गुरु पूर्णिमा का दिन है ।जगह – जगह संघ में उनके गुरु (संघ का भगवा ध्वज ) की पूजा हो रही है । ऐसे में भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी वाले दिन याद आ गए जब वे संघ से समन्वय बना कर चलते थे पर हाल के दिनों में संघ के कुछ नेताओं के व्यक्तव्यों के बाद 20 24 के लोकसभा में ऐसा लगा कि वो समन्वय दूर हो गया है । भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि वाजपेयी के समय में पार्टी को खुद को चलाने के लिए आरएसएस की जरूरत थी क्योंकि उस समय भाजपा कम सक्षम और छोटी पार्टी हुआ करती थी। उन्होंने कहा था कि शुरू में हम अक्षम होंगे, थोड़ा कम होंगे, आरएसएस की जरूरत थी। आज हम बढ़ गए हैं। पहले से अधिक सक्षम हैं। भाजपा अब अपने आप को चलाती है।
2024 के चुनाव भाजपा पहले से कमजोर पड़ गई तबसे भाजपा विरोधी दलों निशाने पर है। पार्टी सत्ता में है तो लाज़मी है, विपक्ष कोई कसर छोड़ना नहीं चाहेगा। वो भी तब जब चुनाव में पूर्ण बहुमत ना मिला हो। लेकिन क्या यही वजह है कि भाजपा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के निशाने पर भी है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जिससे पार्टी का अस्तित्व जुड़ा रहा है। और उससे पहले सवाल ये उठता है कि क्या वाकई भाजपा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के निशाने पर है?
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का पहले यह बयान देखें – मनुष्य है, लेकिन मानवता नहीं है, इंसानियत नहीं है, वो मनुष्य बन जाए पहले। वहां जाने के बाद लगता है कि वो सुपरमैन, अतिमानव, अलौकिक बनना चाहता है। वह रुकता नहीं। उसको लगता है देव बनना चाहिए। वो देवता बनना चाहता है। लेकिन देवता कहते हैं कि हमसे तो भगवान बड़ा है। और भगवान कहता है मैं तो विश्वरूप हूं।
इस पूरे बयान में ना तो भाजपा का जिक्र है ना ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का। लेकिन कांग्रेस समेत भाजपा के विरोधियों का कहना है कि मोहन भागवन का ये बयान प्रधानमंत्री के उस बयान पर तंज है जिसमें उन्होंने कहा कि वो नॉन-बायोलॉजिकल हैं।जब तक मां जिंदा थी, मुझे लगता था कि शायद बायोलॉजिकली मुझे जन्म दिया गया है। लेकिन मां के जाने के बाद मैं सारे अनुभवों को जोड़कर देखता हूं। तो मैं कन्विंस हो चुका हूं कि परमात्मा ने मुझे भेजा है। ये ऊर्जा बायोलॉजिक शरीर से नहीं मिल सकती। ईश्वर को मुझसे कुछ काम लेना है, इसलिए मुझे विधा भी दी है, इसलिए मुझे सामर्थ्य भी दिया है। प्रेरणा भी वही दे रहा है, पुरुषार्थ करने का सामर्थ्य भी वही दे रहा है।
इन दोनों बयानों का आपस में कोई मेल नहीं दिखता। पर भाजपा के विरोधियों के लिए इतना भर काफी था।
मोहन भागवत का ये पहला बयान नहीं था जिसे नरेंद्र मोदी या भाजपा की आलोचना के तौर पर देखा गया हो। और सिर्फ मोहन भागवत ही नहीं हैं जिन्होंने ऐसे बयान दिए। संघ के वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेश कुमार ने भी पार्टी पर अहंकारी होने का आरोप लगा चुके हैं। हालांकि बाद में उन्होंने अपने बयान को संशोधित किया। संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइज़र ने भी भाजपा के फैसलों पर सवाल उठा दिए।
मसलन, 9 जून को नई सरकार का गठन होता है और 10 जून, 2024 नागपुर में सरसंघचालक सरकार को मणिपुर के साथ-साथ मर्यादा का भी पाठ पढ़ा देते हैं। उनके बयान के अलग-अलग हिस्सों को देखते हैं।
# ‘जो मर्यादा का पालन करते हुए काम करता है, गर्व करता है, लेकिन अहंकार नहीं करता, वही सही अर्थों में सेवक कहलाने का अधिकारी है।’
# ‘मणिपुर एक साल से शांति की राह देख रहा है। बीते 10 साल से राज्य में शांति थी, लेकिन अचानक से वहां कलह होने लगी या कलह करवाई गयी, उसकी आग में मणिपुर अभी तक जल रहा है, त्राहि-त्राहि कर रहा है, उस पर कौन ध्यान देगा? जरूरी है कि इस समस्या को प्राथमिकता से सुलझाया जाए।’
ये बयान सरकार के गठन के अगले ही दिन आ गया था। और तीन दिन बीते कि इंद्रेश कुमार ने तो अहंकारी तक कह दिया। 13 जून को जयपुर में इंद्रेश कुमार ने कहा-
“लोकतंत्र में रामराज्य का विधान देखिए, जिन्होंने राम की भक्ति की लेकिन अहंकारी हो गए, उन्हें 241 पर रोक दिया। सबसे बड़ी पार्टी बना दिया, लेकिन जो वोट और ताकत मिलनी चाहिए थी, वो भगवान ने अहंकार के कारण रोक दी।”
हालांकि, इस बयान पर सरकार की ज्यादा ही फजीहत होने लगी तो इंद्रेश कुमार को क्रोस करेक्शन करना पड़ गया। कुछ ही घंटों में उन्होंने पीएम मोदी की तारीफ भी कर दी। और कह दिया कि जिन्होंने राम का विरोध किया है, सत्ता से बाहर वही गए हैं।मगर, तीर कमान से छूटने के बाद वापस नहीं लौटता। नेता सफाई कितनी भी दे लें। तो सवाल घूमफिर कर वहीं लौटता है कि क्या वाकई भाजपा और नरेंद्र मोदी संघ के निशाने पर हैं।
समस्या मनोवैज्ञानिक है। संघ और भाजपा के बीच इससे बड़े-बड़े विवाद हो चुके हैं। मौजूदा हालात में ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि कोई खटपट वाली परिस्थिति बनी हो। हां, इतना जरूर है कि दोनों के बीच बातचीत व समन्वय में कुछ कमी आ गई है।
दरअसल, राय जिस बात की ओर इशारा कर रहे हैं मसला वहीं अटका है। कहा जा रहा है कि संघ और भाजपा के बीच कम्यूनिकेशन गैप हो गया है। और संघ इस बात की उम्मीद कर रहा है कि अगर कोई गतिरोध जैसी परिस्थिति बन भी गई है तो भाजपा उसे तोड़े। संघ की तरफ से भले ही पार्टी के कामकाज को लेकर कोई आदेश ना दिया जाता रहा हो, लेकिन ऐसी परंपरा जरूर रही है कि पार्टी अपने फैसलों में संघ का मशविरा जरूर शामिल करती रही है। वाजपेयी जी के ज़माने में संघ व भाजपा का समन्वय सर्वविदित है ।हर मसले पर एक दूसरे की राय ली जाति थी ।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व लगातार तीसरी बार सत्ता में आई भाजपा को पहली बार गठबंधन की बैसाखी की जरूरत पड़ी। कहा यह भी जाने लगा कि संघ को किनारे करने का नतीजा चुनाव में भुगतना पड़ा। सत्ता पर पार्टी की पकड़ कमजोर हुई तो विरोध के वो सुर भी सुनाई देने लगे जो पिछले एक दशक से शून्य पड़े थे। भाजपा के शासन में आने के बाद पहली बार अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला। NEET और NET परीक्षा विवाद के बीच कई राज्यों में ABVP ने NTA के खिलाफ प्रदर्शन किया।
इतना ही नहीं संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइज़र में RSS विचारक रतन शारदा ने एक लेख लिखा जिसमें महाराष्ट्र में अजित पवार की पार्टी से गठबंधन करने को लेकर आलोचना की गई। उन्होंने लिखा कि NCP से गठबंधन रणनीतिक भूल थी और वही महाराष्ट्र में पार्टी की हार की वजह बनी। 10 जून को मोहन भागवत ने अपने बयान में आम सहमति की परंपरा भी याद दिलाई थी। रतन शारदा के लेख में भी इशारा उसी ओर किया गया है।
इंडिया टुडे मैग्जीन के 17 जुलाई के अंक में अनिलेश महाजन ने BJP और RSS के संबंधों पर लेख लिखा है। जिसमें उन्होंने दोनों के बीच टकराव जिन बातों को लेकर हुआ, उन्हें रेखांकित किया है। और इनमें एक अहम बिंदु भाजपा में दल बदलुओं के प्रवेश को लेकर भी है। RSS, उनसे नफरत करने वालों और दागी अतीत वालों को पार्टी में शामिल करने के पक्ष में नहीं है। जबकि भाजपा का कहना है कि किसे शामिल करना है किसे नहीं, इसको लेकर पार्टी सचेत और सतर्क है और विचारधारा को लेकर प्रतिबद्ध है।
लेकिन इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि अजित पवार से साथ गठजोड़ ने भाजपा की भ्रष्टाचार विरोधी छवि को ठेस पहुंचाया है। पवार को सालों तक देवेंद्र फडणवीस भ्रष्टाचारी बताते रहे। रैलियों में कहते रहे कि अजित पवार जेल जाएंगे। लेकिन आज महाराष्ट्र में फडणवीस अजित पवार के साथ सरकार में डिप्टी सीएम हैं।
दूसरी तरफ भाजपा की आधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक 30 राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं। जिनमें से 9 दूसरी पार्टियों से भाजपा में आए हैं। यानी लगभग एक तिहाई प्रवक्ता वो हैं जो कल तक विरोधी दलों के बैनर तले टीवी पर बैठकर भाजपा और संघ को पानी पी-पीकर कोसते थे।
अनिलेश महाजन के लेख के मुताबिक एक और बात जिसको लेकर टकराव की स्थिति बनती है वो है अहम पदों पर नियुक्तियां। संघ का कहना है कि मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और दूसरे अहम ओहदों पर अधिकारियों की नियुक्ति करते वक्त अधिक सलाह-मशविरे की दरकार है। लेकिन भाजपा का इस मसले पर कोई घोषित रुख नहीं है।
और यहां पर एक नया मुद्दा सामने आता है भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव का। द हिंदू की पॉलिटिकल एडिटर निस्तुला हेब्बार इसको लेकर एक किस्सा सुनाती हैं। वो कहती हैं-
2014 के लोकसभा चुनाव का आखिरी फेज़ खत्म होने के बाद नरेंद्र मोदी मोहन भागवत से मिलने गए। तब दोनों इस बात से आश्वस्त हो चुके थे कि इस बार भाजपा की ही सरकार बनने जा रही है। तब पार्टी के अध्यक्ष थे राजनाथ सिंह। नरेंद्र मोदी ने कहा कि राजनाथ तो अब सरकार में आएंगे। गडकरी मंत्री बनेंगे। और उन्होंने इशारों-इशारों में ये बता दिया था कि पार्टी अध्यक्ष उनकी ही पसंद का होगा। और पार्टी अध्यक्ष बने भी मोदी के खास अमित शाह। यहां से दूरियां बननी शुरू हो गई थीं। इसके बाद पार्टी और संघ में समन्यवयक के पद की बारी आई। संघ के पदाधिकारी 7 RCR (अब लोक कल्याण मार्ग) गए उनसे बात करके ही कृष्ण गोपाल को समन्यवयक बनाया गया। 2019 में जब 300 से ज्यादा सीटें आ गईं, तो सरकार और संघ में दूरियां ज्यादा बढ़ गईं। लेकिन इस बार 240 सीटें आने पर संघ भी ये कह रहा है कि हमारी भी सुनी जानी चाहिए थी ।
दरअसल, संघ और भाजपा दोनों इस बात को बखूबी जानते हैं कि दोनों को ही एक-दूसरे की जरूरत है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भाजपा के सत्ता में काबिज होने के बाद संघ के विस्तार की राह आसानी हुई है। इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक 2014-15 में देशभर में 33,333 स्थानों पर संघ की कुल 51,330 दैनिक शाखाएं लगती थीं, जो 2022-23 में बढ़कर 68,651 पहुंच गईं। साथ ही 12,847 साप्ताहिक मिलन समारोह बढ़कर 26,877 पर पहुंच गए हैं। ऐसा संभव नरेंद्र मोदी सरकार में ही हुआ है।
दूसरी तरफ लोकसभा के चुनावी नतीजे देखकर भाजपा भी इस बात को समझ चुकी है कि संघ की जमीनी पकड़ से हाथ छुड़ाकर नुकसान ही होना है। इसी साल महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में चुनाव होने हैं। और तीनों ही राज्यों में फिलहाल भाजपा बहुत अच्छी स्थिति में नजर नहीं आ रही है। लोकसभा में बहुमत से पिछड़ने के बाद अगर भाजपा राज्यों में चुनाव हारती है तो गठबंधन में पकड़ कमजोर हो सकती है।
अशोक भाटिया,
वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार
लेखक 5 दशक से लेखन कार्य से जुड़े हुए हैं
पत्रकारिता में वसई गौरव अवार्ड से सम्मानित,
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