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“राजभाषा हिन्दी के 75 वर्ष… मंज़िलें अभी बाकी हैं…”–डॉ इन्दु गुप्ता

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सृष्टि के आरम्भ से ही मनुष्य को स्वयं को अभिव्यक्त करने की आवश्यकता रही है; निश्चित ही भाषा की उसमें महत्वपूर्ण भूमिका भी रही होगी। दुनिया-भर में हमारी संस्कृति हमारी समृद्ध परम्परा और हमारे गुरूत्व का प्रचार प्रसार करने का श्रेय जिसे जाता है वह है हमारी भाषा हिन्दी। संस्कृत की ज्येष्ठा-आत्मजा है हिन्दी। जैसे कि भारतेंदु हरिश्चंद्र का कथन है “चार कोस पर पानी बदले आठ कोस पर बानी। बीस कोस पर पगड़ी बदले तीस कोस पर धानी।“ इसके साथ ब्रज अवधी भोजपुरी राजस्थानी पहाड़ी बुंदेली बघेली मागधी छत्तीसगढ़ी और जाने कितनी उपजन भाषाओं के शब्द-भण्डार मुहावरे और उसकी लोकोक्तियां हमारी हिन्दी में रच बस गए हैं। हिन्दी हमारी, हमारे भारत, हमारे जीवन मूल्यों, संस्कृति की सच्ची संवाहक है। हमारी एकता का सूत्र है। उसके पास ऐसे अमर-साहित्य की विशाल परम्परा है जो विश्व के पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करता है क्योंकि हमारी हिन्दी पुरातन और आधुनिक दोनों है। इसमें जो लिखा जाता है। वह उसी रूप में पढ़ा भी जाता है। इसमें गूंगे अक्षर नहीं होते, इसके सारे अक्षर शुद्ध और साफ-साफ बोलते हैं। इसके लेखन और उच्चारण में स्पष्टता है। एक और विशेषता यह कि इसमें निर्जीव वस्तुओं संज्ञाओं के लिए भी लिंग का निर्धारण होता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने यह भी कहा है “निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।बिन निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय को शूल।”स्वतंत्रता के बाद देश के जनमानस और उसकी अस्मित और अंतस का आदर करते हुए हिन्दी को देवनागरी लिपि में राजभाषा के रूप में अपनाया गया तथा संविधान  में भाग 5, 6, 17 में हिन्दी के बारे में स्पष्ट प्रावधान किया गया। इन पिचहत्तर वर्षों में हिन्दी ने अपने विकास के अनेक सोपान पार किये। राजभाषा के विकास हेतु विभिन्न केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, वैज्ञानिक तथातकनीकी शब्दावली आयोग, केन्द्रीय हिन्दी प्रशिक्षण संस्थान, तकनीक-कक्ष इत्यादि की स्थापना की गई है। हंै।खड़ी-बोली ही आज हिन्दी के रूप में प्रतिष्ठित है। भाषिक-स्तर तथा रचनात्मक-स्तर पर यह दिन प्रतिदिन परिमार्जित एवं व्यवस्थित होकर विश्वस्तरीय भाषा के रूप में उभरकर सामने आ रही है।खड़ी बोली साहित्यिक हिन्दी जो आज हिन्दी प्रदेशों की सरकारी भाषा है। पूरे भारत की राष्ट्र-भाषा है। समाचार-पत्रों और फिल्मों में जिसका प्रयोग होता है जो हिन्दी-प्रदेश में शिक्षा का माध्यम है और जिसे परिनिष्ठित मानक हिन्दी आदि नामों से अभिहित करते हैं। यह भारत की राजभाषा होने के साथ एशियाई संस्कृति में अपनी विशिष्ट भूमिका के कारण एशिया की प्रतिनिधि भाषा भी है; क्योंकि हमारी हिन्दी लचीली है। उसमें भिन्न संदर्भों की अभिव्यक्ति की क्षमता है। उसका एक सर्व-स्वीकृत मानक रूप है। उसमें उपमानकों की कुछ दूर तक स्वीकृति होते हुए भी परस्पर सम्प्रेषणीयता किसी न किसी स्वीकृत मानक के माध्यम से बनी हुई है। हिन्दी भाषा के प्रचार-क्षेत्र में विस्तार हो रहा है और वह वैश्विक भाषा बनने की राह पर है।अतः उसके कई रूप विकसित हो रहे हैं। जिनमें से प्रमुख है मानक हिन्दी।व्यापार वाणिज्य की हिन्दी जनसंचारीय हिन्दी साहित्यिक हिन्दी संसदीय हिन्दी बोलचाल की हिन्दी कार्यालयी हिन्दी इत्यादि।
 वैसे तो भाषा सदैव संक्रमणशील रही है। कबीर ने कहा है “भाषा बहता नीर है”। किन्तु पिछले 30-35 वर्षों में परिवर्तन द्रुत-गति से हुआ है कि भाषा के क्षेत्र में एक मौन-क्रांति आ गई है। वह यों कि सन 1991 में भारत में वित्तीय संकट से उबरने और आर्थिक वृद्धि की दर बढ़ाने के लिए नई आर्थिक नीति लागू की गई। जिसमें वैश्वीकरण, उदारीकरण एवं निजीकरण शामिल थे। उसके बाद भारत में पूंजी विचार, वस्तु एवं लोगों के प्रवाह की दर तीव्र हो गई। वैश्वीकरण का प्रभाव केवल हिन्दी के विश्व-व्यापी स्वरूप पर ही नहीं हुआ है; वरन हिन्दी के अखिल भारतीय स्वरूप में भी परिवर्तन आया है। आर्थिक वैश्वीकरण को स्वीकार करने के बाद से हिन्दी बोलने वालों की संख्या में जबरदस्त उछाल आया है। हिन्दी आज देश के उन भागों में भी फैल रही है जहां हिन्दी अछूती, अनजानी थी। जैसे दक्षिण-भारत, उत्तर पू भारत। एक सर्वे के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में दक्षिण में हिन्दी सीखने वाले लगभग 25 प्रतिशत बढ़े हैं। हिन्दी अपने राष्ट्रीय-स्वरूप में दक्खिनी-हिन्दी, हैदराबादी-हिन्दी, अरूणाचली-हिन्दी आदि में विस्तारित हो गई है। अब उत्तर-भारत से दक्षिण-भारत की ओर रोजगार या प्रशिक्षण इत्यादि की तलाश का पलायन हो रहा है। यह दक्षिण-भारतीय भाषाओं और अंग्रेजों के साथ मिश्रित कर प्रयोग में लाई जा रही है; जो उसका भाषायी विस्तार ही है। आर्य, द्रविड़, आदिवासी, स्पेनी, पुर्तगाली, जर्मन, फ्रेंच, अंग्रेज़ी, अरबी, फारसी, चीनी, जापानी सारे समूचे संसार की भाषाओं के शब्द इसकी अंतरराष्ट्रीय-मैत्री एवं ‘वसुधैव कुटुम्कम’ वाली प्रवृत्ति को उजागर करते हैं। यह हिन्दी की ग्रहणशीलता है जो नयेपन को उदारता के साथ स्वीकार करती है। इसे न तो नए माध्यमों का कष्ट है और न ही नये शब्दों और नई भाषाओं से। इसके अत्यधिक प्रयोग से विश्व-स्तर पर एक युगान्तकारी परिवर्तन आया है। आज हिन्दी जनभाषा के साथ राजभाषा भी है; जो स्वयं के अन्दर एक अंतरराष्ट्रीय जगत छिपाए हुए है। भारत ही नहीं वरन हिन्दी विश्व-मंच पर एक सशक्त भाषा बनकर उभरी है जिसने वैश्विक स्तर पर अपनी उपयोगिता को साबित किया है। वर्तमान में विश्व-स्तर पर हिन्दी बोलने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है। हिन्दी अशिक्षित, गांव-देहात की भाषा न रहकर सबसे प्रभावशाली भाषा के रूप ज्ञान-सत्ता और अपने परम्परागत रूप से इतर विज्ञापन बाजार की भाषा बनी है। हिन्दी का साहित्येत्तर लेखन बढ़ा है और लेखन का स्तर भी ऊंचा होता जा रहा है। जो निश्चित ही वैश्वीकरण का परिणाम है जिसने हिन्दी को भारत की राजभाषा के पद से ऊपर उठाकर एक वैश्विक-भाषा की पहचान दी है। रहन-सहन, वेश-भूषा सब पर प्रभाव अंग्रेजी वर्चस्व के दौर में दुनिया की नयी भाषाएं लुप्त हो रही हैं, ऐसे में हिन्दी ने अपने स्वरूप में परिवर्तन लाकर स्वयं को न केवल जिन्दा किया है बल्कि बाजार की भाषा बनकर भारत के कोने-कोने से लेकर विश्व के कोने-कोने में प्रसारित हो रही है। वर्तमान में हिन्दी बोलनेवालों की संख्या अंग्रेजी से ज्यादा है। दुनिया में 50 करोड़ से ज्यादा लोग हिन्दी समझते और बोलते हैं। प्रथम-भाषा के रूप में हिन्दी बोलने वालों को मंडारिन, अंग्रेज़ी, स्पेनिश के बाद चौथे नम्बर स्थान पर आती है ।हिन्दी की भाषायी-सामर्थ्य, समृद्धि, विविधता, विस्तार, जीवंतता, वैज्ञानिकता आदि के कारण है। इंटरनेट पर भी हिन्दी स्वीकार्य एवं लोकप्रिय भाषा बन रही है। हिन्दी-पत्रकारिता और हिन्दी-साहित्य भी अब इंटरनेट के माध्यम से विश्व-भर में प्रसारित होने लगा है। देश-विदेश में प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं ने हिंदी को विश्व-भाषा बनाया है। वर्तमान में 170 देशों में हिन्दी की पढ़ाई हो रही है। भारत के बाहर लगभग 600 विद्यालय महाविद्यालय हैं जहां हिन्दी की पढ़ाई होती है। अमेरिका, चीन, जापान, फ्रांस, रूस इत्यादि देशों में जोर-शोर से प्रसारित हो रही है। भारत और पाकिस्तान को छोड़कर ऐसे कई देश हैं जो हिन्दी को मातृभाषा के रूप में प्रयोग करते हैं—बांग्लादेश, नेपाल, मॉरीशस, फीजी, गुयाना, सूरीनाम, म्यांमार, भूटान, ओमान, कुवैत, बहरीन, कतर, संयुक्त अरब अमीरात दक्षिण-अफ्रीका, श्रीलंका आदि। हिन्दी की कई विदेशी शैलियां भी हैं–सूरनामी हिन्दी, फीजी बात, नेटाली, पार्या आदि। इंटरनेट पर हर पांच में से एक व्यक्ति हिन्दी में सामग्री ढूंढता है। विदेश से अनेक पत्र पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं।
हिन्दी की यात्रा शुरू से ही अन्तर्विरोधों की यात्रा रही है। वर्तमान ने वैश्वीकरण के साथ-साथ हिन्दी को कई प्रकार की चुनौतियां भी दी हैं। भारतीय-संस्कृति तथा भारत की भाषाएं किसी भी युग में एकाकी नहीं रहीं; वरन् ये शेष विश्व के साथ जुड़ी रहीं। पहले हिन्दी अरबी और फारसी के साथ मिश्रित होकर ‘हिन्दवी’के रूप में प्रतिष्ठित हुई तो आज वैश्वीकरण और अंग्रेजी वर्चस्व के युग में… असल में हिन्दी ने उत्तरजीविता के लिए स्वयं को एक नये अंदाज़ में जीवंत किया है; वह है–अंग्रेजी के साथ मिश्रित होकर ‘हिंग्रेजी’ के रूप में प्रचारित-प्रसारित हो रही है। जिसमें क्रिया और कारक हिन्दी के होते हैं और शेष सब अंग्रेजी के होते हैं। सही भी है कि किसी भाषा के प्रचार-क्षेत्र में जैसे-जैसे विस्तार होता है; उसके एकाधिक रूप विकसित होने लगते हैं।”परन्तु इसतरह हिन्दी अपनी मूल शब्द-सम्पदा से दूर हो रही है। हिन्दी के समक्ष एक और चुनौती रोजगार को लेकर भी है। बी पी ओ, कॉल-सैंटर जैसे नव-सृजित रोजगार सब अंग्रेजी-परस्त हैं। आर्थिक अवसर की कसौटी पर अंग्रेजी का पलड़ा भारी है। लोगों की मानसिकता को बदलना भी एक चुनौती है। आम-तौर पर लोग हिन्दी को एक पिछड़ी भाषा समझते हैं। जब हिन्दी को भारत की राजभाषा होने की मान्यता मिली तो लगा था कि ‘संयुक्त.राष्ट्र.संघ’ और विश्व की अन्य अंतरराष्ट्रीय-संस्थाओं और संस्थानों में भी स्थान मिलेगा और अंतरराष्ट्रीय-सम्पर्क की भाषा के रूप में इसे भी मान्यता प्राप्त होगी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका है। भारत विश्व-बाजार की टेक्नॉलौजी से तो जुड़ रहा है लेकिन केवल अंग्रेजी माध्यम से.आधुनिक संचार के माध्यमों में हिन्दी या अन्य भारतीय-भाषाओं की उपस्थिति कम है। कानून के क्षेत्र में: न्यायालयों में हिन्दी का प्रयोग कम है। सर्वोच्च-न्यायालय में तो संवैधानिक-व्यवस्था अंग्रेजी भाषा में ही है। व्यापार हो, तकनीकी-पढ़ाई…हिन्दी के प्रयोग की कल्पना करना कठिन है। संविधान-स्वीकृत राजभाषा होने के बावजूद हिन्दी के मानकीकरण की बात प्रशासकीय-स्तर पर कोई नहीं सोचता। हिन्दी-भाषा और देवनागरी-लिपि का केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने जो मानकीकरण किया है, उसका उपयोग निदेशालय के अलावा कोई नहीं करता। हिन्दी अब विश्व-स्तर पर प्रसारित होने के बावजूद अपने ही देश में उपेक्षित है। समाज का लगभग प्रत्येक वर्ग इसे तिरस्कार और उपेक्षा की दृष्टि से देखता है। यहां इस स्थिति को ‘घर का जोगी जोगना, बाहर का जोगी सिद्ध’ ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ कहना भी गलत नहीं होगा। पश्चिमी-सभ्यता और भाषा के अंधानुकरण के दौर में अपनी सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय-पहचान हिन्दी भाषा को संरक्षण प्रदान करना होगा। हालांकि हिन्दी कोई अवैज्ञानिक, पिछड़ी भाषा नहीं बल्कि समृद्ध और गतिशील भाषा है। हिन्दी शब्द अपने में व्यापक शब्द समेटे हुए है। परन्तु हिन्दी शब्द के अर्थ न जाने क्यों हम भारतीयों ने ही संकुचित कर दिए है।
हिन्दी अपने विकास के सोपानों को चढ़ रही है और यहां से उसे आगे भी राह तय करना है। हां विभिन्न चुनौतियों का सामना भी करना है। इसके लिए हमें प्रयास करने होंगे। भाषा का प्रयोग ही उसकी जीवंतता का परिचायक है। भारत को आर्थिक रूप से समृद्ध बनाना होगा। हिन्दी को रोजगार-परक बनाया जाये ताकि हिन्दी ज्ञान सत्ता और लाभ की भाषा बन सके। हिन्दी में काफी सॉफ्टवेयर विकसित करने की आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाओं में हमारी हिन्दी को शामिल करने के लिए हमें मजबूती से अपनी मांग रखनी होगी, और अधिक और सशक्त प्रयास करने होंगे। दृढ़ इच्छाशक्ति और व्यापक योजना की आवश्यकता है। इक्कीसवीं शताब्दी में भारत महाशक्ति है तो यह शताब्दी हिन्दी भाषा की है लेकिन इसे एक सुनहरा भविष्य देने के लिए इम भारतीयों को कृतसंकल्प होना ही पड़ेगा।
इसलिए यकीनन मंजिलें अभी बाकी हैं आधिकारिक सातवीं भाषा बनाने के लिए
विचार प्रस्तुतकर्ता:
डॉ इन्दु गुप्ता,
पूर्व खण्ड शिक्षा अधिकारी, फरीदाबाद-121007, हरियाणा
 मो: 9871084402, ईमेल: guptaindoo@yahoo.com

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