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राजनीति की आग में झुलसती भारतीय भाषाएँ।

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कोई भी युग रहा हो, बांटो और राज करो की नीति का प्रयोग राजनीति में कमोबेश सदैव होता रहा है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था मैं जहाँ विभिन्न समुदायों के वोट पाने होते हैं और वोट बैंक बनाने होते हैं, वहाँ राजनीतिक रूप से जोड़ने के बजाय तोड़ने की बात अधिक लाभकारक सिद्ध होती है।
भले ही नेताओं द्वारा राष्ट्रीय एकता सद्भाव और समरसता की बातें की जाती हों, सच तो यह है कि सत्ता समीकरण साधने के लिए नेताओं द्वारा देश की जनता को बांटने के लिए जाति, मजहब, क्षेत्र, भाषा, लिंग, आयु, व्यवसाय आदि के नाम पर बांटने के लिए नेता निरंतर नए-नए तरीके खोजते रहते हैं। इन उपकरणों के आधार पर वे लोगों को लड़ाते और बांटते रहते हैं।
 अलग-अलग वर्ग के नेताओं के बांटने के और लोगों को लड़ाने के अलग-अलग तरीके हैं, जिनके माध्यम से लोगों की भावनाएँ भड़काई जाती हैं, आग लगाई जाती है। इसीप्रकार अलग-अलग राज्यों में बांटने के अलग-अलग तरीके कारगर होते हैं।
ऐसा नहीं है कि ये नेता इस बात को नहीं जानते कि इससे देश का कितना नुकसान होता है,  राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सद्भाव पर इसका कितना प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, लेकिन इसकी चिंता किसे है? षड्यंत्रकारी भले ही राजनीतिक वर्ग हो लेकिन उनकी सफलता उस जनता पर निर्भर करती है जो बार-बार उनके झांसे में आ जाती है।  नेताओं को भी यह समझ में आता है कि राष्ट्रीय एकता के बजाय देश के लोगों को अलग-अलग मुद्दों पर बांटकर अधिक राजनीतिक लाभ बटोरा जा सकता है। आपसी सद्भाव के बजाए विद्वेष और घृणा से वोटो का झोला सरलतापूर्वक भरा जा सकता है।
तमिलनाडु में आजादी के बाद से ही द्रविड़ राजनीति के नाम पर लोगों को बांटने वाले नेता लगातार आर्य-द्रविड़ के नाम पर, उत्तर-दक्षिण के नाम पर, हिंदू धर्म का विरोध के नाम पर,  संस्कृत और तमिल के नाम पर और फिर हिंदी विरोध के नाम पर तमिलनाडु में लोगों के बीच क्षेत्रीयता की भावनाएं भरकर वोटो की झोली भरते और सत्ता पाते रहे हैं।
एक बार फिर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन नई शिक्षा नीति में त्रिभाषा सूत्र को लेकर तमिल लोगों पर हिंदी थोपने का आरोप लगा रहे हैं। यह तमिलनाडु की राजनीति का एक आजमाया हुआ फार्मूला है।
भाषा के नाम पर सर्वप्रथम और सर्वाधिक आग तमिलनाडु में ही लगती रही है।  लेकिन भाषाओं और बोलियों के नाम पर देश को बांटने का काम अन्य प्रदेशों में भी होता रहा है। आमतौर पर यह आग स्थानीय भाषा और बोली आदि के नाम पर लगाई जाती हो लेकिन इससे कभी स्थानीय भाषा/ बोली का भला हुआ हो ऐसा दूर-दूर तक नजर नहीं आता। अगर इसका लाभ कभी किसी को हुआ है, तो वह भाषा है ‘अंग्रेजी’। भाषा के नाम पर आग लगने वाले ज्यादातर राजनीतिक दल और नेता जाने – अनजाने भारतीय भाषाओं को नुकसान तथा  विभिन्न प्रदेशों के लोगों के बीच भाषाई वैमनस्य और अंग्रेजी को लाभ पहुंचाते हैं।
तमिलनाडु और दक्षिण के राज्यों सहित विभिन्न राज्यों में समय-समय पर हिंदी विरोध के नाम पर आग लगाई जाती रही है। इसलिए नई शिक्षा नीति में भारत सरकार द्वारा जो त्रिभाषा सूत्र बनाया गया है उसमें हिंदी या किसी अन्य भाषा को अनिवार्य नहीं किया गया ताकि जनता अपनी आवश्यकताओं के अनुसार दो भारतीय भाषाएँ और तीसरी भाषा के रूप में अंग्रेजी अथवा अन्य कोई भाषा पढ़ सकें। इस नीति में जहाँ एक ओर इस देश के विद्यार्थियों को उनकी इच्छा और आवश्यकता के अनुसार भाषाएँ पढ़ने की पूर्ण स्वतंत्रता दी गई है, वहीं यह आरोप लगाने की गुंजाइश भी नहीं बचती कि किसी पर कोई विशेष भाषा थोपी जा रही है।
लेकिन भाषा की राजनीति करने वाले तमिलनाडु के नेताओं को यह बात कैसे रास आती। ऐसे में उन्होंने भाषाई राजनीति करने के लिए कहा तीन भाषा क्यों ?  दो भाषा क्यों नहीं ? ताकि वे तमिल और अंग्रेजी को अनिवार्य करके हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा को तमिलनाडु में पढ़ाने से वहां की जनता को वंचित कर सकें और इसमें हिंदी विरोध की बात निकाल कर फिर से भाषायी वैमनस्य के माध्यम से वोटो की झोली भर सकें। अगर देखा जाए तो द्रविड़ मुनेत्र कड़गम की समग्र राजनीति में हर स्तर पर अलगाववाद की बू आती है। जो कभी उत्तर-दक्षिण के नाम पर, आर्य-द्रविड़ के नाम पर संस्कृत और तमिल के नाम पर, कभी सनातन धर्म के विरोध के नाम पर और कभी हिंदी विरोध के नाम पर निकाल कर आती है।
ऐसी ही कोशिशें दक्षिण भारत के अन्य राज्यों में भी होती रही है। जिनमें सबसे प्रमुख है – कर्नाटक। मजे की बात यह है कि यहां पर हिंदी विरोध को सर्वाधिक शक्ति जिस दल से मिलती है, वह कांग्रेस है, जो एक राष्ट्रीय दल है, जो स्वयं को महात्मा गांधी की पार्टी कहता है। वही महात्मा गांधी, जिन्होंने हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी। अगर देखा जाए तो भाषा के नाम पर कांग्रेस के दो मुंह रहे हैं। उत्तर में अलग, दक्षिण में अलग। मौकापरस्ती का आलम यह है कि जब दक्षिण में हिंदी पर हमले होते हैं तो उत्तर भारत के नेता चुप्पी साधकर मौन समर्थन देते हैं।
पिछले कुछ वर्षों में नेताओं ने हिंदी की घटक बोलियों /भाषाओं के बीच आग लगाकर राजनीतिक रोटियां सेंकने की कोशिश भी कुछ कम नहीं की। भले ही आम जनता की ऐसी मांगों में कोई रुचि न रही हो लेकिन अलग-अलग राज्यों में वहां प्रचलित बोलियां को संविधान की अष्टम अनुसूची में हिंदी के समक्ष स्थान देने की मांग पिछले समय से लगातार उठाती रही हैं। इन मांगों में भले ही आम जनता को क्षेत्रीय भावनाएं उकसाकर शामिल किया जाता है, लेकिन इसके प्रमुख लाभार्थी राजनेता हैं, जो इस नाम पर वोट बटोरना चाहते हैं।  वे लालची साहित्यकार आदि हैं जिन्हें लगता है कि बिना उच्च साहित्य के उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल जाएगा या अकादमी संस्थान आदि के जरिए उनकी दुकानें चलेंगी, कुछ नौकरियां और पद मिलेंगे। सिविल सेवा परीक्षाओं में बोलियों के माध्यम से सफलता पाने के इच्छुक अक्षम विद्यार्थी भी इस भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं। भले ही, वे स्वयं भी उन भाषा /बोलियां का बोलचाल में भी प्रयोग न करते हों। अब स्टालिन ने  हिंदी को हिंदी भाषा क्षेत्र की बालियां से लड़ाने के लिए अभी यह बयान दे दिया है कि हिंदी इस क्षेत्र की सभी बालियां और भाषाओं को खत्म कर रही है। हो सकता है यह इंडिकेटर बंधन की सूची समझी चाल हो ताकि हिंदी के विरुद्ध वातावरण हिंदी त्रिभाषी क्षेत्र में ही नहीं उत्तर भारत में भी बनाया जा सके और लोगों को बांटा जा सके।
पिछले दिनों एक सज्जन किसी बोली भाषा की भारी वकालत और हिंदी का तीव्र विरोध करते हुए सोशल मीडिया पर लगातार पोस्ट डाल रहे थे, लेकिन सभी पोस्ट केवल हिंदी में थे। लेकिन जब हमने कहा कि भाई आप जिस बोली का समर्थन कर रहे हैं, उसे बोली में तो लिखिए तो सही, बार-बार कहने पर वे टूटी – फूटी अंग्रेजी में लिखने लगे। क्योंकि वे अच्छी तरह जानते थे कि हिंदी के बजाय वे  जिस बोली/भाषा की वे वकालत कर रहे हैं, उसमें लिखेंगे तो उसे कोई समझेगा ही नहीं।
अब लगे हाथों उन राजनीतिक दलों की बात भी कर ली जाए, जो अपने को समाजवादी कहते हैं। जो अपने को राम मनोहर लोहिया की विचारधारा के उत्तराधिकारी मानते हैं। वही राम मनोहर लोहिया जो हिंदी और भारतीय भाषाओं के सबसे बड़े समर्थक थे। जिन्होंने हिंदी की बहुत बड़ी लड़ाई देश में लड़ी। लेकिन आज स्थिति यह है कि जब देश में कहीं भी और किसी भी तरह हिंदी का विरोध होता है तो ये कथित समाजवादी रेत में नाक घुसा कर बैठ जाते हैं। जिस प्रकार कांग्रेस चुप्पी साध लेते हैं, उसी प्रकार ये समाजवादी दल भी हिंदी विरोध पर चुप्पी साथ कर बैठ जाते हैं। जबकि ये दल पूर्णतः हिंदी भाषी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं।
आज स्थिति यह है कि कोई भी ऐसी बात जिससे राष्ट्रीय एकता मजबूत होती हो, ये उससे किनारा कर लेते हैं। जात, मजहब, क्षेत्रवाद, भाषा बाद आदि जिन मुद्दों पर देशवासियों को बांटा जा सकता है, ये तलवार लेकर सबसे आगे खड़े होते है। हाल ही में संसद में प्रस्तुत अवैध प्रवासी नियंत्रण विधेयक पर भी विपक्षी दलों ने बवाल काटा है। यानी यह खुल्लम-खुल्ला घुसपैठ करवाने के पक्ष में खड़े हैं।  देश के मतदाताओं को भी ये बातें देखनी- समझनी चाहिए।
अगर भाषा विरोध के मामले को बारीकी से देखा जाए तो यह सच सामने आता है कि राजनीतिक दल अपने राजनीतिक लाभ – लोभ के लिए न केवल देशवासियों के बीच परस्पर वैमनस्य पैदा कर रहे है बल्कि देश के विद्यार्थियों के विकास और प्रगति के अवसरों में अवरोध डाल रहे हैं। नई शिक्षा नीति कहती है कि बच्चों के स्वाभाविक विकास के लिए प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में दी जाए तो इससे किसका विरोध हो सकता है? इसमें किस स्थानीय भाषा का विरोध है? लेकिन जिन्होंने गुलामी की चादर ओढ़ रखी है उन्हें यह भी मंजूर नहीं। इस नीति में यह कहा गया है कि विद्यार्थी अपनी इच्छा से कोई भी दो भारतीय भाषाएं और अन्य अंग्रेजी या अन्य भाषा चुन सकता है। इसमें थोपने की बात कहां है? लेकिन नेता अच्छी तरह जानते हैं कि ज्यादातर विद्यार्थी अपने हित के लिए, शिक्षा और रोजगार के अवसरों को देखते हुए मातृभाषा के अतिरिक्त स्वेच्छा से हिंदी और अंग्रेजी को चुनना चाहेंगे। यही बात नेताओं को पसंद नहीं आ रही। कुल मिलाकर वे जनता की इच्छा के प्रतिकूल जा रहे हैं। वे अपने ही प्रदेश की जनता के आगे बढ़ने के अवसरों को सीमित कर रहे हैं, उनकी प्रगति के मार्ग अवरुद्ध कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में तमिलनाडु के जो नेता वर्तमान शिक्षा नीति का विरोध कर रहे हैं, वे अपनी जनता की आकांक्षाओं का विरोध कर रहे हैं। ऐसे देश-विरोधी जन-विरोधी नेताओं का विरोध भी खुलकर होना चाहिए।
जब तक जनता स्वयं जागरुक और समझदार नहीं होगी और महत्वाकांक्षी नेताओं द्वारा जनता को बांटने के षडयंत्रों के प्रति सतर्क सचेत होकर इनका विरोध नहीं करेगी, ये देश-विरोधी, जन-विरोधी नेता लोगों को बांटने की चालें चलते रहेंगे। बात केवल भाषा की नहीं है, जात, मजहब, क्षेत्र, समुदाय आदि के नाम पर लोगों को बांटने और लड़ाने वाले नेताओं का विरोध भी जरूरी है।
डॉ मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
पूर्व क्षेत्रीय उपनिदेशक, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय तथा निदेशक, वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई

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