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डाँ. भानावत का जीवन लोककलाओं को समर्पित रहा, ऐसा कोई दिन नहीं गया, जब उन्होंने नहीं लिखा, 90 पुस्तकों पर शोध हुए
जनजातीय साहित्य में पीएचडी करने वाले पहले शोधकर्ता थे, 80 से अधिक सम्मान
– डा. श्रीकृष्ण जुगनू वरिष्ठ इतिहासकार
डॉ. महेंद्र भानावत का मंगलवार को निधन हो गया। वे 87 वर्ष के थे और पिछले कई दिनों से अस्वस्थ थे। उन्हें 2021 में प्रोस्टेट कैंसर हुआ अंतिम यात्रा बुधवार सुबह 9:30 बजे उनके निवास आर्ची आर्केड कॉम्प्लेक्स, न्यू भूपालपुरा से अशोक नगर स्थित मोक्षधाम – के लिए रवाना होगी। डॉ. भानावत का जन्म 13 नवंबर, 1937 को कानोड़ में हुआ था। उन्हें राजस्थान साहित्य अकादमी का विशिष्ट साहित्यकार सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ का लोकभूषण पुरस्कार, जोधपुर के पूर्व महाराजा गजसिंह द्वारा मारवाड़ रत्न कोमल कोठारी पुरस्कार, भोपाल की कला समय संस्था द्वारा ‘कला समय लोकशिखर सम्मान’ मिला। पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र ने उन्हें डॉ. कोमल कोठारी लोककला पुरस्कार, कोलकाता के विचार मंच ने कन्हैयालाल सेठिया पुरस्कार दिया। उन्हें राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, जोधपुर से फेलोशिप, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा पं. रामनरेश त्रिपाठी नामित पुरस्कार, महाराणा मेवाड़ फाउंडेशन, उदयपुर से महाराणा सज्जनसिंह पुरस्कार सहित 80 से अधिक सम्मान मिले।
ऐसा लग ही नहीं रहा कि प्रख्यात लोक कलाविज्ञ और भारतीय लोक कला मंडल के पूर्व निदेशक डॉ. महेंद्र भानावत हमारे बीच नहीं रहे। उनका पूरा जीवन लोककलाओं को समर्पित रहा। वे अपने अंतिम दिनों तक भी इन्हें बचाने के लिए प्रयासरत रहे। ऐसा कोई दिन नहीं जाता था, जब वे लिखते न हों। अंतिम दिनों में उनकी बोली बंद हो गई थी। तब भी वे किताबों के बीच अपने साहित्य गुरु व साहित्यकार मित्रों को याद करते रहते थे।
मेवाड़ की कावड़ कला, फड़ पेंटिंग समेत अन्य लोककलाओं को बचाने के लिए कई प्रयोग किए। डॉ. भानावत की ‘निर्भय मीरा’ देशभर में सबसे चर्चित पुस्तकों में से एक रही। इसके लिए वे उन सभी स्थानों पर गए, जहां मीराबाई घूमी थीं। वह जनजातीय साहित्य में पीएचडी करने वाले देश के पहले शोधकर्ता भी थे। उन्होंने गवरी की नाट्य श्रृंखला के साथ राजस्थान की अन्य लोक नाट्य परंपराओं का तुलनात्मक अध्ययन किया। उन्होंने लिखा कि संसार में गवरी जैसे संपूर्ण नृत्य, गायन और वादन की अन्य कोई वाचिक और दृश्य विरासत नहीं है। उनके शोध प्रबंध के परीक्षक, प्रसिद्ध आलोचक नागेंद्र ने एक बार कहा था कि गवरी जैसा विषय तो एक निबंध का भी नहीं, लेकिन इस पर शोध प्रबंध आश्चर्यजनक है। उनकी १० पुस्तकों पर विद्यार्थियों ने शोध किए।
हिंदी और राजस्थानी में उनकी 10 हजार से अधिक रचनाएं प्रकाशित हुई। कई राज्यों की यात्रा अनुभव लेने के बाद उनका कहना था- भारत में जितने लोकनाट्य प्रचलित हैं, उतने शायद ही कहीं और हों। राजस्थान साहित्य अकादमी ने घर जाकर उनका अभिनंदन किया था। वे पूर्णकालिक लेखक और पत्रकार थे। सुविवि से हिंदी में एमए के बाद ‘राजस्थानी लोकनाट्य परंपरा में मेवाड़ का गवरी नाट्य और उसका साहित्य’ विषय पर पीएचडी पाई।
1958-62 तक भारतीय लोक कला मंडल में शोध सहायक रहे। बाद में निदेशक बने। उनकी पहली पुस्तक ‘राजस्थान स्वर लहरी’ थी। उन्होंने एसआईईआरटी, उदयपुर के लिए हिंदी और राजस्थानी में पाठ्यपुस्तकों का लेखन किया। एनसीईआरटी, नई दिल्ली और एनएसडी, नई दिल्ली की कार्यशालाओं में भाग लिया।





















