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विश्व कभी दो महा शक्तियों के बीच बंटा दिखाई देता था, एक तरफ साम्यवादी रूस तो दूसरी तरफ पूंजीवादी अमेरिका। बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में सोवियत रूस के विघटन के बाद उसने महाशक्ति का अपना स्वरूप खो दिया विगत वर्षों से युद्धरत रूस और भी कमजोर होता जा रहा है, और अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष की आज कल की हरकतें महाशक्ति हाथ से निकलने की छटपटाहट ही है।अमेरिका फर्स्ट का नारा देने की आवश्यकता इसी लिए पड़ी क्योंकि उन्हें अपनी शक्ति कम होती और प्रासंगिकता समाप्त होती लग रही है। विश्व ने अनुभव किया कि इन महाशक्तियों ने किसी को सुख और शांति नहीं दी बल्कि सबको समाप्त करने की चाहत रखी। इन शक्तियों के उदय के समय विश्व में बंदर बांट मची हुई थी। यह शाश्वत सत्य है कि जो किसी की अशांति का कारण बनेगा उसका जीवन कभी शांति पूर्वक नहीं चलेगा, चाहे वह कोई व्यक्ति हो, समाज हो या राष्ट्र हो। शक्ति को प्राप्त करना एक बात है और उसे दीर्घ काल तक संचित रखना उससे भी अधिक महत्व की बात है, और शक्ति तब तक ही रहती है जबतक उसका उपयोग सकारात्मकता में होता रहता है। भारत अनेक शताब्दियों तक विश्व की बड़ी शक्ति बनकर इसलिए रहा क्योंकि हमारे विचार में सभी का कल्याण करना प्राथमिकता में रहा है। हमारी शक्ति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हजार वर्षों के निरंतर आक्रमण के बाद भी हम न केवल अड़े हुए हैं बल्कि हम सीना ताने खड़े भी हैं।जैसा आजकल चल रहा है ऐसे में क्या अमेरिका या रूस 10-20 वर्षों तक भी आक्रमण झेल सकेंगे? और क्या उसके बाद इनका अस्तित्व बचेगा?
सागर शर्मा शिलचर, असम





















