आदरानंद महाराज जब नदी में स्नान करने गए तो एक बच्चे की किलकारियां सुनकर शिष्यो के साथ दोङकर बच्चे के पास भागकर पोटली में लिपटी लावारिस बालिका को उठाकर देखने लगे तो उधर सुर्य भगवान् निकल रहे थे तो महाराज ने बालिका का नाम लालिमा रख दिया। अगङू बोला क्यों लफङे में पङते है इसकी परवरिश कौन करेगा? महाराज बोले कि मैं पालूंगा। मैं आश्रम में रखुंगा मलमुत्र नहाना सुलाना खिलाना बाद में पढाना मैं स्वयं करूँगा। अकङू बोला बाबा बनना यह सब करना आसान है लेकिन लावारिस बच्चे को ऐसे उठाकर आश्रम में लाना उचित नहीं है। मैं तो बाबा कुछ भी नहीं करूँगा यह लो अपनी झोली मैं यहाँ नहीं रहुंगा। महाराज बोले इसे योग्य बनाकर इस आश्रम की मालकिन बनाउंगा यह मेरा संकल्प है। सब आश्चर्य चकित रह गए। बालिका पलने लगी लेकिन बाबा ने कभी उसे पुत्री नहीं कहा तो सबको ताजुब होता था। ना कभी उसे अपने पास फटकने देता।लालिमा पढ लिखकर शिक्षा दीक्षा में प्रविण हो गई तो आदरानंद महाराज वृद्ध हो गये तो एक दिन आलीशान समारोह आयोजित किया जिसमें वकिल एवं पंडित को भी तैयार करके आमंत्रित किया। सबसे पहले पंडित ने आदरानंद महाराज एवं लालिमा की शादी करवाई। फिर वकिल ने जनता के समक्ष घोषणा करते हुए कहा कि आज से इस आश्रम की गुरु माँ लालिमा होगी। इनके नेतृत्व में ही आश्रम का संचालन होगा। सभी संपत्ति की मालकिन लालिमा होगी। सब लेनदेन इनकी सहमति एवं हस्ताक्षर से होगी।उसी समय प्राण त्याग चूके आदरानंद महाराज को समाधि में मंत्रोच्चारण के साथ अश्रुपूरित भक्तों ने अंतिम विदाई दी। लालिमा अंतिम आहुति देते हुए जनता से कहा कि यही मेरे भाग्य की विडम्बना है कि ना माँ बाप मिले ना ही गुरु लेकिन अनायास शादी होने के बावजूद पति भी नहीं मिले लेकिन गुरूमां बना दिया गया जो ईश्वर की इच्छा।




















