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वाह रे मानव, वाह!
नदियों को सुखा कर
तूने बनाया अपना घर।
पानी के अभाव में अब
पूछ रहा है —
“नदियां है किधर?”
कूड़े का ढेर बना डाला
तूने अपना शहर,
स्वच्छता के अभाव में अब
पूछ रहा है —
“अधिकारी है किधर?”
नालियों को जाम कर
पानी को तूने रोका,
डेंगू-मलेरिया से भुगतकर
अब पूछ रहा है —
“डॉक्टर है किधर?”
पेड़ों को काटकर
जंगलों को साफ़ कर,
ज़मीन तू हड़पते जाए,
गर्मियों से झुझकर
फिर पूछे —
“बरसात है किधर?”
कानून तुम न मानो,
नीति-नियम न जानो,
लड़ाई-झगड़े तुम करो,
कोहराम तुम मचाओ,
और पूछो —
“न्याय है किधर?”
जात-पात के नाम पर बाँटो,
भाषा के नाम पर बाँटो,
संस्कृति के नाम पर बाँटो,
धर्म के नाम पर बाँटो,
और अराजकता में पूछो —
“सरकार है किधर?”
विषय में खोए रहो तुम
अज्ञान में सोए रहो तुम
सेवा भावना से दूर रहो तुम
मनुज धर्म से मुंह मोड़ो तुम
और जब कुछ ना मिले तो
पूछ रहे हो
“भगवान है किधर?”
भाई, अब मैं तुमसे पूछती हूँ —
सरकार तुम हो — किधर?
डॉ मधुछन्दा चक्रवर्ती
प्रथम दर्जा सरकारी कॉलेज के आर पूरा
बंगलौर





















