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आज सभी महावीर जयंती मना रहे हैं। जयंती समारोह तो अच्छा है किंतु इस अवसर पर दो बातें सोचें। पहली तो यह कि
महावीर ने किन प्रमुख सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया है और उनका सत्य स्वरूप क्या है ? यह अध्ययन, उपदेश श्रवण व पठन-पाठन का विषय है। जिस ओर सभी की प्रवृत्ति सजग होनी चाहिए, ताकि पहले तो सभी सिद्धान्तों का मर्म समझ सके और स्वयं समझकर दूसरों को भी समझा सकें। विशेष प्रचार के अभाव में अच्छे शिक्षित वर्ग में भी जैनधर्म के प्रति कई भ्रांत धारणायें हैं- जैसे कोई कहते हैं कि जैन धर्म तो वैदिक धर्म की एक शाखा मात्र है। किंतु यह गलत है और ये गलतियों तभी मिटेंगी जब जैन सिद्धांतों का विशिष्ट प्रकार से अध्ययन करके उनके सहीस्वरूप को लोगों के सामने प्रकाशित करेंगे। जयंती समारोह के दिन इस समस्या को विशेष रूप से दिल में उतार कर समाधान निकालना चाहिए।
भगवान महावीर ने अपने कल्याण के लिए दूसरों की दासता छोड़ कर अपनी ही आत्मा को जागृत करने और बलवती
बनाने की प्रेरणा दी। उन्होंने बताया कि जीवन नश्वर है और इस नश्वर जीवन में यदि कोई वृत्ति समस्त दुखों का मूल है तो वह है ममत्व वृत्ति । सुखप्राप्ति के लिए इससे निवृत्ति लेना जरूरी है।
महावीर जैसे महापुरुषों की जंयती समारोह मनाना तभी सफल माना जा सकता है, जब इनके आदर्शों को अपने जीवन
में उतारा जाये, वरना ये समारोह वगैरह नाटकरूप माना जायेगा और इनसे आत्मा में कोई जागरणा पैदा नहीं होगी।
श्रमण भगवान महावीर की वाणी जब तक राग और द्वेष के बीज मौजूद हैं तब तक कर्म के अंकुर फूटते ही रहते हैं और जब तक कर्म के अंकुर फूटते रहते हैं, तब तक जन्म-मरण का वृक्ष फलता-फूलता रहता है। संसार के बंधनों से मुक्त होने के लिए सर्वप्रथम राग-द्वेष के बंधनों से मुक्त होना चाहिए।
मानव जीवन यदि मकान के समान है तो धर्म उसकी नींव है। बिना नींव के मान-जीवन टिक नहीं सकता। अर्थात धर्म
के अभाव में जीवन मानव-जीवन टिक नहीं सकता। अर्थात् धर्म के अभाव में जीवन मानव जीवन न रहकर पाशविक
जीवन बन जाता है। जीवन को उत्तम मानवीय जीवन बनाने के लिए धर्म-रूपी नींव गहरी और पुख्ता बनाने की आवश्यकता है। धर्म-रूपी नींव अगर कच्ची रहेगी तो मानव जीवन रूपी मकान शङ्का, कुतर्क, अज्ञान, अनाचार और अधर्म आदि के तूफानों से हिल जाएगा और उसका पतन हुए बिना न रहेगा।
धर्म में दृढ़ विश्वास को स्थान न दिया जाय तो धर्म का आचरण होना कठिन हो जाएगा। दृढ़ विश्वास धर्मरूपी महल
की नींव है। मगर धर्म में जो दृढ़ विश्वास हो वह अंधविश्वास में से पैदा नहीं होना चाहिए। जो विश्वास श्रद्धा और तर्क की
कसौटी पर चढ़ा हुआ होता है, वही सृदृढ़ होता है। अतएव दृढविश्वास श्रद्धाशुद्ध और तर्कशुद्ध होना चाहिए।
भगवान महावीर निर्वाण दिवस पर भगवान महावीर का साधना मार्ग श्रमण भगवान महावीर ने साढ़े बारह वर्षों तक आत्मा की दिव्य साधना की। सुख, समृद्धि व वैभवगत आसक्तियों को त्याग कर अकिंचन बन वे सत्य की साधना में निरन्तर लीन रहे। उनका दिव्य एवं भव्य संयमी जीवन साधनामय जीवन का उत्कृष्टतम उदाहरण है।
इस जीवन का प्रत्येक पृष्ठ समता, सहिष्णुता, परदुःखकातरता, त्याग, तपस्या, ध्यान और अभय की भावना से ओतप्रोत था। उन्होंने यह दीर्घ साधना-काल मौन आत्म-चिंतन, आत्म-पर्यालोचन, उग्र ध्यान एवं उत्कट संयम की आराधना में व्यतीत किया। इस साधना काल में उन पर अनेक विपत्तियाँ एवं उपसर्ग आये। प्राकृतिक, मानवीय व देवीय संकटों के प्राणघातक तूफान प्रलयकाल की तरह घिर-धिर कर आये पर वर्द्धमान ने अदम्य साहस, अपराजेय संकल्प व आत्मबल के सहारे उनका डटकर मुकाबला किया। उन्होंने अपूर्व कष्ट- सहिष्णुता, क्षमा और तितिक्षा का आदर्श उपस्थित किया। त्याग और तपस्या की साधना का इस प्रकार आदर्श मानव-समाज में और मिलना दुर्लभ है। उनके संबंध में शास्त्रों में कहा है- “उमं च तवोकम्मं विसेसओ वद्धमाणस्स” अर्थात् अन्य तीर्थकरों की अपेक्षा वर्द्धमान का
तप विशेष उग्र था। उनके साधना-काल का रोमांचकारी वर्णन आचारांग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कन्ध के नवम अध्ययन में मिलता है। गणधर सुधर्मा स्वामी ने उनकी साढ़े बारह वर्ष की साधनाचर्या का बड़ा सजीव, रसप्रद और हृदयस्पर्शी वर्णन प्रस्तुत किया है।
इसके प्रत्येक पृष्ठ पर उनकी कष्ट-सहिष्णुता, अडिग ब्रह्मचर्य-साधना, अहिंसा और त्याग के कठिन नियमों का
परिपालन, अनुकूल-प्रतिकूल सभी परिस्थितियों में समभाव, निःस्पृहता, शारीरिक अनासक्ति, विचल ध्यान
योग और अन्तर्लीनता मुखरित है। उस साधनाचर्या का कुछ अंश यहाँ पर प्रस्तुत है।
अचेलक अणगार :- दीक्षा लेने के समय महावीर के शरीर पर एक श्वेत वस्त्र था। तेरह महिनों के बाद अचेल
परिषह के आमंत्रण रूप में उन्होंने उसे भी त्याग दिया। सर्दी, गर्मी एवं वर्षा के सभी कष्टों को उन्होंने सहन किया। भयंकर सर्दी में भी वे खुले में ही ध्यान करते थे।
अनिकेत-चर्या :- महावीर कभी निर्जन झोपड़ी, धर्मशाला, प्याऊ, लुहार की शाला में रहते, कभी मालियों
के घरों में, कभी शहर में, कभी श्मशान में रहते तो कभी उद्यान या सूने घर में या वृक्ष के नीचे रात्रि बिताते। ऐसे
स्थानों पर रहते हुए वर्द्धमान को नाना प्रकार के उपसगों का सामना करना पड़ा। सर्प आदि जीव-जन्तु उन्हें इस जाते,
गिद्ध जैसे पक्षी उन्हें काट खाते। दुराचारी मनुष्य उन्हें यातना देते, दुराचारिणी स्त्रियां उन्हें सताती, जार पुरुष उन्हें मारते, पीटते पर वे समाधि में ही तल्लीन रहते तथा वहाँ से चले जाने को कहने पर अन्यत्र चले जाते।
साधन काल का आहार :- उनके भोजन के नियम बड़े कठोर थे। निरोग होते हुए भी वे मिताहारी तथा खानपान में
संयमी थे। मान-अपमान में समभाव रखते हुए वे भिक्षाचर्या करते थे तथा कभी दीनभाव नहीं दिखाते थे। भिक्षा में रूखा-
सूखा, ठंडा-बासी व नीरस जो भी आहार मिलता, वे शांतभात से संतोष के साथ ग्रहण करते। मात्र शरीर निर्वाह के
लिए सूखे भात, मूंग, उड़द का आहार करते। एक बार निरन्तर आठ मास तक वे इसी प्रकार को नोरस आहार करते
रहे। रसों में उन्होंने कभी आसक्ति नहीं दिखाई। साढ़े बारह वर्षों के साधना काल में उन्होंने मात्र 350 दिन आहार ग्रहण
किया।
देहासक्ति का त्याग :- शरीर के प्रति वर्द्धमान की अनासक्तता रोमांचकारी थी। रोग उत्पन्न होने पर भी ये
औषधि सेवन की इच्छा नहीं करते थे। उन्होंने शरीर के विश्राम की कभी आकांक्षा नहीं की। वे दैहिक वासना से
सर्वथा मुक्त थे।
निद्रा-विजय :- श्रमण वर्द्धमान ने कभी पूरी नींद नहीं ली। जब अधिक नींद सताती तो वे शीत में बाहर निकल
थोड़ा घूमकर निद्रा दूर करते। हमेशा सजग-जागृत रहने की चेष्टा करते। वे प्रहर-प्रहर किसी लक्ष्य पर आँखें टिकाकर
ध्यान करते थे।
अनासक्ति :- वे गृहस्थों के साथ कोई संसर्ग नहीं रखते थे और न ही गृहस्थों के कार्यों में, गान, नृत्य या संगीत आदि
में कोई रुचि नहीं रखते थे। ध्यानावस्था में कुछ पूछने पर भी उत्तर नहीं देते थे। वे स्त्री-कथा, भक्त-कथा, राज-कथा।