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बिहार के दाऊदनगर में नकल पर्व के रूप में मनाई जाती है जितिया अर्थात जीवित्पुत्रिका व्रत/ बिहार, झारखंड, यूपी के साथ नेपाल में भी पुत्र की रक्षा के लिए मनाते हैं यह पर्व

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अनिल मिश्र/पटना 
 जीवित्पुत्रिका व्रत अर्थात जिउतिया या जितिया  के नाम से भी इसे जाना या कहा जाता है।मुख्य रूप से अपने संतान या पुत्र की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए यह व्रत रखा जाता है। यह व्रत मुख्य रूप से बिहार, झारखंड ,पूर्वी उत्तर प्रदेश और पड़ोसी देश नेपाल में इसके मनाने की परंपरा है। जीवित्पुत्रिका व्रत अर्थात जिउतिया या जितिया व्रत अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को ‌ ही मनाया जाता है। दरअसल सितंबर या अक्टूबर महीने में प्रत्येक वर्ष अश्विन माह आता है। वैसे तो यह पर्व बिहार, झारखंड,पूर्वी उत्तर प्रदेश और पड़ोसी देश नेपाल में कुछ अलग -अलग  रीति रिवाज से मनायें जाते हैं। लेकिन बिहार के ही औरंगाबाद जिले के दाऊदनगर में इसे नकल (स्वांग ) पर्व मनाने की परंपरा कुछ अलग ही है।इस अवसर पर यहां विभिन्न तरह के सामुहिक सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यक्रम होते हैं। जिसको देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं।इस तरह के कार्यक्रम करीब डेढ़ सौ वर्षों से होने की बात कही जाती है।
जीवित्पुत्रिका व्रत अर्थात 
जितिया पर्व की पौराणिक कथा मुख्य रूप से महाभारत काल से जुड़ी हुई है। इस पर्व को विशेष रूप से पुत्रवती महिलाऐं द्वारा अपने पुत्रों की लंबी उम्र, स्वास्थ्य और सुख-समृद्धि के लिए रखती है। जितिया व्रत की पौराणिक कथा इस प्रकार है। कहा जाता हैं कि महाभारत काल में एक समय गंधर्वराज जीमूतवाहन नामक एक धर्मात्मा और दयालु राजा थे। वे अपने राज्य को छोड़कर जंगल में रहने चले गए थे। वहाँ उन्होंने एक दिन देखा कि एक सांप की माता अत्यंत दुखी थी। जब जीमूतवाहन ने इसका कारण पूछा, तो वह माता रोने लगी और बताया कि नागवंश का एक सदस्य रोज गरुड़ के भोजन के लिए बलिदान दे रहा है। आज उसके पुत्र की बारी है। जीमूतवाहन ने उस माता की मदद करने का निश्चय किया। उसने स्वयं को उस सांप के स्थान पर बलिदान के लिए गरुड़ को समर्पित कर दिया। जब गरुड़ उसे पकड़कर ले जाने लगा, तब उसने जीमूतवाहन की निष्ठा, साहस और त्याग को देखा और उससे प्रभावित होकर उसे जीवित छोड़ दिया। इस प्रकार जीमूतवाहन के त्याग और साहस के कारण न केवल वह सांप बच गया, बल्कि संपूर्ण सर्प जाति को गरुड़ के प्रकोप से मुक्ति मिल गया। साथ ही भविष्य में नागवंश के किसी भी सदस्य को न मारने की प्रतिज्ञा ली। इस पौराणिक कथा के आधार पर जितिया पर्व मनाया जाता है। इस व्रत में महिलाएँ निर्जल और निराहार रहकर अपने पुत्रों के दीर्घायु, सुख और समृद्धि के लिए प्रार्थना करती हैं। जितिया व्रत, जिसे जीवित्पुत्रिका व्रत भी कहा जाता है।मुख्य रूप से संतान की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए रखा जाता है। जितिया पर्व अश्विनी मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता हैं।  इस बार पूजा करने का शुभ मुहूर्त अष्टमी तिथि का शुभारंभ 24 सितंबर दिन के 12:38 से शुरू होकर 25 सितंबर दिन को 12:10 तक रहेगा। अष्टमी तिथि उदय कल में आ रहा है, इसी लिए जितिया पर्व 25 सितंबर को मनाया जाएगा। जितिया के व्रतधारियों को संध्या समय पूजा करने का विधान है। गोधूलि मुहूर्त शाम 5:38 से लेकर 6:50 तक रहेगा। इसी प्रकार लाभ मुहूर्त शाम 4:08 से लेकर 5:38से लेकर रात 10:07 तक रहेगा। पारण करने का शुभ मुहूर्त अष्टमी तिथि का 25 सितंबर को दिन के 12:10 बजे के बाद हो समाप्त हो जाएगा। इसलिए पारण अहले सुबह ब्रह्म मुहूर्त से शुरू हो जाएगा।
 बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में सियार और चील की कहानी बहुत मशहूर है। लोग जिउतवाहन देवता के साथ-साथ सियार और चील के नाम पर भी पूजा-अर्चना करते हैं। जबकि सामर्थ्य के अनुसार सोने,चांदी नहीं तो धागे से बने जितिया भगवान को साक्षी मानकर संतान के संख्या के अनुसार पूजाकर प्रत्येक साल गले में धारण करते हैं।
वही बिहार से बंटकर बने
झारखंड प्रदेश में इसे जितिया के नाम से जाना जाता है और लोग इसे आठ दिनों तक मनाते हैं। यह आश्विन माह के पहले दिन से शुरू होता है। गांव के पानी भरवा   भाद्रपद के पूर्णिमा तिथि को जितिया उत्सव के आरंभ की घोषणा करते हैं। अगले दिन महिलाएं सुबह-सुबह बांस की टोकरी में नदी से रेत इकट्ठा करती हैं। ताकि कोई उन्हें देख न सके और उसमें आठ प्रकार के बीज डालती हैं।जैसे चावल, चना, मक्का आदि। वे आठ दिनों तक गीत गाती हैं और प्याज, लहसुन, मांस नहीं खाती हैं। सातवें दिन वे स्नान के बाद नदी के किनारे गीदड़ों  (सियार )और चील के लिए भोजन रखती हैं। वे उपवास करती हैं और शाम को आठ प्रकार की सब्जियां, अरवा चावल (कच्चा चावल )और मडुआ की रोटी खाती हैं। वे आठवें दिन उपवास करती हैं। आठवें दिन वे आंगन में जितिया   पाकड़ नामक एक वृक्ष (पवित्र अंजीर) की एक शाखा लगाती हैं ।वे जितिया शाखा की पूजा करते हैं।वही जितवाहन की कथा सुनते हैं और जितिया (जितवाहन) से अपने बच्चों की लंबी उम्र की कामना करते हैं। वे गीत गाते हैं और पूरी रात झूमर नृत्य करते हैं। अगले दिन वे पवित्र पाकड़ के पेड़ की शाखाओं को नदी, तालाब या झरने में विसर्जित करते हैं।और वहीं स्नान करते हैं और अपने बच्चे के गले में फूलों की माला डालते हैं।
जबकि बिहार के उतरी भाग में बसे मिथिलांचल की नेपाली विवाहित महिलाओं और पूर्वी तथा मध्य नेपाल की थारू महिलाओं का एक महत्वपूर्ण त्योहार है । नेपाली थारू महिलाएँ इस दिन निर्जला व्रत (बिना पानी के) रखती हैं और अगले दिन अष्टमी के समापन पर व्रत तोड़ती हैं । कभी-कभी, जब अष्टमी दोपहर में शुरू होती है, तो महिलाओं को दो दिनों तक उपवास करना पड़ सकता है। चूंकि कुछ भी, यहां तक ​​​​कि पानी की एक बूंद भी मुंह में नहीं डाली जाती है, इसलिए व्रत को खर जितिया भी कहा जाता है। माना जाता है कि गंभीर दुर्घटनाओं में बचे बच्चों को यह ब्रत करने से उनकी मां का आशीर्वाद मिलता है। थारूओं द्वारा एक दिन पहले मछली और बाजरा (मरुआ) से बनी रोटी खाने का चलन या परंपरा है। उपवास से पहले की रात में वे अष्टमी की शुरुआत से ठीक पहले भोजन करते हैं ।
 बिहार के औरंगाबाद जिले का दाउदनगर शहर में जिउतिया मनाने का विशिष्ट ढंग है, जो काफी मशहूर है।यहां इसे स्वांग अर्थात नकल पर्व के रूप में काफी धूमधाम से मनाया जाता है।यहां जिउतिया पर्व के दौरान स्थानीय लोक कलाकार करीब एक सप्ताह तक हंसी-मजाक, व्यंग-विनोद ,गीत- संगीत नृत्य, रहस्य रोमांच व साहसिक कारनामे करने-दिखाने में लिप्त रहते हैं।इस अवसर पर औरंगाबाद जिले के
दाउदनगर में जिउतिया पर झांकियां भी निकाली जाती है।दाउदनगर में जिउतिया यानी जीवित्पुत्रिका व्रत बड़े ही धूमधाम और रंगारंग रूप में मनाया जाता है। खासकर अंतिम तीन दिन यह पर्व चरमोत्कर्ष पर रहता है। इस दिन नकल (स्वांग रचने के लिए )बनने के लिए बच्चे युवा-अधेड़ आदि में होड़ सी लगी रहती है।नकल बनने वाले कलाकारों द्वारा एक से बढ़कर एक साहसिक करतबों की प्रस्तुति किया जाता है।नकल के माध्यम से सम-सामयिक घटनाओं व सामाजिक कुरीतियों पर करारा प्रहार किया जाता है। विभिन्न प्रकार की झांकियां निकाली जाती है।स्थानीय लोक कलाकार नकलों की प्रस्तुति कर अपनी लोक कला का प्रदर्शन करते हैं। खासकर अंतिम तीन दिनों तक तो नकलों की भरमार रहती है। यहां पर आश्विन मास चढ़ते ही चौराहा पर
ओखली रखकर  व्रत की शुरुआत किया जाता है।इस ओखली के देखते हीं आम लोगों की जेहन में जिउतिया पर्व आने की याद आ जाती है।दाउदनगर अनुमंडल मुख्यालय के चार जीमूतवाहन चौकों पर ओखली रखकर जिउतिया पर्व की शुरुआत की जाती है। दाउदनगर शहर के कसेरा टोली, पटवाटोली इमली तल, बाजार चौक व पुराना शहर चौक पर भगवान जीमूतवाहन की प्रतिमा स्थापित है, जहां उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। जीवितपुत्रिका व्रत के दिन तो दिन से लेकर रात तक व्रती महिलाओं की भीड़ लगी रहती है।व्रती महिलाएं पहुंचकर पूजा-अर्चना करती हैं।

यहां के इस परंपरा के बारे में बताया जाता है कि करीब डेढ़ सौ साल पहले करीब 1890के आसपास प्लेग नामक एक बीमारी पूरे विश्व भर में फैल गया था। जिसमें चीन और भारत को मिलाकर करीब एक करोड़ लोगों की मौत इस वायरस के कारण हो गया था।उस समय अविभाजित बिहार बंगाल का हिस्सा हुआ करता था।उसी समय आम लोग इसे एक तरफ की बीमारी नहीं मानकर दैवीय शक्ति का प्रकोप मानकर प्लेग देवी के नाम से पूजा -अर्चना करने लगे। और वही परंपरा का निर्वहन आज तक किया जा रहा है।जिस तरह महाराष्ट्र में गणेश उत्सव और पं बंगाल के कोलकाता में दूर्गा पूजा के अवसर पर सामाजिक, राजनीतिक और सम-सामयिक विषयों पर पंडालों का निर्माण किया जाता है।उसी तरह यहां पर तीन दिनों तक चलने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लोक गायन और लावणी नृत्य में कलाकारों द्वारा चित्रण करने कि भरपूर कोशिश किया जाता है। इसलिए स्थानीय क्षेत्र में यहां जितिया के नकल के नाम से मुहावरा भी प्रचलित है।

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