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बिहार में इस बार किसकी बहार — राधा रमण 

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पांच साल बाद बिहार में विधानसभा चुनाव की रणभेरी फिर बजनेवाली है। हालांकि चुनाव आयोग ने अभी तक मतदान तारीखों की घोषणा नहीं की है। बिहार विधानसभा का मौजूदा कार्यकाल 22 नवंबर 25 तक है। जाहिर है विधानसभा के चुनाव इससे पहले ही होंगे। पिछली बार 2020 में तीन चरणों में 28 अक्टूबर, 3 नवंबर और 7 नवंबर को बिहार विधानसभा के चुनाव कराये गए थे। सरकार का गठन 23 नवंबर को हुआ था। ऐसे में अटकलें हैं कि चुनाव आयोग 15 अगस्त के बाद कभी भी मतदान तारीखों की घोषणा कर सकता है।
भले ही मतदान की तिथियों पर चुनाव आयोग खामोश है लेकिन बिहार के सियासी दलों ने अपने पत्ते खोलने प्रारंभ के दिए हैं। सीटों की दावेदारी पर राज्य के 3 बड़े दलों (राष्ट्रीय जनता दल, भारतीय जनता पार्टी और जनता दल – यूनाइटेड)  ने अभी तक पत्ते नहीं खोले हैं, लेकिन उन्हें समर्थन देनेवाली पार्टियों के नेता मनमाफिक दावेदारी करने लगे हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सहयोगी और पिछली मौजूदा विधानसभा में महज 4 सीटोंवाली हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा (हम) के संरक्षक केंद्रीय मंत्री जीतनराम मांझी इस बार 40 सीटों पर दावा ठोंक रहे हैं तो बिना विधायक की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के सर्वेसर्वा केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान राज्य की कुल 243 सीटों पर असर होने का दावा कर रहे हैं। एनडीए के एक और सहयोगी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा कहते हैं कि अगर उन्हें डुबोने की कोशिश की गई तो डुबोने वाले भी नहीं बचेंगे। उधर, मुख्यमंत्री नीतीश की पार्टी जदयू चुनाव में भाजपा के बराबर सीटों की दावेदारी पर पहले से अडिग है। जाहिर है एनडीए के सभी घटक दल अपनी ताकत बढ़ाने की फिराक में हैं।
सीटों के बंटवारे पर रार महागठबंधन में भी कम नहीं है। कांग्रेस पिछली बार की तरह इस बार भी 70 सीटों पर दावेदारी कर रही है। उधर, विकासशील इंसान पार्टी के प्रमुख मुकेश सहनी विधानसभा की 60 सीट और उप मुख्यमंत्री पद की मांग कई दफा सार्वजनिक रूप से कर चुके हैं। इस बीच ‘बदलो सरकार-बदलो बिहार’ यात्रा निकाल चुके वामदलों के नेता 45 सीटों की मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि पिछले चुनाव में उन्हें 29 सीटें मिली थीं जिनमें 16 सीटों पर जीत मिली थी, जबकि कांग्रेस 70 सीटों पर लड़कर महज 19 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। अगर इन दलों की मांग मान ली जाए तो क्या राष्ट्रीय जनता दल (राजद) महज 68 सीटों पर चुनाव लड़ेगी ? पिछली बार राजद 144 सीटों पर चुनाव लड़ी थी जिसमें 78 सीटों पर जीत मिली थी। इसके अलावा राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष और रामविलास पासवान के छोटे भाई पशुपति कुमार पारस भी महागठबंधन के बैनरतले चुनाव मैदान में उतरने की जुगत खोज रहे हैं। उनकी लालू यादव और तेजस्वी से मुलाकात भी हो चुकी है। उधर, झारखंड मुक्ति मोर्चा ने भी 12 सीटों पर दावा किया है। झामुमो के महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य कहते हैं कि झारखंड में हमने राजद के एकमात्र विधायक को मंत्री बनाया क्योंकि हम गठबंधन के तहत चुनाव मैदान में थे। अब राजद और कांग्रेस को बड़ा दिल दिखाना चाहिए। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए- इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) की भी इच्छा महागठबंधन के बैनरतले चुनाव में उतरने की है। उसके नेता तेजस्वी यादव और लालू यादव तक अपनी बात पहुंचा चुके हैं। हालांकि कांग्रेस उसे साथ लेने को राजी नहीं है। ऐसे में महागठबंधन में सीटों के बंटवारे में सिरफुटौव्वल तय है।
चुनावी लड़ाई को त्रिकोणीय बनाने के लिए कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के चुनावी रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर भी अपनी जनसुराज पार्टी बनाकर मैदान में उतर चुके हैं। प्रशांत अपनी पार्टी में कई रिटायर्ड नौकरशाहों के अलावा पूर्व केंद्रीय मंत्री और जदयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष रामचन्द्र प्रसाद सिंह (आरसीपी सिंह) को जोड़ चुके हैं। बिहार के चर्चित यू-ट्यूबर मनीष कश्यप भी भाजपा के रास्ते अब प्रशांत के साथ हो लिये हैं। प्रशांत का दावा है कि उनकी पार्टी सभी 243 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ेगी। उधर, वोट बैंक बढ़ाने के लिए आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, तृणमूल कांग्रेस समेत तमाम दल किसी से तालमेल न हो पाने की स्थिति में अकेले मैदान में ताल ठोंकेंगे। ये दल भले ही चुनाव नहीं जीतें लेकिन दोनों गठबंधनों में किसी का खेल जरूर खराब करेंगे।
इस बीच, राजद ने वरिष्ठ समाजवादी नेता मंगनीलाल मंडल को बिहार राजद का अध्यक्ष बनाकर अति पिछड़ों में पैठ बनाने का बड़ा दांव चल दिया है। मंडल धानुक जाति से आते हैं। वह जदयू के रास्ते से राजद में आये हैं। उनका व्यक्तित्व निर्विवाद रहा है। वे लोकसभा के सदस्य भी रह चुके हैं। देखना दिलचस्प होगा कि मंडल अपनी जाति का कितना वोट राजद को ट्रांसफर करा पाते हैं। बिहार की सियासत में जाति एक कटु सच्चाई है। वहां जाति के आधार पर न सिर्फ नेता हैं बल्कि जाति के आधार पर दल भी बने हैं। राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव हों, चिराग पासवान हों या पशुपति पारस, मुकेश सहनी हों या जीतनराम मांझी, उपेन्द्र कुशवाहा हों या सम्राट चौधरी, नीतीश कुमार हों अथवा रामचन्द्र प्रसाद सिंह, सभी की राजनीति जातीयता की धुरी पर ही टिकी है।
उधर, चुनाव से चार महीना पहले एनडीए ने राज्य में वर्षों से खाली पड़े आयोग-बोर्डों के पदों को भर दिया है। कुल 13 आयोगों में से 8 का अध्यक्ष जदयू ने अपने नेताओं को बनाया है। 4 आयोग के अध्यक्ष भाजपा के नेता बनाए गए हैं, जबकि लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के नेता और चिराग पासवान के बहनोई मृणाल पासवान को अनुसूचित जाति आयोग का अध्यक्ष बनाया गया है। जीतनराम मांझी के दामाद देवेन्द्र कुमार को इसी आयोग का उपाध्यक्ष बनाया गया है। उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी के हिस्से में महज सदस्य का पद मिला है। ऐसा करके टिकट के दावेदारों की भीड़ पर नियंत्रण करने का प्रयास किया गया है। हालांकि राजनीति के जानकार चुनावी साल में वर्षों से खाली पड़े आयोग के पुनर्गठन पर सवाल कर रहे हैं। उनका यह भी कहना है कि क्या एनडीए सरकार को वापसी में संशय लग रहा है जो आयोग- बोर्डों में खाली पदों को भरने में तत्परता दिखाई!
सियासी गुणा-गणित से इतर भाजपा पिछले एक साल से चुनाव प्रचार में पूरी तन्मयता से जुटी है। एक साल में प्रधानमंत्री सात बार बिहार का दौरा कर चुके हैं। इसमें पांच बार का दौरा तो जनवरी से जून तक हो चुका है। वह अपनी हर सभा में लालू-राबड़ी के शासनकाल पर हमला बोलते हैं और हजारों करोड़ की योजनाओं की घोषणा करते हैं। काश! वह योजनाएं सफलीभूत हो जातीं तो बिहार बदहाल नहीं रहता। भाजपा ने राज्य में चुनावी वार रूम का गठन कर दिया है। इसका प्रभारी दिल्ली के रोहन गुप्ता को बनाया गया है। उसमें 150 से अधिक सदस्य हैं। रोहन गुप्ता काफी तेज-तर्रार नेता हैं। हरियाणा और दिल्ली के चुनाव में भी उन्होंने भाजपा वार रूम की कमान संभाली थी और पार्टी को विजय दिलाई थी। आनेवाले दिनों में भाजपा जिला स्तर तक वार रूम का गठन करेगी। लेकिन भाजपा की बड़ी दिक्कत बिहार में पार्टी का कोई अहम चेहरा न होना है जिसे मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया जा सके। उप मुख्यमंत्री सम्राट चौधरी राजद, जदयू समेत कई दलों से घुमते हुए भाजपा में पहुंचे हैं। उनका अपना कोई जनाधार नहीं है। उनके पिता स्व. शकुनि चौधरी जरूर कद्दावर नेता थे लेकिन वह कांग्रेस और समाजवादी पृष्ठभूमि के थे। इसी तरह प्रदेश भाजपा के अधिकांश नेता आयातित ही हैं। ऐसे में भाजपा चुनाव के बाद कोई उलटफेर कर दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
अपने पुराने जनाधार को संगठित करने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी प्रगति यात्रा निकाल रहे हैं। एक चर्चा यह भी है कि जदयू इस बार चिराग की दावेदारी वाले ब्रह्मपुर, दिनारा, कस्बा, हरनौत, कदवां, रुपौली, जगदीशपुर, रघुनाथपुर और ओबरा आदि सीटों पर नजर गड़ाए हुए है। इन सीटों पर पिछली बार चिराग की पार्टी के उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहे थे। चिराग इस बार किंगमेकर बनने की चाहत लिये हुए हैं। उनकी कोशिश है कि बिना उनके समर्थन के बिहार में कोई सरकार नहीं बने।
चुनाव की तैयारी में महागठबंधन भी पीछे नहीं है। नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव लगातार राज्य के कोने-कोने में घूम रहे हैं और मौजूदा सरकार की नाकामी उजागर कर रहे हैं। उन्होंने ‘तेजस्वी डिजिटल फोर्स’ का गठन कर युवाओं को उससे जुड़ने की अपील की है। तेजस्वी कहते हैं कि मुख्यमंत्री उम्रजनित बीमारियों के कारण अचेतावस्था में हैं और सहयोगी दलों के नेता नौकरशाहों के साथ मिलकर बिहार को लूट रहे हैं। अपराध चरम पर है और सरकार खामोश। आयोगों के पुनर्गठन में भाई-भतीजावाद का बोलबाला है। सीएम को लगे हाथ जमाई आयोग, दामाद आयोग और मेहरारू आयोग का भी गठन कर देना चाहिए।
कांग्रेस, विकासशील इंसान पार्टी और वामदलों के नेता भी अपने पक्ष में जनमत बनाने के लिए अभियान चलाये हुए हैं। राहुल गांधी एक साल में पांच बार बिहार का दौरा कर चुके हैं। लब्बोलुआब यह कि गरमी के मौसम में बिहार में राजनीतिक तापमान बढ़ा हुआ है।

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