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डा. रणजीत कुमार तिवारी
सहाचार्य एवं सर्वदर्शन विभागाध्यक्ष
कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत एवं पुरातनाध्ययन विश्वविद्यालय, नलबारी, असम
भारतीय सांस्कृतिक चेतना में यदि कोई एक पात्र सर्वाधिक गहराई, सरलता और आध्यात्मिक ऊँचाई को समेटे हुए है, तो वह हैं – हनुमान। वे केवल एक पौराणिक चरित्र नहीं, बल्कि युगों से भारतीय मानस की आत्मा में प्रवाहित एक जीवंत अनुभव हैं। वे शक्ति हैं, भक्ति हैं, सेवा हैं, और सबसे बढ़कर – संयमित चेतना के प्रतीक हैं। जब हम हनुमान का स्मरण करते हैं, तो हमारे भीतर एक विचित्र ऊर्जा का संचार होता है। यह ऊर्जा केवल शारीरिक बल की नहीं, अपितु आध्यात्मिक साहस की होती है। यह वह साहस है जो व्यक्ति को अपने स्वभाव, अपनी सीमाओं, और अपने अहंकार से परे ले जाकर उसके भीतर छुपी दिव्यता से जोड़ देता है।
हनुमान जी के बाल्यकाल की लीलाएं : एक चमत्कारी आरंभ
हनुमान जी का बाल्यकाल भी उतना ही अद्वितीय और प्रेरणाप्रद है जितना कि उनका सम्पूर्ण जीवन। वे केसरी नंदन और अंजनी पुत्र होते हुए भी, स्वयं शिव के रूद्रांश माने जाते हैं, और उनकी उत्पत्ति देवों की विशेष योजना का परिणाम थी—जिसका उद्देश्य था, श्रीराम की सहायता हेतु एक ऐसे महाबली का अवतरण। बाल्यकाल में ही हनुमान जी की दिव्य शक्तियाँ प्रकट होने लगी थीं। उनके भीतर अपार ऊर्जा और जिज्ञासा थी, जिसके कारण कई बार वे अपनी शक्तियों के परिणाम को स्वयं भी नहीं समझ पाते थे। एक अत्यंत प्रसिद्ध प्रसंग है— एक दिन बालक हनुमान ने आकाश में चमकते हुए सूर्य को देखा। उन्हें वह एक लाल-पीला चमकता फल प्रतीत हुआ और वे उसे खाने के लिए आकाश की ओर उड़ चले। यह कोई साधारण उड़ान नहीं थी—यह उस छोटे से बालक की पहली चेतन आकाशयात्रा थी – “बाल समय रवि भक्षि लियो तब, तीनहुं लोक भयो अंधियारो।” इस घटना से त्रिलोक में अंधकार छा गया और देवताओं को चिंता हुई। इन्द्रदेव ने क्रोधित होकर वज्र का प्रहार किया जिससे बाल हनुमान मूर्छित हो गए। यह दृश्य देखकर वायु देव कुपित हो गए और सारी वायुप्रवाह रोक दी—सृष्टि संकट में पड़ गई। अंततः ब्रह्मा, विष्णु और शंकर सहित समस्त देवों को आना पड़ा और उन्होंने हनुमान जी को न केवल होश में लाया, बल्कि उन्हें अमोघ वरदान भी दिए।
हनुमान जी को अनेक दिव्य शक्तियाँ प्राप्त हुईं—इन्द्र से वज्र से अघात की अजेयता, अग्नि से अग्नि से न जलने का वरदान, वरुण से जल में न डूबने की शक्ति, सूर्य से शास्त्रज्ञान, यम से मृत्यु पर विजय, कुबेर से असीम संपत्ति की प्राप्ति की योग्यता, और शिव से बल, बुद्धि, विद्या का अनंत स्रोत। इन वरदानों ने हनुमान जी को एक ऐसा दिव्य पुरुष बना दिया, जो केवल बाह्य शक्तियों से ही नहीं, बल्कि आत्मिक तेज और ज्ञान से भी युक्त था।
हनुमान जी ने सूर्य देव को ही अपना गुरु बनाया। यह अद्भुत प्रसंग है—जहाँ सूर्यदेव चलते-फिरते रहते हैं, वहाँ हनुमान जी ने भी उनके साथ-साथ उड़ते हुए शिक्षाग्रहण किया। उनके द्वारा व्याकरण, वेद, वेदांग, न्याय, दर्शन और नीतिशास्त्र का गहन अध्ययन किया गया। उन्होंने अपनी शिक्षा का उपयोग कभी अहंकार के लिए नहीं, बल्कि सेवा और धर्म की स्थापना के लिए किया।
हनुमान जी का बाल्यकाल हमें यह सिखाता है कि अपार शक्तियाँ यदि संयम, ज्ञान और भक्ति से युक्त हों, तो वे सृष्टि के कल्याण का कारण बनती हैं। बाल हनुमान की जिज्ञासा, ऊर्जा और उत्साह हमें यह संदेश देती है कि जीवन के आरंभिक वर्षों में ही यदि सही दिशा और सत्संग मिल जाए, तो असाधारणता जन्म लेती है।
श्रीराम-भक्त हनुमान – रामकथा में हनुमान जी की भूमिका केवल एक दूत, एक योद्धा या एक सेवक की नहीं है—वे भगवद्भक्ति के मूर्तिमान स्वरूप हैं। वे रामायण के वह स्तम्भ हैं, जिनके बिना रामकथा अधूरी है। उनका चरित्र इतना व्यापक है कि वे हर स्थान पर उपस्थित होकर किसी न किसी रूप में धर्म की रक्षा और मर्यादा की पुनर्स्थापना करते हैं। हनुमान जी का राम से प्रथम मिलन एक ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक घटना है। जब श्रीराम सीता जी की खोज में लक्ष्मण के साथ वन-वन भटक रहे थे, तब वे ऋष्यमूक पर्वत पर पहुंचे, जहाँ हनुमान जी ने सुग्रीव के आदेश पर ब्राह्मण वेश धारण कर उनसे भेंट की। “प्रभु पहचानत तुम्हहि राम सनेही। करउँ बहुत परितोषि बड़ि नेही॥” हनुमान जी के मन में जैसे ही यह विश्वास हुआ कि ये ही भगवान श्रीराम हैं, उनका अंतर्मन भक्ति से भर गया। यहीं से प्रारंभ होता है उनका अविचल रामसेवा का मार्ग, जो अंत तक चलता है।
श्रीराम का संदेश लेकर जब हनुमान जी लंका की ओर उड़े, तब उन्होंने समुद्र को लांघने, सिंह-नाग-राक्षसों को हराने, और लंकापुरी में प्रवेश जैसे अनेक अद्भुत कार्य किए। सीता जी को खोज निकालना, उन्हें श्रीराम की अंगूठी देना और उनका संदेश लेना — यह कार्य केवल भक्ति नहीं, अपितु कूटनीति, विवेक और धैर्य का भी अद्भुत उदाहरण है।
हनुमान जी को जब रावण ने अपमानित किया और उनकी पूंछ में आग लगवाई, तब उन्होंने लंका को जलाकर यह सन्देश दिया कि अधर्म चाहे कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, धर्म का दीपक उसकी तामसी सत्ता को भस्म कर सकता है। लक्ष्मणजी के मूर्छित हो जाने पर हनुमान जी ने न केवल हिमालय तक उड़ान भरी, बल्कि संपूर्ण पर्वत ही उठा लाए। यह प्रसंग दर्शाता है कि संकट की घड़ी में केवल शारीरिक बल नहीं, निर्णय लेने की तीव्रता भी आवश्यक है।
हनुमान जी का संपूर्ण जीवन रामकाज में ही समर्पित रहा। उन्होंने कभी श्रेय नहीं माँगा, कभी विश्राम नहीं चाहा, और सदा विनम्र सेवक बने रहे। जब श्रीराम ने उन्हें अयोध्या लौटने का आमंत्रण दिया, तब भी वे बोले —”जहाँ सुमिरन तहाँ प्रभु उपजत, राम दूत अंजनि सुत जानि॥” रामराज्य की स्थापना तक, और उसके पश्चात भी, वे अदृश्य रूप में प्रभु सेवा में लीन रहे। तुलसीदासजी की मान्यता है कि हनुमान जी आज भी जीवित हैं और जहां रामकथा होती है, वहाँ वे निश्चय ही उपस्थित होते हैं।
रामकथा में हनुमान जी की भूमिका केवल ऐतिहासिक नहीं, आध्यात्मिक और सामाजिक भी है। वे धर्म के रक्षक, अधर्म के विध्वंसक, और भक्ति के मार्गदर्शक हैं। उनके चरित्र से हम सीखते हैं कि सच्चा सेवक वह होता है जो बिना स्वार्थ के, बिना अभिमान के, प्रभुकार्य में संलग्न रहे।
हनुमान जी की भक्ति हिंदू धर्म में दास्य भाव की पराकाष्ठा मानी जाती है, परंतु उनकी भक्ति केवल किसी एक भाव तक सीमित नहीं रहती — उसमें श्रद्धा, प्रेम, सेवा, त्याग, समर्पण और साहस सभी समाहित हैं। हनुमान जी ने श्रीराम को न केवल भगवान के रूप में पूजा, बल्कि एक प्रभु और सेवक के सम्बन्ध को चरम तक पहुँचाया। वे कहते हैं: “प्रभु चरित्र सुनत मन राता। राम लगन लागि गुन गाता॥”
यह भक्ति केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि सक्रिय सेवा-प्रधान है — श्रीराम का कार्य ही उनका धर्म था।
हनुमान जी ने भक्ति का जो स्वरूप प्रस्तुत किया है, वह सांकेतिक नहीं, व्यावहारिक है। वे आत्मा को कर्म और भक्ति से जोड़ते हैं, और इसीलिए वे संकटमोचन कहलाते हैं — वे भक्त की समस्याओं को केवल सुनते नहीं, समाधान भी लाते हैं। हनुमान जी ने कभी अपने लिए कुछ नहीं माँगा। जब श्रीराम ने उन्हें वरदान देने को कहा, तो उन्होंने बस इतना कहा – “चाहिए नहीं मुझे स्वर्ग, योग या भोग।
बस इतना हो – राम नाम सदा मेरे प्राणों में जोग।” इस प्रकार उनकी भक्ति निष्काम, निःस्वार्थ, और निर्मल है — जो आज के युग में भी आदर्श है। आज के युग में, जब भौतिकता और स्वार्थ जीवन के केंद्र में आ गए हैं, हनुमान जी का आदर्श जीवन और भक्ति मार्ग पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गया है।
हनुमान: अस्तित्व से परे एक प्रतीक
हनुमान को केवल एक वानर योद्धा के रूप में देखना, उनकी उपस्थिति को सीमित करना होगा। वे वानर रूप में प्रकट ज़रूर हुए, किंतु उनका कर्म, विचार और साधना का स्तर – ऋषियों और योगियों की परंपरा में आता है। रामकथा में हनुमान की भूमिका केवल एक सेवक की नहीं है, वे एक जीव से शिव बनने की प्रक्रिया को जीते हुए दिखाई देते हैं। “राम काजु कीन्हे बिनु, मोहि कहां विश्राम।” – यह केवल एक चौपाई मात्र नहीं, बल्कि सम्पूर्ण जीवन की साधना का सूत्र है। यह उस समर्पण का घोष है जहाँ ‘मैं’ नहीं रहता, केवल ‘कार्य’ रहता है। यह वही बिंदु है जहाँ व्यक्ति कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग – तीनों का एकरस अनुभव करने लगता है।
हनुमान की भक्ति: आत्म-विसर्जन का श्रेष्ठतम उदाहरण
हनुमान की भक्ति में कोई आग्रह नहीं, कोई प्रतिफल की कामना नहीं। यह वह भक्ति है जो निष्काम होकर भी फलदायी है, जो पूर्ण समर्पण में भी पूर्ण सजगता रखती है। वे न केवल ‘राम’ को प्रेम करते हैं, बल्कि उन्हें अपने अस्तित्व का केंद्र मानते हैं। तुलसीदास जी ने जब हनुमान से पूछा कि “प्रभु कहाँ हैं?” तो उत्तर मिला – “राम काज में, राम के भीतर, और उस राम में जो तुम्हारे भीतर है।” हनुमान की भक्ति एक अभ्यास है – अहंकार के क्षरण का, चेतना के विस्तार का और सेवा के माध्यम से ईश्वर के साक्षात्कार का।
हनुमान और योग
हनुमान को केवल भक्त न समझें। वे योगी भी हैं – और अद्वितीय योगी। वे महाप्राणायाम में निष्णात हैं, वे ब्रह्मचर्य के आदर्श हैं, और उनका मन – राम में अटल – स्थिर और निर्लिप्त है। अष्टसिद्धि और नव निधि उनके अधीन हैं, न कि वे इनका दास हैं। यह योग की सिद्धि का अंतिम सोपान है – जहाँ साधक साधना से परे जाकर निर्भरता से स्वतंत्र हो जाता है।
हनुमान का एक नाम है – मारुतिनंदन। यह केवल वायु के पुत्र होने का द्योतक नहीं, बल्कि यह इंगित करता है कि उनकी चेतना प्राण तत्व से जुड़ी है। प्राणायाम के माध्यम से साधक जिस स्थिति को प्राप्त करता है – वह स्थिति हनुमान का स्वभाव है। वे केवल सांस नहीं लेते, वे प्राण के माध्यम से ब्रह्मांडीय चेतना को संचारित करते हैं।
हनुमान: शक्ति और विनय का अद्वितीय समन्वय
आमतौर पर बलशाली व्यक्तियों में अहंकार आ जाता है, पर हनुमान बल के साथ विनय को लेकर चलते हैं। “बजरंग बली” होते हुए भी वे “दीनबंधु” हैं। शक्ति का यह संयमित उपयोग ही उन्हें एक असाधारण व्यक्तित्व बनाता है। जब उन्होंने लंका जलाई, तो वह उग्रता थी – पर मर्यादित। जब उन्होंने समुद्र लांघा, तो वह साहस था – पर उद्दंडता नहीं। जब उन्होंने संजीवनी पर्वत उठाया, तो वह कर्तव्य था – न कि प्रदर्शन। यही हनुमान की शुद्ध शक्ति है – वह शक्ति जो किसी को भयभीत नहीं करती, बल्कि सहारा देती है।
हनुमान: आधुनिक युग के लिए भी प्रासंगिक
आज के युग में जब मनुष्य भ्रम, तनाव, अस्थिरता और आत्मविस्मृति से जूझ रहा है, तब हनुमान का स्मरण एक आंतरिक पुनर्संयोजन का कार्य करता है। वे हमें स्मरण कराते हैं कि सत्य का पथ कठिन हो सकता है, पर असम्भव नहीं। वे हमें यह सिखाते हैं कि सेवा ही साधना है, और भक्ति ही शक्ति का मूल स्रोत। हनुमान की उपासना केवल संकट मोचन के लिए नहीं होनी चाहिए, बल्कि स्वमूल्यांकन और आत्मसुधार के लिए होनी चाहिए। उनका जीवन हमें आमंत्रण देता है कि हम भी रामत्व की खोज करें – अपने भीतर के ईश्वर को पहचानें।
हनुमान: शून्य से पूर्णता तक का सेतु
शिव के अंश से जन्मे, वानर योनि में प्रकट हुए, गुरु सूर्य से शिक्षा पाई, राम को भगवान माना – और अंततः स्वयं राम के हृदय में समा गए। यह कोई सामान्य कथा नहीं – यह एक आध्यात्मिक यात्रा है, जो यह बताती है कि हर जीव में शिवत्व है, आवश्यकता है तो केवल निष्ठा, साधना और समर्पण की। हनुमान हमें सिखाते हैं कि जीवन का उद्देश्य केवल सांस लेना नहीं है – बल्कि उस राम को ढूँढना है, जो हमारे भीतर सोया हुआ है।
उपसंहार: हनुमान के चरणों में आत्म-समर्पण
जब हम “हनुमान चालीसा” पढ़ते हैं, तो हर चौपाई एक चेतना की सीढ़ी बन जाती है। वह हमें हनुमान से जोड़ती है – और फिर उनके माध्यम से राम से। यह केवल मंत्रोच्चारण नहीं, बल्कि आत्मा के द्वार पर दस्तक है। हनुमान की साधना हमें आत्म-प्रकाश की ओर ले जाती है – जहाँ भय नहीं, भ्रम नहीं, केवल भक्ति, शक्ति और शांति है।
आइए, इस युग में जब हम तकनीक से जुड़ते जा रहे हैं, तो थोड़ी देर के लिए उस प्रणव से भी जुड़ें, जो हनुमान के भीतर सतत् गूंज रहा है। क्योंकि वहाँ – उस शांति, उस चेतना, और उस राम के चरणों में – हमारा असली घर है।





















