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प्रिय मित्रों ! मैं पुनःआप सबकी सेवामें देवर्षि नारद कृत भक्ति-सूत्र का ग्यारहवां सूत्र प्रस्तुत कर रहा हूँ-आप सबके ह्यदय में स्थित मेरे प्रिय श्री कृष्ण जी के चरणों में इसके इस सूत्र-पुष्प को चढा रहा हूँ,यहाँ कहते हैं कि-
“लोकवेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता॥११॥”
लौकिकऔर वैदिक कर्मों में उसके(त्याग के) अनुकूल कर्म करना ही उसके (त्याग के)विरोधी कर्म करना है।
सखा वृँद ! मैंआपको एक रहस्य की बात बताता हूँ-“जो आप जैसे ज्ञानी होते है,वे मानते नहीं सम्मान करते है !” मानने और सम्मान करने में जमीन-आसमान का अंतर है, प्राचीन काल में हमारे ऋषियों ने सम्मिलित रूप से एक निर्णय लिया था कि दो-चार वर्षों में एक बार पूरे विश्व के साधू संत एक जगह एकत्रित होकर एक साथ ज्ञान-योग-भक्ति-काम पर चर्चा कर सकें–“कीसी ऐसे वार्षिकोत्सव का आयोजन किया जाये।”
और उन्होंने इस उत्सव का नाम दिया “महा-कुँभ”
तो आप देखो आज भी यह परम्परा अबाध गति से चल रही है,और इन स्थानों पर जाकर हम आप एक साथ अनेक महापुरुषों की ज्ञान चर्चा का आनंद उठाते हैं ! बाकी यह तो सभी जानते ही हैं कि असली-“अमृत तो यह ज्ञान-भक्ति रूपी कुंभ ही है।”
राम ने अश्वमेघयज्ञ किया,जनक ने सैकणों यज्ञ किये, कृष्ण, याज्ञवल्क्य,अत्रि,उद्दालक,वशि ष्ट,विश्वामित्र,आरुणी, जमदग्नि आदि हजारों हजार ऋषि-मुनियों ने यज्ञादि वेद विहित कर्म किये,किन्तु उनके वे कर्म किसी लौकिक या पारिलौकिक इच्छाओं की पूर्ति हेतु नहीं होते थे ! वे यह कार्य वैदिक मर्यादा की रक्षा के लिये करते थे,ताकि ऐसे सार्वजनिक अनुष्ठानों में आकर संत- महापुरुष अपनी ज्ञान चर्चा के द्वारा–“महाजनाः गताः ते पन्था” साधारण जन समुदाय का पारलौकिक मार्ग दर्शन कर सकें ! हमारे शास्त्रों ने तो “स्त्री-पुरुष के सहवास”को भी पुत्रेष्टि यज्ञ कहा है।
हमारे शास्त्रों में तो मृत शरीर के अन्तिम संस्कार को भी-“नरमेघ यज्ञ” कहा है ! वैवाहिक संस्था की स्थापना काम-वासना पर नियन्त्रण के लिये है,अतः ज्ञानी पुरुष, सच्चा भक्त,एक योगी ! सभी अच्छे लौकिक कर्मों को बिना किसी भी परिणाम की इच्छा से करता है।
और भी एक खतरनाक बात कह देता हूँ कि,अगर उसे किसी कारण वश बाध्य किया गया अनैतिककार्य के लिये तो फिर जन्म लेते हैं-“हीरण्याक्ष,हीरण्यकश्यप,रा वण” प्रिय सखा वृँद ! सूत्र में स्पष्ट कहते हैं कि-“जाके प्रिय न राम वैदेही।
तजिये ताहि कोटि वैरी सम यद्यपि परम सनेही।।”
जितने भी शास्त्रीय कर्म हैं,नित्य-नैमित्तिक-काम्य तथा निषिद्ध ये भी भक्ति-मार्ग में महत्वहीन हो जाते हैं ! आप कल्पना करो !अर्ध-रात्रिमें हमारे प्रियजी के आमन्त्रणको पाते ही वे गोपियाँ अपने,पती ,संतान,भाई,माँ,बाबा,कुल,लोक, लज्जाको तिलाँजली देकर उनके श्रीचरणों मे दौड़ पड़ीं।”
मित्रों ! मैं एक असामाजिक बात कहूँगा ! जिन्हें उनके नाम की क्षुधा लग गयी ! तब पुत्र अपने पिता की आज्ञा, कन्या अपने कुलके संस्कार,माँ अपनी संतान के प्रति कर्तब्य, पत्नीयाँ अपने कंत,और शिष्य अपनी गुरु-आज्ञाका भी उल्लँघन कर जाते हैं-
“तज्यो पिता-प्रहेलाद, विभीषण-बंधु,भरत-महतारी
गुरु बलि तज्यो,कंत बृज वनिता-भये मुद मँगलकारी॥”
गोपियोंके प्रेम में राग का अभाव नहीं है ! बल्कि पराकाष्ठा है उनमें राग की ! ऐसा अद्वितीय राग ! जो सभी सम्बंधों-स्थानों से सिमटकर–“भोग और मोक्षके दुर्लभतम् प्रलोभनों से ऊपर उठकर श्रीकृष्णार्पित हो गया।”
तभी तो मेरे श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि,हे अर्जुन ! गोपियाँ अपने शरीरकी रक्षा मेरी सेवाके लिये करती हैं ! गोपियों के अतिरिक्त मेरे गूढ प्रेमका पात्र त्रिभुवन में नहीं है–
“निजाड़्गमपि या गोप्यो ममेति समुपासते।
ताभ्यः परं न मे पार्थ निगूढ प्रेम भाजनम्।।”
जीवन जीना एक कला है ! ये-“अनूठी चित्त-कला” है ये चित्र कला नहीं अपितु चित्त कला है ! जो भगवान के लिये जीते हैं ! जो केवल इसलिए जीते हैं कि उनके शरीर से थोड़ी सी श्याम किशोर की सेवा हो जाये ! मैंने अपने जीवन मे ऐसे साधुओं को देखा है जो अपने आराध्य की मूर्ति को प्रातःकाल जगाते,मुख धोते,मञ्जन कराते,कुछ बाल भोग लगाते, स्नान कराते,बार-बार जल पिलाने पंखा झलने की कोशिश करते,उनके लिए भोग बनाते,उनको भोग लगाते इसके पश्चात मुख धुलाते,मध्यान्ह विश्राम कराते पुनश्च रात्रि काल में अपने ह्रदय से लगाकर सुलाते।
यही इस सूत्र का भाव है ! भक्तिसूत्र के आगामी अंक के साथ पुनश्च उपस्थित होता हूँ …-आनंद शास्त्री….सचल दूरभाष क्रमांक ६९०१३७५९७१
“लोकवेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता॥११॥”
लौकिकऔर वैदिक कर्मों में उसके(त्याग के) अनुकूल कर्म करना ही उसके (त्याग के)विरोधी कर्म करना है।
सखा वृँद ! मैंआपको एक रहस्य की बात बताता हूँ-“जो आप जैसे ज्ञानी होते है,वे मानते नहीं सम्मान करते है !” मानने और सम्मान करने में जमीन-आसमान का अंतर है, प्राचीन काल में हमारे ऋषियों ने सम्मिलित रूप से एक निर्णय लिया था कि दो-चार वर्षों में एक बार पूरे विश्व के साधू संत एक जगह एकत्रित होकर एक साथ ज्ञान-योग-भक्ति-काम पर चर्चा कर सकें–“कीसी ऐसे वार्षिकोत्सव का आयोजन किया जाये।”
और उन्होंने इस उत्सव का नाम दिया “महा-कुँभ”
तो आप देखो आज भी यह परम्परा अबाध गति से चल रही है,और इन स्थानों पर जाकर हम आप एक साथ अनेक महापुरुषों की ज्ञान चर्चा का आनंद उठाते हैं ! बाकी यह तो सभी जानते ही हैं कि असली-“अमृत तो यह ज्ञान-भक्ति रूपी कुंभ ही है।”
राम ने अश्वमेघयज्ञ किया,जनक ने सैकणों यज्ञ किये, कृष्ण, याज्ञवल्क्य,अत्रि,उद्दालक,वशि
हमारे शास्त्रों में तो मृत शरीर के अन्तिम संस्कार को भी-“नरमेघ यज्ञ” कहा है ! वैवाहिक संस्था की स्थापना काम-वासना पर नियन्त्रण के लिये है,अतः ज्ञानी पुरुष, सच्चा भक्त,एक योगी ! सभी अच्छे लौकिक कर्मों को बिना किसी भी परिणाम की इच्छा से करता है।
और भी एक खतरनाक बात कह देता हूँ कि,अगर उसे किसी कारण वश बाध्य किया गया अनैतिककार्य के लिये तो फिर जन्म लेते हैं-“हीरण्याक्ष,हीरण्यकश्यप,रा
तजिये ताहि कोटि वैरी सम यद्यपि परम सनेही।।”
जितने भी शास्त्रीय कर्म हैं,नित्य-नैमित्तिक-काम्य तथा निषिद्ध ये भी भक्ति-मार्ग में महत्वहीन हो जाते हैं ! आप कल्पना करो !अर्ध-रात्रिमें हमारे प्रियजी के आमन्त्रणको पाते ही वे गोपियाँ अपने,पती ,संतान,भाई,माँ,बाबा,कुल,लोक,
मित्रों ! मैं एक असामाजिक बात कहूँगा ! जिन्हें उनके नाम की क्षुधा लग गयी ! तब पुत्र अपने पिता की आज्ञा, कन्या अपने कुलके संस्कार,माँ अपनी संतान के प्रति कर्तब्य, पत्नीयाँ अपने कंत,और शिष्य अपनी गुरु-आज्ञाका भी उल्लँघन कर जाते हैं-
“तज्यो पिता-प्रहेलाद, विभीषण-बंधु,भरत-महतारी
गुरु बलि तज्यो,कंत बृज वनिता-भये मुद मँगलकारी॥”
गोपियोंके प्रेम में राग का अभाव नहीं है ! बल्कि पराकाष्ठा है उनमें राग की ! ऐसा अद्वितीय राग ! जो सभी सम्बंधों-स्थानों से सिमटकर–“भोग और मोक्षके दुर्लभतम् प्रलोभनों से ऊपर उठकर श्रीकृष्णार्पित हो गया।”
तभी तो मेरे श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि,हे अर्जुन ! गोपियाँ अपने शरीरकी रक्षा मेरी सेवाके लिये करती हैं ! गोपियों के अतिरिक्त मेरे गूढ प्रेमका पात्र त्रिभुवन में नहीं है–
“निजाड़्गमपि या गोप्यो ममेति समुपासते।
ताभ्यः परं न मे पार्थ निगूढ प्रेम भाजनम्।।”
जीवन जीना एक कला है ! ये-“अनूठी चित्त-कला” है ये चित्र कला नहीं अपितु चित्त कला है ! जो भगवान के लिये जीते हैं ! जो केवल इसलिए जीते हैं कि उनके शरीर से थोड़ी सी श्याम किशोर की सेवा हो जाये ! मैंने अपने जीवन मे ऐसे साधुओं को देखा है जो अपने आराध्य की मूर्ति को प्रातःकाल जगाते,मुख धोते,मञ्जन कराते,कुछ बाल भोग लगाते, स्नान कराते,बार-बार जल पिलाने पंखा झलने की कोशिश करते,उनके लिए भोग बनाते,उनको भोग लगाते इसके पश्चात मुख धुलाते,मध्यान्ह विश्राम कराते पुनश्च रात्रि काल में अपने ह्रदय से लगाकर सुलाते।
यही इस सूत्र का भाव है ! भक्तिसूत्र के आगामी अंक के साथ पुनश्च उपस्थित होता हूँ …-आनंद शास्त्री….सचल दूरभाष क्रमांक ६९०१३७५९७१
आनंद शास्त्री