लिया किंतु इतिहास में उसकी पर्याप्त चर्चा नहीं हुई।

स्रोत: स्वर्गीय सनत कुमार कोईरी द्वारा लिखित बांग्ला पुस्तक चा श्रमिक यूनियनेर इतिहास और समय-समय पर हिंदी दैनिक समाचार पत्र प्रेरणा भारती में प्रकाशित लेखों से।

लेखक: दिलीप कुमार
पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता
प्रेरणा भारती कटहल रोड, शिलचर, असम
मोबाइल: 94350 71848
ईमेल: preranabharati@gmail.com

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