2 अक्टूबर 2023 को बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना की रिपोर्ट जारी करते हुए यह बताया कि बिहार में मात्र 0.60 प्रतिशत है । इस आंकड़े के आने के साथ ही बिहार के कायस्थ राजनेताओं में हड़कंप मच गया पटना जैसे शहर में 5 लाख कायस्थ होने का दावा करने वाले कायस्थ नेताओं के नीचे से जमीन निकल गई । यह आंकड़ा सही है या गलत, इसका पटना के तथाकथित कायस्थ राजनेताओं की राजनीति पर क्या असर होगा ? इसकी चर्चा बाद में करेंगे इससे पहले यह समझते हैं कि आखिर बिहार में 1.20 प्रतिशत की जनसंख्या वाले कायस्थ समाज का 0.60% हो जाना संभव है या नहीं ।
कायस्थ बिहार में कभी भी एक बहुसंख्यक जाति नहीं रही है किंतु आजादी से पहले ब्रिटिश काल में कायस्थों की सरकारी पदों पर 54% दावेदारी थी । ब्रिटिश काल खत्म होने के बाद भी यह लोग 35 फ़ीसदी पदों पर अपनी दावेदारी जताते रहे किंतु 70 के दशक में जेपी के उभार के बाद कायस्थ अपने मूल से हटकर भ्रमित होकर जातीय राजनीति की ओर देखने लगा । वहीं अन्य जातियों ने पढ़ाई और राजनीति में अपना स्थान लगातार बनाए रखा जिसके कारण वर्तमान में यह 5% पर सिमट कर रह गए हैं ।
बिहार की राजनीति को समझने वाले जानते हैं कि बिहार में भूमिहार और कायस्थ दोनों की जातीय महत्वाकांक्षाएं बहुत रही । आजादी से पहले बिहार में लगभग 9000 कायस्थ जमींदार थे किंतु उनके मुकाबले भूमिहार लगभग 35000 से उसके अलावा राजपूत 30000 और ब्राह्मण 19000 थे ।
ऐसे में कायस्थों की जमींदारी और उनका पढ़ा लिखा होना दोनों ही उनको बिहार की राजनीति में प्रासंगिक बनाता रहा बिहार की राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण फैक्टर रहे सच्चिदानंद सिन्हा की पहल पर ही बिहार को अलग राज्य का दर्जा मिला और उन्हीं की जमीन पर संसद भवन बना साथ ही उनकी लाइब्रेरी को पटना की राजकीय लाइब्रेरी भी माना । प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के विरोध के बाबजूद बिहार से ही आने वाले डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने । किंतु उनके बनने में इनकी जातीय योग्यता की जगह इनके कर्मों की योग्यता महत्वपूर्ण रही और यह बात आने वाले समय में कायस्थों को याद नहीं रही।
सच्चिदानंद सिन्हा भी संविधान समिति के प्रारंभिक सदस्यों में थे ऐसे में बिहार में कायस्थों का दबदबा कायम रहा और इस दबदबे ने भूमिहार के साथ एक अघोषित लड़ाई भी बना दिया। बिहार में कहा जाता है कि जिस गांव में भूमिहार रहता है उसे गांव में लाला नहीं होता और जहां लाला होगा वहां भूमिहार नहीं होता।
बिहार की राजनीतिक फसल में श्री कृष्ण सिंह को शीर्ष पर बनाए रखने के लिए सहजानंद सरस्वती जैसे भूमिहारों के संगठन किसान महासभा का समर्थन रहा इसको ऐसे भी समझ लीजिए कि उनके प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले राजपूत अनुग्रह नारायण सिंह के दबदबे को साधने के लिए भूमिहार किसानों के नेता दबाव लेन देन पर रहे । किंतु कायस्थ समाज की इससे राजनीति से अलग रही । जमीदार होने के बावजूद कायस्थ अपने समाजवादी स्वभाव के लिए जाना जाता है वह कभी भी अन्य जातियों की तरह क्रूर और सामंती नहीं रहा ।
1957 में कायस्थ नेता के बी सहाय और भूमिहार महेश प्रसाद सिन्हा की हार के बाद श्री कृष्ण सिंह ने महेश प्रसाद सिंह को खादी बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया किंतु सहाय को कुछ नहीं बनाया । जिसके कारण 1957 में जेपी नारायण ने बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्री कृष्णा सिंह पर भूमिहार राज चलाने का आरोप लगाया जेपी ने तब के मुख्यमंत्री को पत्र में लिखा यू हैव टर्न्ड बिहार इन भूमिहार राज, इस पत्र से बौखलाए श्री कृष्ण सिंह ने उन्हें बेहद तीखा लिखते हुए कहा यू आर गाइडेड बाय कदम कुआं ब्रेन ट्रस्ट ।
स्मरण रहे पटना में यही कदम कुआं कायस्थों का गढ़ कहा जाता था । यही से संभ्रांत कहे जाने बुद्धिजीवी समाज की राजनीति चलती रही । यह लड़ाई के बी सहाय से शुरू होकर शत्रुघ्न सिन्हा तक चलती रही । सीपी ठाकुर की दावेदारी के सामने कायस्थों को लगातार पीछे किया जाता रहा । वाजपेई सरकार में शत्रुघ्न सिन्हा को इसी लड़ाई में पीछे हटना पड़ा और अपना मंत्रालय छोड़ना पड़ा।
स्वतंत्रता के बाद बेहतर कल की तलाश और बाद में लालू राज में कायस्थों का पलायन
अपने आरंभिक समय में ब्रिटिश काल में 54% सरकारी पदों पर कागज कायस्थ हमेशा से स्वयं को सवर्ण राजनीति का पुरोधा मानते रहे और 1921 में अंबेडकर के दलित आवाहन में शामिल नहीं हुए। ऐसे में बिहार में कायस्थों के राजनीति के स्वर्ण राजनीति में निचले पायदान पर रही किंतु प्रासंगिक रही क्योंकि शहरी जिलों में कायस्थों की संख्या बहुतायात में थी। आजादी के बाद जब जमीदारों का पलायन भारत के अन्य शहरों में होना शुरू हुआ तो वह लगातार बढ़ता चला गया और लालू राज में गरीब कायस्थ का पलायन बिहार से भारत के अन्य भागों में होता चला गया । पूरे बिहार में कायस्थों की पुरानी हवेलियों और जमीनों को कब किसने कब्जा कर लिया इसका कोई जिक्र नहीं होता ।
दीघा आशियाना कॉलोनी में रहने वाले कई कायस्थों ने लालू राज में आरोप लगाए कि भूरा बाल साफ करो के उस दौर में ऐसा गुंडाराज था कि कायस्थों को उनके घरों से सामान समेट छोड़कर जाने को कह दिया गया। ऐसे में पटना समेत पूरे बिहार में कायस्थों का एक बड़ा वर्ग पलायन कर अन्य राज्यों और विदेशों में बस चुका है यहां सिर्फ संपत्ति को संभालने वाले कुछ लोग बचे ।
2010 में उभरे कायस्थ नेताओ ने बढ़ाया जनसंख्या का बुलबुला
पटना लोकसभा में शत्रुघ्न सिन्हा और 3 विधानसभाओं पर कायस्थ नेताओं की राजनीति के अंत का आरंभ हो चुका था ऐसे में पटना में उद्योगपति से बने राजनेता बने आर के सिन्हा और राजीव रंजन जैसे नेताओं ने बिहार में कायस्थों की राजनीति पर दाव खेलना शुरू कर दिया ।
महत्वपूर्ण ये भी है दोनों ही राजनेता जमीदार बैकग्राउंड से नहीं आते थे । ऐसे में उनके लिए जाति की राजनीति के आधार पर खुद को प्रोजेक्ट करना महत्वपूर्ण रहा । दोनों ने अपने-अपने तरीके से अखिल भारतीय कायस्थ महासभा के साथ प्रयोग किया और 2014 में आरके सिन्हा बीजेपी से राज्यसभा सांसद बन गए । यह राज्यसभा सांसद का पद उन्हें जाति के आधार पर नहीं मिला था । किंतु आरके सिन्हा ने इस राज्यसभा सांसद बनने के मौके को लोकसभा में बदलने की पूरी तैयारी कर ली । कहते है तमाम कोशिशों के बाबजूद भाजपा की बिहार राजनीति में शत्रुघ्न सिन्हा के रिप्लेसमेंट के तौर पर आरके सिन्हा कभी वह स्थान नहीं पा सके। उनके बदले भाजपा ने रविशंकर प्रसाद को पटना से टिकट देकर जातीय संतुलन को सुनिश्चित किया गया ।
कहा जाता है कि 2019 के चुनाव में सुशील मोदी ने भाजपा की बैठक में कायस्थों के 5 लाख के दावे को नकारते हुए कहा कि महज 2 लाख का पटना में है और यहां भाजपा के टिकट पर आदमी जीतता है ।
पन्ना प्रमुख और बूथ को मैनेज करने वाली पार्टी के महत्वपूर्ण नेता का यह बयान कायस्थों के लिए आंखें खोलने वाला होना चाहिए था किंतु भाजपा की लहर में जीते रवि शंकर प्रसाद कभी खुद को कायस्थ कहलाने में शर्म महसूस करते रहे तो आरके सिन्हा ने राज्यसभा के रिपीट ना होने पर 2020 में सक्रिय राजनीति को अलविदा कह दिया।
ऐसा नहीं है कि आरके सिन्हा को भाजपा से संबंधों की कीमत का उचित परिणाम नही मिला । फर्क सिर्फ इतना रहा कि भाजपा ने उन्हें व्यवसाय में आगे बढ़ने दिया तो बदले में उनके पुत्र ऋतुराज को केंद्रीय कार्यकारिणी में स्थान दे दिया। वही जनता दल यूनाइटेड की राजनीति में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते राजीव रंजन भी कायस्थ के नाम पर कुछ नहीं कर पाए नीतीश कुमार ने दीघा से उन्हें एक बार टिकट दिया और उसकी हार के बाद ही समझ लिया कि इनको प्रवक्ता के पद से आगे महत्व नहीं देना है । राजीव रंजन की हार ने दीघा में कायस्थों के दावे को धराशाई कर दिया और राजीव रंजन ने इसका सारा दोष तब के भाजपा सांसद आरके सिन्हा पर मढ दिया । परिणाम यह है कि आज पटना में कायस्थ समाज एक सांसद दो विधायकों के साथ समाज अपनी राजनीति का आखिरी सोपान पड़ रहा है
कायस्थ की जनगणना गलत या सही ?
इस पूरे कथा के अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या वाकई जातीय जनगणना को लेकर उठ रहे के समाज के प्रश्न सही है ?
क्या 1.20 प्रतिशत से 0.60 प्रतिशत पर आना कायस्थ समाज के बारे में गलत आकलन है ?
तो इसको समझने के लिए कायस्थों की जीवन शैली को समझना बेहद जरूरी है । बिहार में भूमिहार, राजपूत और ब्राह्मण इन समाज में लड़कियों और लडको शादी की उम्र 18 और 23 वर्ष है किंतु कायस्थ में यह उम्र 28 और 35 वर्ष है । ऐसे में 70 वर्ष के अंदर जब बाकी समाज की पांच पीढ़ी दिखाई दी तो कायस्थ समाज अपनी तीसरी पीढ़ी के लिए संघर्ष करता नजर आया।
देर से शादी, एकल परिवार और कम बच्चों के साथ सुखी रहने की आधुनिक अवधारणा का अनुपालन कायस्थ समाज के लिए बेहद घातक रहा । बाकी कसर बिहार से बेहतर भविष्य के लिए देश और विदेश में पलायन ने कर दी । इसके बाद यह मानना कोई आश्चर्य की बात नहीं है की जाति का जनगणना का आंकड़ा सही हो और अगर यह गलत भी हो तो 0.75% से ज्यादा करेक्ट नहीं हो पाएगा।
बिहार के कायस्थों के लिए राजनिति में भविष्य क्या ?
ऐसे में महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इस जनगणना के बाद बिहार की राजनीति में कायस्थों का राजनीतिक भविष्य क्या होगा ? क्या पटना के अलावा कायस्थ को राजनीति में स्थान नहीं मिलेगा ?
क्या अखिल भारतीय कायस्थ महासभा से अलग ग्लोबल कायस्थ काउंसिल बनाने वाले राजीव रंजन और संगत पंगत चलाने वाले आर के सिन्हा के बोल बच्चन जिसमें उन्होंने कहा कि बिहार में कई सीटों पर कायस्थ जीतने की ताकत रखता है और कई पर हारने की ताकत रखता है को अब नकार दिया जाएगा ।
तो इन सबका का उत्तर एक स्वर में हां है क्योंकि आबादी की बहुल्यता का जो बुलबुला इन गैर जमीनी राजनेताओं ने खड़ा किया था, वो जातिगत जनगणना के बाद वह फूट चुका है और ऐसे में वर्तमान परिदृश्य में दिखाई देने वाले कायस्थ जातिवादी नेताओं में आरके सिन्हा, ऋतुराज सिन्हा, राजीव रंजन, नितिन नवीन की जातिवादी राजनीति का आखिरी दौर हो तो कोई आश्चर्य नहीं होगा । ऐसे मे अंतिम प्रश्न यही की कायस्थों को राजनीति मे आगे बरहने के लिए क्या करना होगा तो उसका उत्तर भी इसी जनगणना मे छिपा है I जातीय जंगदना को कायस्थ अभिशाप समझ रहे है वरन वो उनके लिए वरदान है I अपने समाजवादी स्वभाव के कारण कायस्थ भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण या यादव जैसी जातियो से अलग खुद को नाय उपेक्षित जातियो का सर्वमान्य नेता बन सकते है यद्यपि उसके लिए ओबीसी बनने की शर्त महत्वपूर्ण नहीं है ओर क्या वाकई बिहार की जातिवादी मानसिकता मे एक ऐसी सुबह का सूरज उग पाएगा ये आने वाला समय बताएगा I