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19 मई, भाषा शहीद दिवस पर शिलचर में आयोजित एक चर्चा सभा में एक विवादित टिप्पणी सामने आई, जिसने बराक घाटी के इतिहास और भावनाओं को झकझोर कर रख दिया है। इस कार्यक्रम में एक बंगाली संगठन के शीर्ष नेता और गुवाहाटी विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर को आमंत्रित किया गया था। भाषा शहीदों की स्मृति में आयोजित इस कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि असम विश्वविद्यालय असम समझौते का परिणाम है! और इसके साथ ही विश्वविद्यालय में असमिया भाषा विभाग खोलने की मांग की, जो स्पष्ट रूप से बराक घाटी के लोगों और उनके जन-आंदोलन को छोटा करने की एक उद्देश्यपूर्ण कोशिश थी।
इस टिप्पणी ने बराक घाटी के कई लोगों के दिलों में गहरी नाराज़गी और असंतोष पैदा कर दिया है। क्योंकि यह न सिर्फ एक ऐतिहासिक गलती है, बल्कि इस क्षेत्र के संघर्ष के इतिहास को तुच्छ दिखाने का प्रयास भी है।
शहर के वरिष्ठ पत्रकार प्रणबानंद दास महाशय ने पहले ही सोशल मीडिया पर उस वक्ता को याद दिलाते हुए लिखा है— विश्वविद्यालय की स्थापना किसी राजनीतिक समझौते का परिणाम नहीं थी। यह बराक घाटी के लंबे समय तक चले जन-आंदोलन की सफलता थी, जिसकी प्रेरणा 19 मई 1961 के भाषा शहीदों का बलिदान था। उसी चेतना से बराक के लोगों को अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने की प्रेरणा और साहस मिला, और उसी चेतना की धारा में विश्वविद्यालय आंदोलन खड़ा हुआ।
अक्सर दावा किया जाता है कि असम विश्वविद्यालय में असमिया भाषा नहीं पढ़ाई जाती। वास्तव में, विश्वविद्यालय के दीफू कैंपस में कई साल पहले ही असमिया विभाग शुरू हो चुका है। इसलिए, यह आरोप तथ्यहीन है।
उधर, यह भी स्पष्ट हो गया है कि वक्ता ने यह बातें अचानक नहीं कही थीं। उन्होंने अगले दिन सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में सर्वानंद सोनोवाल के एक बयान का हवाला देकर फिर से वही दावा दोहराया। स्वाभाविक ही है कि अब यह सवाल उठता है— क्या किसी क्षेत्रीय जन आंदोलन के इतिहास को किसी राजनेता के बयान के आधार पर ढँका जा सकता है?
बराक घाटी के लोग अपना इतिहास जानते हैं। वे जानते हैं कि कैसे रक्त, बलिदान और वर्षों के आंदोलन के ज़रिए यह विश्वविद्यालय स्थापित हुआ। इसलिए कोई बाहरी स्वघोषित बुद्धिजीवी आकर उन्हें उस इतिहास का पाठ नहीं पढ़ा सकता— खासकर 19 मई जैसे पवित्र दिन पर।
उक्त कार्यक्रम में वक्ता ने असम आंदोलन के शहीदों को याद किया, लेकिन 1961 के पहले और बाद में ब्रह्मपुत्र घाटी में बंगालियों पर हुए विभीषिकापूर्ण हमलों की घटनाओं को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया। उस क्रूरता, दंगे और उत्पीड़न की स्मृति आज भी बराक के लोगों के मन में अमिट है। उसे भुलाया नहीं जा सकता।
इन सभी बातों के आलोक में विश्वविद्यालय प्रशासन से एक स्वाभाविक सवाल उठता है— 19 मई जैसे महत्वपूर्ण दिन, भाषा शहीदों की स्मृति में, ऐसे व्यक्ति को कैसे आमंत्रित किया गया, ? क्या बराक या ब्रह्मपुत्र घाटी में ऐसे कोई बंगाली शिक्षाविद नहीं थे जो अधिक संवेदनशील और ऐतिहासिक रूप से सटीक वक्तव्य दे सकते?
बराक घाटी के लोग हमेशा समन्वय चाहते हैं। लेकिन वह समन्वय इतिहास को विकृत करके नहीं हो सकता। बराक के लोग शांत हैं, सहनशील हैं, लेकिन आत्मसम्मानहीन नहीं। भाषा के लिए उनके बलिदान इतिहास के पन्नों पर खून से लिखा गया है। उस इतिहास को मिटाया नहीं जा सकता। बल्कि ऐसी कोशिशें भविष्य में और अधिक प्रतिरोध को जन्म देंगी।
अंत में वक्ता की जानकारी के लिए बस इतना ही— बराक देख रहा है, सुन रहा है, याद रख रहा है और आवश्यकता पड़ने पर फिर से जवाब देगा— शांत, दृढ़ और संकल्प के साथ। बराक के लोगों की नसों में आंदोलन और प्रतिरोध की भावना अब भी जीवित और जाग्रत है। इसलिए सावधान…
राजू दास, शिलचर।




















