25 Views
‘कीचड़’ शब्द सुनते ही हर किसी को एक अजीब सिहरन-सी उठने लगती है। कीचड़-मिट्टी के नाम पर हम सभी अपने मुंह को बिचकाने लगते हैं।कीचड़ हो या मिट्टी, कोई भी इनसे दूर ही रहना चाहते हैं। काफ़ी समय पहले, शायद अब भी टीवी पर विचार हम सभी ने देखा है -‘दाग अच्छे हैं।’ मतलब-‘ स्टेन्स आर गुड।’ बहुत सालों से हम यह विज्ञापन देख रहे हैं, इस विज्ञापन की सबसे अच्छी बात यह है कि यह विज्ञापन के रूप में ही सही कहीं न कहीं हम सभी को अपनी जमीन, अपनी संस्कृति, अपनी आबोहवा, अपनी मिट्टी की खुशबू से जोड़ता प्रतीत होता है। प्रकृति का मूल तत्व है-‘ मिट्टी।’ लेकिन आज के इस आधुनिक दौर में हम सब अपनी ‘मिट्टी'(प्रकृति का मुख्य तत्व) से एक तरह से दूर होते जा रहे हैं। प्रकृति(मिट्टी ) के सानिध्य में हम आज शायद नहीं रहना चाहते। आज हम अपने बच्चों को मिट्टी में नहीं खेलने देना चाहते, क्यों कि हमें मिट्टी से ‘गंदगी’ या ‘गंदा’ हो जाने का भान आता है। अक्सर हम सोचते हैं कि यदि हमारे बच्चे मिट्टी में खेलेंगे तो उनके कपड़े गंदे हो जाएंगे, वे बीमार पड़ जाएंगे वगैरह वगैरह। खैर, यह बात कहीं न कहीं ठीक भी है और ठीक इसलिए क्यों कि आज हमारा पर्यावरण पहले की तुलना में कहीं अधिक प्रदूषित हो गया है और आज मिट्टी भी प्रदूषण से अछूती नहीं बची है। लेकिन जो भी हो, मिट्टी का मानव जीवन में बहुत ही अहम् और महत्वपूर्ण स्थान है। आदमी इस धरती (मिट्टी)पर पैदा होता है और आखिर में इसी में(मिट्टी) मिल जाता है। सृष्टि का जीवन-मरण का अपना एक चक्र है। लेकिन यदि हम हमारी सनातन संस्कृति की बात करें तो हम पाएंगे कि पहले के जमाने में हम मिट्टी के बरतन इस्तेमाल में लेते थे। खेत में, कच्ची-पक्की सड़कों पर पैदल नंगे पैर चला करते थे। जमीन के साथ सीधा चुंबकीय कांटेक्ट था, जो हमारे शरीर, हमारे स्वास्थ्य के लिहाज से बहुत अच्छा था। हमारी संस्कृति में, धर्मग्रंथों में भगवान श्री कृष्ण द्वारा बाल्यकाल में मिट्टी खाने तक का वर्णन मिलता है। कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने बाल्यकाल में जहां मिट्टी खाई थी, वह स्थान मथुरा के महावन क्षेत्र में ब्रह्मांड घाट हैं। पाठक जानते होंगे कि मैया यशोदा को यहां भगवान के मुख में ब्रह्मांड के दर्शन हुए थे। उल्लेखनीय है कि यहां स्थित ब्रह्मांड बिहारी मंदिर में आज भी भगवान को मिट्टी के पेड़ों का भोग लगता है। मतलब यह है कि हम भारतीय लोग सदा-सदा से अपनी माटी से जुड़े लोग हैं, ज़मीन से जुड़े लोग हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि मिट्टी के साथ हमारे जीवन का गहरा सम्बंध रहा है। यहां तक कि मानवीय सभ्यताओं का विकास मिट्टी के गुणों के आधार पर हुआ है। इसीलिए नदियों सहित जलस्रोतों से लगी भूमि एवं उसकी मिट्टी को मानव ने अपनी कृषि, पशुपालन समेत अनेक गतिविधियों का केंद्र बनाया है। सच तो यह है कि प्रकृति और प्राणियों की पोषक मिट्टी ही तो है। कहना ग़लत नहीं होगा कि अलंकरणों के लिए धातु, धन-धान्य देने वाली मिट्टी पृथ्वी की प्रतिनिधि पहचान है। वास्तव में देखा जाए तो यह मिट्टी ही है जो अनेक गुणों की निधि है। सच तो यह है कि यह(मिट्टी ) प्रकृति-विज्ञान की अनुपम व नायाब रचना होने के साथ ही मृदा यानी कि मिट्टी अमृत है। एक प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक में एक लेखक/पत्रकार ने क्या खूबसूरत लिखा है कि -‘मिट्टी हांकी जाती है तो शस्य श्यामल खेत धान्य से लहलहाते हैं, खलिहान में परिश्रम दानेदार होता है। मिट्टी पाथी जाती है तो गारे के घर सिर उठाते हैं। रंग दिखाती है तो आंगन और भित्तियां दीप्तिमान होती हैं। पोती जाती है तो द्वार और देहरी ही नहीं, देह भी निखर उठती है; और संस्कारित होती है तो देवी-देवताओं की मूर्तियां आकारवान होती हैं। दबाई जाती है तो नींव हो जाती है और निकाली जाती है तो कुआं-बावड़ी और सर-सरोवर होकर जल के भंडार रच देती है।’ मतलब यह है कि ‘मिट्टी बिन इस संसार में कुछ भी नहीं है।’ आज हम आधुनिकता के युग में जी रहे हैं, जहां तकनीक और विज्ञान का बोलबाला है, लेकिन मिट्टी तो हमारी पहचान है, हमारी सनातन संस्कृति का हिस्सा है, दीवाली पर और शुभ अवसरों पर हम मिट्टी के दीप जलायें हैं, पहले मिट्टी से घर-बार लीपे जाते थे, चूल्हे मिट्टी के थे। आज भी कभी-कभार हम मिट्टी के कुल्हड़ में चाय पीते हैं और अपनी सनातन संस्कृति, परंपराओं को महसूस करते हैं। आज की जिंदगी तेज रफ्तार जिंदगी है, आपा-धापी, दौड़-धूप भरा जीवन है, लोगों के पास समय का अभाव हो गया है, दूसरों के लिए तो दूर की बात, मनुष्य के पास स्वयं अपने लिए भी आज समय नहीं बचा है। आज हम अपने बच्चों को मिट्टी में स्वच्छंद रूप से खेलने नहीं देते हैं। तकनीक में रम-बस कर वर्चुअल वर्ल्ड में बच्चे आज जी रहे हैं, प्रकृति का सानिध्य उन्हें आज प्राप्त नहीं हो रहा है। प्रकृति की गोद में स्वच्छंद रूप से खेलने-कूदने से व्यक्तित्व का स्वाभाविक और नैसर्गिक, सर्वांगीण विकास होता है। पुराने जमाने में छोटे बच्चे सारा दिन मिट्टी में ही खेलते रहते थे, और वे निश्चित तौर पर आज की युवा पीढ़ी से हर तरह से(मानसिक और शारीरिक दृष्टिकोण से) कहीं अधिक स्वस्थ रहते थे। बच्चों को मिट्टी में खेलने देने से स्वास्थ्य की दृष्टि से उन्हें कई तरह के फायदे हो सकते हैं। मिट्टी में अनेक प्रकार के खनिज, जल, वायु, कार्बनिक पदार्थ और अनगिनत जीवों के जटिल मिश्रण पाए जाते हैं। धरती(मिट्टी) में अनोखी चुंबकीय शक्ति होती है, जो हमारे ब्लड सर्कुलेशन को हमेशा अच्छा व दुरस्त बनाए रखती है। कहना ग़लत नहीं होगा कि मिट्टी में पाए जाने वाले बहुत से तत्त्व छोटे बच्चों की त्वचा के लिए बहुत ही फायदेमंद होते हैं। जब बच्चे मिट्टी में खेलते हैं तो खेलने से उनकी त्वचा के बहुत से रोमकूप खुल जाते हैं, जिससे शरीर की गंदगी बाहर निकल जाती है और संपूर्ण शरीर का रक्त-संचार भी अच्छे तरीके से होता है। विज्ञान भी मानता है कि बच्चों को मिट्टी में खेलने देने से उन्हें बड़ी से बड़ी बीमारी की चपेट में आने से भी बचाया जा सकता है। आज बच्चे इनडोर गेम्स में व्यस्त रहते हैं अथवा वर्चुअल वर्ल्ड में, इससे उनका शारीरिक और मानसिक विकास अवरूद्ध होने लगता है। बच्चों में आज ब्रेन रोट(सड़ा मस्तिष्क) की समस्या जन्म ले चुकी है। मिट्टी की भीनी-भीनी खुशबू/महक और मिट्टी में उपस्थित अनेक सूक्ष्म लाभदायक कीटाणु बच्चों के मिजाज को हमेशा खुशनुमा बनाए रखते हैं। मिट्टी बच्चों में तनाव, अवसाद को कम करने में सहायक है, गर्मी में मिट्टी बच्चों के शरीर को शीतलता और ठंडक प्रदान करती है। बारिश में जब मिट्टी गीली हो जाती है तो बच्चे मिट्टी में घरौंदे बनाकर बहुत खुश होते हैं और उनमें रचनात्मकता का भरपूर विकास होता है। पुराने जमाने में तो छोटी-मोटी चोट लग जाने पर मिट्टी का लेप कर लिया जाता था, लेकिन आजकल शहरों व अनेक स्थानों पर मिट्टी प्रदूषित हो चुकी है, इसलिए संक्रमण हो जाने/फैलने से लोग चोट पर मिट्टी का लेप करने से डरते हैं। आज बड़े शहरों में मुल्तानी मिट्टी का ‘फेसपैक’ लगाया जाता है। गांवों में तो इस मिट्टी(मुल्तानी मिट्टी) से बाल भी धोये जाते हैं जो बालों को मुलायम, चिकना और रेशम-सा सुंदर व आकर्षक बनाती है। आज बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो चली है, क्यों कि उन्हें मिट्टी का सानिध्य प्राप्त नहीं है। पहले बच्चे मिट्टी में दिनभर खेलने-कूदते रहते थे, उनका इम्यून सिस्टम मजबूत बना रहता था। पाठकों को जानकारी देता चलूं कि अमेरिका की ‘यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल’ में हुए एक शोध के अनुसार जो मां-बाप अपने बच्चों को बचपन में मिट्टी में खेलने से रोकते हैं, उन बच्चों को आगे चल कर रक्तचाप(बीपी) और अन्य कई खतरनाक बीमारियों के होने का खतरा कई गुना ज्यादा बना रहता है, बनिस्बत उन बच्चों के जो स्वच्छंद रूप से खुले, कच्चे मैदानों या पार्कों में खेलते रहते हैं। इसलिए हमें यह चाहिए कि हम अपने बच्चों को जितना हो सके, खुले वातावरण में, प्रकृति की गोद में हंसने और खेलने के लिए भेजें।आज मनुष्य अपने को सभ्य बनने की डींग हांकता है। आज वह प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति करता जा रहा है, एआई तक का कंसेप्ट आ गया है। कहा गया है कि ‘शरीरं व्याधि मंदिरम्’ मतलब यह है कि मानव शरीर व्याधि का घर है। महसूस किया जाए तो हमारी प्रकृति ही इसे बचा सकती है।हमारे इस शरीर-यंत्र की रचना पंच तत्वों द्वारा अग्नि, वायु, जल, आकाश एवं पृथ्वी- हुई है। अतः इस शरीर को स्वस्थ रखने के लिए केवल इन पंच तत्वों की ही आवश्यकता है तथा इन्हीं तत्वों द्वारा रोग निवारण हो सकता है। मिट्टी भी ऐसा ही एक तत्व है। अतः हमें यह चाहिए कि हम प्रकृति की गोद का सानिध्य प्राप्त करके अपने जीवन को स्वस्थ, सुंदर व अच्छा बनायें। अंत में यही कहूंगा कि मिट्टी की कोख में, अनेक रत्नों का भंडार है। मिट्टी में ही सोना तो, मिट्टी में ही हीरा है। मिट्टी ने ही अन्न दिया है, और मिट्टी ने ही धन। आओ हम मिट्टी की महिमा को मानें,मिट्टी की महिमा को जानें।
सुनील कुमार महला, फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार, उत्तराखंड।
मोबाइल 9460557355/9828108858