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भगवान महावीर: अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह के युगपुरुष – डॉ. रणजीत कुमार तिवारी

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डॉ. रणजीत कुमार तिवारी
सहाचार्य एवं विभागाध्यक्ष, सर्वदर्शन विभाग
कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत एवं पुरातनाध्ययन विश्वविद्यालय, नलबाड़ी, असम
भूमिका
भारतीय अध्यात्म परंपरा में कुछ महापुरुष ऐसे हुए हैं जिन्होंने केवल आत्मकल्याण ही नहीं किया, अपितु समस्त मानवता को नैतिकता, सहिष्णुता एवं करुणा का पाथेय प्रदान किया। भगवान महावीर ऐसे ही युगपुरुष थे, जिन्होंने न केवल तप, साधना एवं ज्ञान से आत्मोन्नति की पराकाष्ठा को छुआ, बल्कि अपने सिद्धांतों के माध्यम से सामाजिक जीवन की दिशा भी निर्धारित की। उनकी जयंती केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक नैतिक जागरण का पर्व है, जो हमें आत्मावलोकन और जीवन के सच्चे मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा का अवसर देता है।
जीवन परिचय – भगवान महावीर का जन्म ५९९ ई.पू. वैशाली गणराज्य के अंतर्गत कुंडग्राम (वर्तमान बिहार) में हुआ था। इनके पिता राजा सिद्धार्थ विदेह क्षेत्र के प्रतिष्ठित गणराज्य के अधिपति थे और माता त्रिशला लिच्छवि वंश की राजकुमारी थीं। जन्म नाम ‘वर्धमान’ रखा गया, क्योंकि वे सर्वगुणसम्पन्न थे और सतत वृद्धि को प्राप्त होते रहे। बचपन से ही उनमें दया, विवेक, त्याग एवं ज्ञान के गुण स्पष्ट दिखाई देते थे। ३० वर्ष की आयु में वर्धमान ने गृहत्याग कर दीक्षा ली और बारह वर्षों तक तप, मौन, ध्यान, एवं आत्मनिग्रह द्वारा अंतःशुद्धि प्राप्त की। अंततः उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे ‘महावीर’ के नाम से विख्यात हुए।
महावीर ने ७२ वर्षों तक इस धरती पर रहकर, अपने ज्ञान से अनगिनत लोगों को आलोकित किया। उनके प्रमुख शिष्य गौतम गणधर थे और उनके उपदेश ही जैन आगमों का मूल स्रोत बने।
महावीर का दर्शन: आत्मकल्याण से विश्वकल्याण की ओर – भगवान महावीर का दर्शन केवल आध्यात्मिक साधना का मार्ग नहीं, बल्कि एक समग्र जीवन-दृष्टि है, जो व्यक्ति के आत्मकल्याण से लेकर समाज और विश्व के कल्याण तक का पथ प्रशस्त करता है। उनके विचारों की नींव तीन बुनियादी तत्त्वों पर आधारित है, जिन्हें ‘जैन त्रिरत्न’ कहा जाता है:
सम्यक् दर्शन — सत्य की अनुभूति और समस्त जीवों के अस्तित्व के प्रति श्रद्धा। यह जीवन को केवल भौतिक दृष्टि से नहीं, अपितु आध्यात्मिक संवेदनशीलता से देखने की प्रेरणा देता है।
सम्यक् ज्ञान — वस्तुओं और विचारों को अनेक दृष्टिकोणों से समझने की क्षमता। यह दर्शन अनेकांतवाद और स्याद्वाद जैसे सिद्धांतों के माध्यम से सहिष्णुता, संवाद और समन्वय को बढ़ावा देता है।
सम्यक् चरित्र — संयम, आत्मनियंत्रण और नैतिक आचरण की भावना, जो जीवन को सादगी, सत्यनिष्ठा और अहिंसा की ओर ले जाता है।
महावीर ने आत्मशुद्धि हेतु पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया—
अहिंसा (किसी भी जीव को क्षति न पहुँचाना), सत्य (सत्य बोलना), अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य (इंद्रिय संयम), और अपरिग्रह (संपत्ति और संबंधों में आसक्ति से विरति)। उनके अनुसार आत्मा स्वतंत्र, अनादि, अनंत और चेतन है, किंतु कर्मों के बंधन में पड़कर संसार में भ्रमण करती है। तप, ध्यान और संयम द्वारा इन कर्मों का क्षय कर मोक्ष, अर्थात् पूर्ण आत्म-स्वरूप की प्राप्ति संभव है।
सामाजिक दृष्टिकोण एवं योगदान – भगवान महावीर न केवल आत्मा के मर्मज्ञ थे, अपितु समाज के गहरे चिकित्सक भी। उनके उपदेशों ने भारतीय समाज की मूल संरचना में नैतिक चेतना का संचार किया। उनके योगदान बहुआयामी रहे:
अहिंसा को केवल आध्यात्मिक साधना तक सीमित न रखकर उन्होंने उसे समाज के व्यवहारिक आचरण का मूल आधार बनाया। यह एक क्रांतिकारी दृष्टिकोण था, जिसने युद्ध, बलिप्रथा और हिंसक प्रवृत्तियों को चुनौती दी। वर्ण और जाति व्यवस्था को कर्म और गुण आधारित दृष्टिकोण से पुनर्परिभाषित किया। इस तरह उन्होंने समानता और सामाजिक न्याय के विचार को बल दिया। स्त्री सशक्तिकरण के पक्षधर रहे। हजारों महिलाओं को दीक्षा देकर उन्होंने नारी को आध्यात्मिक अधिकार प्रदान किए।
पर्यावरणीय नैतिकता उनके व्यवहार में समाहित थी — जीव रक्षा, जल शुद्धि, भूमि पर चलने की सावधानी जैसे व्यवहार आज के पर्यावरण-संवेदनशील जीवनशैली का आदर्श हैं। राजनीति में नैतिकता का प्रवेश कराते हुए उन्होंने उस युग के गणराज्यों को सत्य, अहिंसा और उत्तरदायित्वपूर्ण शासन की ओर उन्मुख किया। उन्होंने ज्ञान के प्रचार के लिए प्राकृत भाषा को माध्यम बनाया, जिससे उनके उपदेश जनसामान्य तक सहजता से पहुँच सके।
आधुनिक युग में प्रासंगिकता – आज जब समूचा विश्व हिंसा, अतिसंवेदनशीलता, उपभोगवाद और आत्मविस्मृति के संकट से जूझ रहा है, भगवान महावीर की शिक्षाएँ नवचेतना का स्रोत बन सकती हैं:
अहिंसा — यह न केवल युद्ध और आतंक के विरुद्ध एक सशक्त नैतिक विकल्प है, अपितु पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भी शांति का आधार बन सकती है।
अनेकांतवाद — वैचारिक असहिष्णुता, ध्रुवीकरण और टकराव के इस युग में यह सिद्धांत सुनवाई, समन्वय और सह-अस्तित्व की कला सिखाता है।
अपरिग्रह — भोग की अति से त्रस्त समाज को संयम, संतुलन और आत्मनियंत्रण का मार्ग दिखाता है।
आत्मनिर्भरता — “अप्पा दीपो भव” — स्वयं ही अपना दीपक बनो — यह संदेश आज के युवा को बाह्य आश्रयों की अपेक्षा अंतःशक्ति के विकास की प्रेरणा देता है।
पर्यावरणीय दृष्टिकोण — जैव चेतना के प्रति संवेदनशीलता, प्रत्येक प्राणी के जीवन का सम्मान और प्राकृतिक संतुलन का ध्यान — ये सभी आज के सतत विकास के मूल आधार हैं।
उपसंहार – भगवान महावीर केवल एक धर्मप्रवर्तक या तपस्वी नहीं थे, वे मानवता की अंतरात्मा के जागरक, नैतिक क्रांति के प्रवर्तक और शाश्वत मूल्यों के पथप्रदर्शक थे। उनका जीवन और दर्शन हमें यह सिखाता है कि धर्म का सार पूजा-पाठ में नहीं, बल्कि व्यवहार में है; करुणा, सहिष्णुता और आत्मसंयम में है। उन्होंने धर्म को लोककल्याण से जोड़ा, और आत्ममुक्ति को केवल व्यक्ति की उपलब्धि नहीं, बल्कि समाज के नैतिक उत्थान का साधन बनाया। महावीर जयंती केवल एक उत्सव नहीं, आत्मावलोकन और आत्मपरिवर्तन का आह्वान है। यह अवसर हमें स्मरण कराता है कि जीवन का लक्ष्य केवल भोग और संग्रह नहीं, बल्कि आत्मविकास, परहित और प्रकृति के साथ संतुलित सह-अस्तित्व है। आज जब मानवता दिशाहीनता, हिंसा और मूल्यहीनता के दौर से गुजर रही है, तब महावीर का पथ एक आलोकस्तंभ के समान हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने की शक्ति रखता है। अतः इस दिन हम सभी को यह संकल्प लेना चाहिए कि हम उनके सिद्धांतों को केवल स्मरण नहीं, अपितु जीवन में धारण करेंगे तभी महावीर की जयंती एक सच्ची श्रद्धांजलि बन सकेगी।

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