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बराक चाय श्रमिक यूनियन के 75वें वर्षगांठ समारोह पर महासचिव राजदीप ग्वाला का प्रतिवेदन 

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बराक चाय-श्रमिक यूनियन: 75 वर्षों की संघर्ष और उपलब्धियों की गौरवगाथा

बराक चाय श्रमिक यूनियन के 75वें वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित हीरक जयंती समारोह में उपस्थित अतिथियों, बराक घाटी के विभिन्न चाय बागानों से आए कार्यकारी और जनरल काउंसिल के सदस्यों, बागान पंचायत प्रतिनिधियों एवं सभी चाय श्रमिकों को बराक चाय श्रमिक यूनियन की ओर से हार्दिक स्वागत और अभिनंदन करते हुए महासचिव राजदीप ग्वाला ने अपने प्रतिवेदन में विस्तार से यूनियन के इतिहास पर प्रकाश डाला।

उन्होंने कहा कि आप सभी अवगत हैं कि बराक घाटी में चाय बागान की स्थापना को लगभग 170 वर्ष पूरे हो चुके हैं। इस क्षेत्र में स्थापित पहला चाय बागान 1855-56 में शिलचर शहर के निकट वर्षांगन चाय बागान था। उस समय स्थानीय मजदूर चाय उत्पादन के अनुकूल नहीं माने गए, जिसके कारण विभिन्न राज्यों जैसे पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, आंध्र प्रदेश आदि से अनुबंधित मजदूरों को छल-कपट से लाकर चाय बागानों में काम पर लगाया गया। अंग्रेज मालिकों ने इन मजदूरों से दासों की भांति कठिन परिश्रम कराया। उस समय मजदूरों के लिए न तो रहने की उचित व्यवस्था थी, न ही भोजन, स्वास्थ्य, पीने के पानी और चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध थीं, जिससे हजारों मजदूरों की मृत्यु हो गई। इसके अलावा, जंगली जानवरों के हमले और स्थानीय पहाड़ी जनजातियों के आक्रमणों के कारण भी बहुत श्रमिकों ने अपनी जान गंवाई।

चरगोला एक्सोडस’ या ‘मूलुक चलो’ आंदोलन (1921)

अत्यधिक शोषण और अत्याचार से तंग आकर 1921 में चरगोला एक्सोडस या मूलुक चलो आंदोलन हुआ। चरगोला और लोंगाई घाटी के लगभग 30,000 चाय श्रमिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करते हुए अपने मूल स्थानों को लौटने का प्रयास किया। अंग्रेज चाय मालिकों ने उन्हें जबरन रोका, जिसके परिणामस्वरूप हजारों श्रमिक मारे गए। इसी अन्याय और शोषण से बचाव हेतु कुछ समाजसेवियों ने चाय श्रमिकों के लिए संगठन बनाने का प्रयास किया। इनमें प्रमुख थे गंगादयाल दीक्षित, देवशरण त्रिपाठी, राधाकृष्ण पांडेय, रामप्रसाद चौबे आदि।

चाय मजदूरों के संघर्ष के अग्रणी योद्धा

चाय मजदूरों के अधिकारों और न्याय के लिए संघर्ष करने वाले नेताओं में शामिल थे:

काछार क्षेत्र: पिलुवा रविदास, नंद ग्वाला, भीखू दास, नंदकुमार सोनार, उमेश दास, रामलगन सिंह, विषयी कानू, गोराचंद कुर्मी, पीतांबर कुर्मी, मालाई सोनार, रघुनंदन रविदास, रामचरण कुर्मी, आमिर मिया, बालगोविंद भर, लक्ष्मण नुनिया, जीवन माझी, तापसी पासी, बद्रीनाथ सोनार, तूफानी हजाम, हरगंगा ग्वाला, निकुंज दास, रामकमल सिंह, ऐलनपुर के गोपी कानू, बड़जालेंगा के रामनारायण ग्वाला, दर्बी के नवीन संथाल, रहमाननगर के निमाई री।

चरगोला घाटी: गोपाली सोनार, रामकृष्ण तैली, रामअवतार बर्मा, कांताप्रसाद राय, जय नारायण जायसवाल, भागीरथी चौबे, हनुमान राय, चंद्रदेव त्रिपाठी, सीताराम कानू, रामकिशुन तैली, सुखदेव राय, ब्रजमल ग्वाला, बुधन कोइरी।

उधारबंद क्षेत्र: केरा ग्वाला, फेकू राम कानू, गरीब ग्वाला, लालू कर्मकार।

लखीपुर क्षेत्र: खीरधर भुइंया।

लोंगाई घाटी: विद्याधर त्रिपाठी, शिवप्रसाद राय, सुरेश तिवारी, रामनाथ पांडे, मदन मोहन उपाध्याय, कुमार कानू, रामशकल सरदार, महावीर सरदार, बालगोविंद कोइरी, राधा सिंह, महादेव ग्वाला, मनरूप काहार, बुधई कोइरी, बनशल रविदास, लाला छोड़ा के दीपचंद सोनार, बालाछड़ा के महादेव बारेटा।

काटलीछड़ा क्षेत्र: बसंत मिश्रा, रामचंद्र कलवार, शंभुदयाल बर्मा, अंजन उपाध्याय आदि।

इसके अतिरिक्त, कई स्थानीय नेता भी चाय श्रमिकों के संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे, जैसे अरुण कुमार चंद, काछार केसरी सनत कुमार दास, अचिंत्य भट्टाचार्य, दिगेन पुरकायस्थ, महितोष पुरकायस्थ, मृणाल कांति दासगुप्ता आदि।

चाय मजदूर संगठनों का विकास

चाय मजदूरों के ट्रेड यूनियन की नींव 1946 में पड़ी, जब सुरमा घाटी चा श्रमिक कांग्रेस और सुरमा घाटी चा श्रमिक यूनियन नामक दो यूनियन बनीं।

सुरमा घाटी चा श्रमिक संघ के अध्यक्ष जीवन संथाल (विधायक) और महासचिव महितोष पुरकायस्थ थे।

सुरमा घाटी चा श्रमिक यूनियन के अध्यक्ष रवींद्रनाथ आदित्य (विधायक) और महासचिव सुरेश चंद्र देव थे।

1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद इन दोनों संगठनों को एक करने का निर्णय लिया गया और इसका नाम सुरमा घाटी चा श्रमिक यूनियन रखा गया। बाद में, विभाजन के कारण अधिकांश हिस्सा पाकिस्तान में चला गया, जिसके बाद श्रीहट्ट जिला चाय श्रमिक यूनियन बनाई गई।

काछार चा श्रमिक यूनियन का गठन (1950)

5 अक्टूबर 1947 को शिलचर नगर निगम कार्यालय में उपेन्द्रशंकर दत्त की अध्यक्षता में बैठक हुई, जिसमें सुरमा घाटी चा श्रमिक कांग्रेस यूनियन को कछार जिला शाखा बनाया गया। लेकिन कालांतर में इसका अस्तित्व समाप्त हो गया, जिसके बाद एक नया संगठन गठित करने की योजना बनी।
1950 में, 1 जनवरी को परश चंद्र चौधरी, रामप्रसाद चौबे, द्वारिकानाथ तिवारी, महितोष पुरकायस्थ, गौरीशंकर राय, विद्याधर त्रिपाठी आदि नेताओं ने मिलकर कछार चा श्रमिक यूनियन का गठन किया।

अध्यक्ष: परश चंद्र चौधरी

उपाध्यक्ष एवं कोषाध्यक्ष: रामप्रसाद चौबे

महासचिव: द्वारिकानाथ तिवारी

बराक चा-श्रमिक यूनियन की स्थापना के बाद 9 जनवरी को इसे ट्रेड यूनियन अधिनियम के तहत सरकारी पंजीकरण प्राप्त हुआ, जिसका नंबर 156 है। जब काछार जिले के अंतर्गत करीमगंज और हाइलाकांदी को अलग-अलग जिले के रूप में स्थापित किया गया, तब कछार चा-श्रमिक यूनियन का नाम बदलकर बराक चा-श्रमिक यूनियन कर दिया गया।

अध्यक्षों, उपाध्यक्षों और सचिवों की सूची

पिछले 75 वर्षों में, इस यूनियन के अध्यक्ष पद पर कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने कार्य किया, जिनमें प्रमुख रूप से रामप्रसाद चौबे, गौरीशंकर राय, विश्वनाथ उपाध्याय, जयनाथ राय और राधेश्याम उपाध्याय शामिल रहे।
उपाध्यक्षों में हरीकिशोर तंत्रबाय, रामदेव मालाह, दीननाथ बारई, चंद्रदेव सिंह, महाबल कोइरी, अर्जुन रविदास, भुवन प्रसाद शील, ननी गोपाल भट्टाचार्य और शिव नारायण राय का नाम उल्लेखनीय है।
महासचिव के रूप में द्वारिकानाथ तिवारी, जगन्नाथ सिंह, दिनेश प्रसाद ग्वाला और अजीत सिंह ने कार्यभार संभाला, जबकि कार्यकारी महासचिव तारकदास राय रहे।

वर्तमान कार्यकारिणी समिति

वर्तमान में यूनियन के पदाधिकारियों में शामिल हैं:

अध्यक्ष: कृपानाथ मल्लाह

कार्यकारी अध्यक्ष: अजीत सिंह

उपाध्यक्ष: राधेश्याम कोइरी, शिवपूजन रविदास

महासचिव: राजदीप ग्वाला

सहायक महासचिव: सनातन मिश्रा, रवि नुनिया, क्षीरोद कर्मकार, बिपुल कुमारी, बाबुल नारायण कानू

संपादक: सुरेश बड़ाइक

सह-संपादक: दुर्गेश कुर्मी

75 वर्षों में यूनियन की प्रमुख उपलब्धियाँ

1952-53: चाय उद्योग में संकट और श्रमिक छंटनी

1952-53 में बराक घाटी में चाय उद्योग भारी संकट में आ गया, जिसके कारण करीब 8,000 चाय श्रमिकों की छंटनी कर दी गई। यूनियन ने गुवाहाटी में औद्योगिक न्यायाधिकरण (इंडस्ट्रियल ट्रिब्यूनल) में मामला दायर किया, जिसके परिणामस्वरूप कई श्रमिकों को न्याय मिला।

1958: राशन कटौती के खिलाफ कानूनी लड़ाई

1958 में चाय बागान प्रबंधन ने श्रमिकों के राशन में कटौती कर दी। यूनियन ने इसके खिलाफ मुकदमा दायर किया, जो सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा। अंततः श्रमिकों को उनके हक का राशन मिला।

1958: मजदूरों के समर्थन में आमरण अनशन

7 अक्टूबर 1958 को यूनियन के महासचिव और सांसद द्वारिकानाथ तिवारी ने सुल्तानी और चेंकुरी बागान में बंद पड़े काम के विरोध में आमरण अनशन किया। मुख्यमंत्री विमला प्रसाद चालिहा, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और असम के श्रम मंत्री की अपील पर उन्होंने 12 अक्टूबर को चेंकुरी और 15 अक्टूबर को सुल्तानी बागान में दोबारा काम शुरू होने पर अनशन समाप्त किया।

1959: श्रमिकों की संख्या कम करने का विरोध

मैकलिन बेरी कंपनी ने श्रमिकों की संख्या कम करने की योजना बनाई, जिसका यूनियन ने तीव्र विरोध किया। 220 चाय बागानों के 2,000 से अधिक श्रमिकों ने शिलचर में विशाल प्रदर्शन किया।

1961: शिलचर मेडिकल कॉलेज और अन्य संस्थानों की माँग

8 जनवरी 1961 को यूनियन ने शिलचर मेडिकल कॉलेज की माँग को लेकर विशाल जनसभा का आयोजन किया। महासचिव द्वारिकानाथ तिवारी ने इस अवसर पर इंजीनियरिंग कॉलेज, पॉलिटेक्निक, कृषि विश्वविद्यालय, असम विश्वविद्यालय और आयुर्वेदिक कॉलेज की स्थापना की माँग भी उठाई।

1961: मजदूरी वृद्धि की माँग

30 मई 1961 को यूनियन ने बराक घाटी के सभी चाय बागानों में मजदूरी वृद्धि की माँग को लेकर हड़ताल आयोजित की।

1961: 19 मई को भाषा शहीदों को श्रद्धांजलि और विरोध प्रदर्शन

19 मई 1961 को पुलिस फायरिंग में 11 भाषा शहीदों की मृत्यु के विरोध में यूनियन ने असम विधानसभा में तीव्र विरोध दर्ज कराया। बंगाली भाषा को अधिकार दिलाने की माँग पर यूनियन के विधायकों ने विधानसभा से इस्तीफा दे दिया।

1961: मजदूरी वृद्धि के लिए हड़ताल

27 दिसंबर 1961 को सभी चाय बागानों में मजदूरी वृद्धि की माँग को लेकर यूनियन ने हड़ताल का आह्वान किया।

1964: सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा जीतकर श्रमिकों को पूरा वेतन दिलाया

मैकलिन बेरी कंपनी के खिलाफ यूनियन ने सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ा और 11,000 श्रमिकों को 45 दिनों की पूरी मजदूरी दिलवाई।

1964: बोनस भुगतान का संघर्ष

चाय बागान प्रबंधन 1964 का बोनस देने में टालमटोल कर रहा था। 12-13 अप्रैल 1967 को शिलॉन्ग में हुई बोनस उपसमिति की बैठक में यूनियन के सहायक महासचिव तारकदास राय ने हिस्सा लिया। सरकार ने आदेश दिया कि 30 सितंबर तक बोनस भुगतान किया जाए।

1964: चाय मजदूरों की मजदूरी में वृद्धि

8 मई 1964 को यूनियन के प्रयासों से चाय मजदूरों की मजदूरी में वृद्धि हुई, जिसे 1 जुलाई 1964 से लागू किया गया। पुरुषों और महिलाओं को समान वेतन देने का प्रावधान किया गया।

1965: असम विधानसभा में “बाहरी लोगों” के मुद्दे पर चर्चा

यूनियन के अध्यक्ष रामप्रसाद चौबे ने असम विधानसभा में बाहरी लोगों से जुड़े मुद्दे पर चर्चा की और श्रमिकों के हितों की रक्षा की।

1965: भारत-पाक युद्ध में यूनियन का योगदान

भारत-पाक युद्ध के बाद भारत सरकार ने राष्ट्रीय रक्षा कोष स्थापित किया। यूनियन ने कछार जिले के प्रत्येक चाय श्रमिक से एक दिन की मजदूरी दान करने की अपील की, जिससे 75,000 रुपये एकत्र किए गए।

बराक चा श्रमिक यूनियन का इतिहास संघर्ष, आत्मसम्मान और श्रमिक अधिकारों की रक्षा के लिए किए गए सतत प्रयासों का प्रतीक है। इस यूनियन ने चाय श्रमिकों के कल्याण के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं, जिससे श्रमिकों के जीवन स्तर में सुधार हुआ और उनके अधिकारों की रक्षा हुई।

संघर्ष और उपलब्धियाँ:

गांधी भवन की स्थापना (1966):
8 फरवरी 1966 को महात्मा गांधी के जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर शिलचर में गांधी भवन की आधारशिला असम के तत्कालीन राज्यपाल विष्णु सहाय ने रखी। इस अवसर पर कछार चाय श्रमिक यूनियन के प्रमुख नेता भी उपस्थित थे।

राशन में कटौती के खिलाफ हड़ताल (1967):
22 मई 1967 को बागान मालिकों द्वारा श्रमिकों के राशन में कटौती के खिलाफ यूनियन ने सभी बागानों में हड़ताल का आह्वान किया, जिसमें सभी चाय श्रमिकों ने भाग लिया।

खरिल चाय बागान का संघर्ष (1967):
20 जून 1967 को खरिल चाय बागान के श्रमिक अपनी विभिन्न मांगों को लेकर हड़ताल पर चले गए। दो महीने के संघर्ष के बाद कछार चाय श्रमिक यूनियन की मध्यस्थता से समाधान निकाला गया।

प्रोविडेंट फंड और पेंशन योजना (1967):
2 अक्टूबर 1967 को चाय श्रमिकों को प्रोविडेंट फंड, बीमा और सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन का लाभ दिया गया, जो उनके लिए एक नए युग की शुरुआत थी।

असम सरकार द्वारा चाय श्रमिकों को बाहरी बताने पर विरोध (1968):
असम के तत्कालीन राजस्व मंत्री महेंद्र मोहन चौधरी ने चाय श्रमिकों को बाहरी कहकर संबोधित किया, जिसे लेकर कछार चाय श्रमिक यूनियन की 15वीं वार्षिक सभा में इसका कड़ा विरोध किया गया।

भूमिहीन श्रमिकों को भूमि आवंटन की मांग (1968):
असम में अतिरिक्त भूमि के वितरण के दौरान, यूनियन ने बेरोजगार एवं विस्थापित चाय श्रमिकों के लिए भूमि आवंटन की मांग उठाई।

शिलचर मेडिकल कॉलेज की स्थापना (1968):
15 अगस्त 1968 को शिलचर मेडिकल कॉलेज का उद्घाटन हुआ, जिसमें यूनियन के तत्कालीन महासचिव व विधायक जगन्नाथ सिंह ने श्रमिकों को इसमें रोजगार देने की मांग रखी।

चाय बागान पंचायतों का गठन (1968):
श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए चाय बागानों में पंचायतों का गठन किया गया। 36वें अधिवेशन में यह निर्णय लिया गया कि इन पंचायतों का चुनाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया से होगा।

असम पंचायती कानून में चाय बागानों को शामिल करना (1972):
कछार चाय श्रमिक यूनियन और बराक चा युवा कल्याण समिति के प्रयासों से चाय बागान क्षेत्रों को असम के पंचायती कानून में शामिल किया गया।

भाषा आंदोलन में श्रमिकों का समर्थन (1973):
11 जनवरी 1973 को भाषा अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमलों और अत्याचारों के विरोध में चाय श्रमिकों ने हड़ताल की और बराक घाटी में चल रहे भाषा आंदोलन को समर्थन दिया।

छात्रावास और श्रमिक विश्राम गृह की स्थापना (1978):
22 दिसंबर 1978 को असम के श्रम मंत्री जगन्नाथ सिंह की अध्यक्षता में बैठक हुई, जिसमें शिलचर, डिब्रूगढ़ और तेजपुर में छात्रावास निर्माण तथा मेडिकल कॉलेज के मरीजों के परिजनों के लिए विश्राम गृह बनाने का निर्णय लिया गया। इसके तहत बाद में शिलचर में श्रमिक छात्रावास एवं श्रमिक गेस्ट हाउस बनाए गए।

सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग (1984):
25 अगस्त 1984 को यूनियन ने सरकारी नौकरियों में चाय जनजाति के युवाओं के लिए आरक्षण की मांग की, जिसे बाद में असम सरकार ने स्वीकार किया।

चाय जनजातियों की उपेक्षा के खिलाफ प्रस्ताव (1984):
असम सरकार द्वारा जारी सूची में बराक घाटी के कई चाय जनजातियों के उपनामों को शामिल न करने पर यूनियन ने कड़ा विरोध दर्ज किया और उन्हें शामिल करने की मांग उठाई।

बराक चाय लोकसंस्कृति सम्मेलन (2000):
25 मार्च 2000 को बराक चा श्रमिक यूनियन और बराक चा युवा कल्याण समिति के संयुक्त प्रयास से “बराक चाय लोकसंस्कृति सम्मेलन” आयोजित किया गया। यह सम्मेलन बराक घाटी में पहली बार आयोजित किया गया था।

राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) में चाय श्रमिकों की पहचान (2018-2019):
असम सरकार द्वारा एनआरसी लागू करने के दौरान, बराक चाय श्रमिक यूनियन ने चाय श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा की। यूनियन के प्रयासों से सुप्रीम कोर्ट ने चाय श्रमिकों को “मूल निवासी” (Original Inhabitant) का दर्जा दिया, जिससे हजारों श्रमिकों को विदेशी करार दिए जाने से बचाया गया।

मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व शर्मा के साथ बैठक (2021):
अक्टूबर 2021 में मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व शर्मा की उपस्थिति में आयोजित बैठक में यूनियन ने चाय जनजातियों की समस्याओं को हल करने की मांग उठाई। इसके परिणामस्वरूप मेडिकल कॉलेजों में सीट आरक्षित की गई और सरकारी नौकरियों में 3% आरक्षण प्रदान किया गया।

चाय मजदूरों के हक में निरंतर संघर्ष:
यूनियन ने कई चाय बागानों को फिर से शुरू करवाने में भूमिका निभाई, जिसमें पाथिनी, बैठाखाल, हाथिखीरा, दिलखुश, आयनाखाल और सिपनजुरी प्रमुख हैं।

श्रमिक शिक्षा और छात्रवृत्ति:
यूनियन के महासचिव दिनेश प्रसाद ग्वाला के नेतृत्व में हर वर्ष माध्यमिक और उच्च माध्यमिक परीक्षा में उत्तीर्ण मेधावी छात्रों को सम्मानित करने की परंपरा शुरू की गई, जो आज भी जारी है।

शिक्षा में आरक्षण:
यूनियन के प्रयासों से असम सरकार ने मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज और आईटीआई में चाय जनजाति के छात्रों के लिए सीटें आरक्षित कीं।

सांस्कृतिक पहचान का संरक्षण:
मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व शर्मा के सहयोग से हाल ही में गुवाहाटी में “झुमुर नृत्य महोत्सव” आयोजित किया गया, जिसमें बराक घाटी के 300 से अधिक कलाकारों ने भाग लिया।
श्रमिक एकता जिंदाबाद! जय हिंद!
राजदीप ग्वाला 
महासचिव, हिरक जयंती समारोह आयोजन समिति
बराक चा श्रमिक यूनियन

निष्कर्ष

बराक चा-श्रमिक यूनियन ने पिछले 75 वर्षों में चाय श्रमिकों के अधिकारों, वेतन वृद्धि, राशन, बोनस, स्वास्थ्य सुविधाओं और शिक्षा के लिए कई ऐतिहासिक आंदोलन किए। यूनियन की बदौलत आज चाय मजदूरों को उनके हक और न्याय की गारंटी मिली है।

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