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मन का द्वंद

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मेरे मन के अंदर
है एक महा समंदर,
अथाह गहराई है समेटे
जिसके तल में लेटे,
हुए हैं हर्ष-विषाद
मेरे जीवन का अवसाद।
ज्वार-भाटा के जैसे
आते हैं अक्सर वैसे,
होकर लहरों पर सवार
चाहते हैं करना वार,
असंख्य मुझ पर प्रहार
ताकि मैं जाऊं हार।
पूछते हैं भीषण सवाल
होता है मुश्किल हाल,
मेरी एक ही कामना
कर सकूं उनका सामना,
जीतू या मैं हारूँ
ठोंक सीना मैं दहारु।
विषाद हो या हर्ष
स्वीकार है उभय सहस्र/सहर्ष,
एक का मैं जिम्मेदार
दूजा पर फोड़ू भार,
ऐसा मैं कायर नहीं
भले हार जाऊं सही।
मन में मचा द्वंद्व
जीवन का अतुलित आनंद,
प्रसन्नता-विषन्नता, निंदा-प्रसंशा
विविधतामय जीने का मंशा,
वीर लेते हैं शपथ
आजीवन चुनेंगे उभय पथ

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