21 Views
दीपावली रौशनी का त्योहार है। यह उमंग-उत्साह, उल्लास, खुशियों व आपसी सौहार्द, मेल-मिलाप का त्योहार है। देखा जाए तो यह त्योहार पर्यावरण की रक्षा करने, पर्यावरण को शुद्ध, सुंदर व संतुलित रखने का भी त्योहार है। यह हमारे देश की सांस्कृतिक परंपराओं को जिंदा रखने, हमारे संस्कृति-संस्कार, बुराई पर अच्छाई की जीत का पावन व पवित्र त्योहार है, लेकिन पिछले कुछ सालों से दीपावली पर पटाखों से होने वाला वायु व ध्वनि प्रदूषण जहां एक ओर हमारे पर्यावरण को दूषित कर रहा है वहीं दूसरी ओर इसके मानव व जीवों के स्वास्थ्य पर भी बहुत बुरे प्रभाव पड़ रहे हैं। ऐसे में हम सभी को यह जरूरत है कि हम दीपावली को ग्रीन पटाखों, रंगोली, मांडणा, वोकल फॉर लोकल उत्पादों का प्रयोग कर मनाएं। हम दिवाली पर अपनों को गिफ्ट दें और गिफ्ट्स का आदान-प्रदान कर दिवाली मनाएं। आज हमारे यहां दिवाली पर चाइनीज़ लाइटों, झालरों की भरमार है और वे खूब बिक रही हैं। आज फैंसी लाइटों, सजावट के विभिन्न सामानों से हमारे बाजार पटेल पड़े हैं और बाजार में इनकी भरमार है। देसी सामान/देसी उत्पादों की ओर हालांकि लोग धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं लेकिन विशेषकर चीन में बने उत्पादों में आज भी हमारा विश्वास कुछ ज्यादा ही है, इससे हमारे देश की अर्थव्यवस्था को भी कहीं न कहीं बट्टा लग रहा है। आज चायनीस खिलौने, पटाखे हर गली हर मोहल्ले बिकते देखें जा सकते हैं, क्यों कि ये बहुत सस्ते हैं। हमें यह चाहिए कि हम मिट्टी के दीपकों का इस दीपावली ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करें और विदेशी उत्पादों का बहिष्कार करें। बाजार से हम मिट्टी के दीयों के अलावा देसी सामान जैसे कि तोरन, बंदनवार, हैंगिंग व पानी वाले दीये, मेटल के धीरे खरीदें। बाजारी मिलावटी मिठाईयों से बचें और घर पर ही मिठाईयां तैयार करें अथवा किसी अच्छे ब्रांड या किसी अच्छी दुकान से बढ़िया मिठाईयां खरीदें। एक अनुमान के अनुसार दिवाली पर अपनों को गिफ्ट देने में करीबन 1.85 लाख करोड़ रुपए भारतीयों द्वारा खर्च किए जाने का अनुमान है जो कि बहुत बड़ी धनराशि है। आज पारंपरिक मिठाईयों के स्थान पर महंगे एंड्रॉयड फोन, कपड़े, इलैक्ट्रोनिक आइटम्स, गहने और अन्य उपहारों पर खर्च करने की होड़ बढ़ी है। हम सादगी, संयम को भूल रहे हैं और आधुनिकता के रंग में रंगकर त्योहारों के अर्थ को एक प्रकार से धूमिल कर रहे हैं। आज त्योहार पर दिखावा व बनावटीपन अधिक है। दिवाली पर पटाखे बजाया जाना आम बात है लेकिन हमें यह जानकारी होनी चाहिए कि पटाखों से होने वाले वायु प्रदूषण से अस्थमा, ब्रोंकाइटिस और अन्य सांस संबंधी रोगों के मामले 30% तक बढ़ जाते हैं। पटाखों से निकलने वाला हानिकारक रसायनों से भरा धुआं बच्चों व बुजुगों के लिए विशेष रूप से घातक होता है। वैसे भी हमारे बड़े शहरों में वायु गुणवत्ता सूचकांक में कमी नहीं आ रही है। आज हर जगह जहरीली हवा है। कोई भी आज मेट्रो सीटीज में बिना मास्क नहीं घूम सकते हैं। राजधानी दिल्ली की ही बात करें तो दिल्ली समेत एनसीआर (नोएडा, गाजियाबाद, फरीदाबाद और गुरुग्राम) में वायु प्रदूषण का कहर जारी है। दिवाली के आसपास ही पराली का सीजन भी होता है। कुछ समय पहले एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक के हवाले से यह खबर आई थी कि दिल्ली में वायु प्रदूषण विश्व स्वास्थ्य संगठन की सीमा से 8 गुना अधिक है। एक रिपोर्ट के अनुसार, वायु प्रदूषण से जुड़ी बीमारियों और बीमारियों ने साल 2021 में दुनिया भर में 8.1 मिलियन लोगों की जान ले ली, जिनमें से चार में से एक मौत भारत में हुई, यह चौंकाने वाला तथ्य है। पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि चीन (2.3 मिलियन मौतें) और भारत ( 2.1 मिलियन मौतें ) ने 2021 में वायु प्रदूषण से होने वाली दुनिया की 55% मौतों को साझा किया। पीटीआई की एक खबर के अनुसार भारत में सभी स्रोतों से होने वाले बाहरी वायु प्रदूषण के कारण प्रतिवर्ष 21 लाख से अधिक लोगों की मौत हो जाती है। ‘द बीएमजे’ (द ब्रिटिश मेडिकल जर्नल) में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार बाहरी वायु प्रदूषण भारत में प्रति वर्ष 21 लाख 80 हजार लोगों की जिंदगी छीन लेता है। इस मामले में चीन के बाद भारत दूसरे स्थान पर है। वायु प्रदूषण ही नहीं पटाखों से ध्वनि प्रदूषण भी बहुत होता है। पटाखे का जोरदार धमाका 160 डेसिबल तक होता है, जो मानव स्वास्थ्य के साथ ही धरती पर अन्य जीव-जंतुओं/प्राणियों के लिए बहुत ही घातक व खतरनाक साबित होता है। चिकित्सकों के अनुसार पटाखों से कान का पर्दा फटना, सुनाई कम देना, सीटी की आवाज, संपूर्ण बहरापन आदि की समस्या उत्पन्न हो सकती है। जानकारी देना चाहूंगा कि शिवकाशी भारत के तमिलनाडु राज्य के विरुधुनगर जिले का एक शहर है, जो सबसे बड़ा पटाखा कारखाना में से एक है। यह शहर पटाखों और माचिस की फैक्ट्रियों के लिए जाना जाता है, जहाँ देश के 70% पटाखे और माचिस बनाये जाते हैं। जानकारी देना चाहूंगा कि भारत पटाखा उत्पादन के मामले में दूसरे नंबर पर है। इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक, चीन के बाद भारत में ही सबसे अधिक पटाखे बनाए जाते हैं। आज भी भारत मे पटाख़ा इंडस्ट्री में बूम देखने को मिलता है। यदि आंकड़ों की बात की जाए तो पिछले साल ही दिल्ली को छोड़कर पूरे देश में खुदरा पटाखों की बिक्री ने छह हजार करोड़ रुपए का आंकड़ा छू लिया था, हालांकि भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पटाखों को लेकर कड़ा रुख अपनाया है लेकिन बावजूद इसके भी आज पटाखों की बिक्री धड़ल्ले से होती है और दीपावली के अवसर पर विशेषतया खूब पटाखे फोड़े जाते हैं। वास्तव में हमें दीपावली के अवसर पर यदि पटाखों का प्रयोग करना ही है तो हमें ग्रीन पटाखों का उपयोग करना चाहिए। जानकारी देना चाहूंगा कि ग्रीन पटाखे दिखने और जलाने में सामान्य पटाखों की तरह ही होते हैं, लेकिन इनसे प्रदूषण कम होता है। इन्हें जलाने पर 40 से 50 फीसदी तक कम हानिकारक गैसें पैदा होती हैं। इनके इस्तेमाल से ध्वनि प्रदूषण में भी कमी देखी गई है। ग्रीन पटाखे सामान्य पटाखों की तुलना में आकार में छोटे और हल्के होते हैं, जिससे रॉ मैटीरियल का भी कम उपयोग होता है। ग्रीन पटाखे धूल को अवशोषित करते हैं और इनमें बेरियम नाइट्रेट जैसे खतरनाक तत्व नहीं होते हैं। वास्तव में इन पारंपरिक पटाखों में ज़हरीली धातुओं को कम ख़तरनाक यौगिकों से बदल दिया जाता है। उल्लेखनीय है कि भारतीय वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद द्वारा विकसित ग्रीन पटाखों को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने मंजूरी दी है, इसलिए ग्रीन पटाखों का उपयोग करके हम अपनी परंपराओं का सम्मान करते हुए हमारे पर्यावरण व इस धरती की रक्षा भी कर सकते हैं। वास्तव में ग्रीन पटाखों के उपयोग के साथ ही हमें वोकल फॉर लोकल मतलब स्थानीय देसी उत्पादों के लिए भी आगे आना चाहिए। इससे हमारे देश की अर्थव्यवस्था को जहां एक ओर मजबूती मिलेगी, साथ ही साथ इससे स्थानीय स्तर पर रोजगार सृजन के अवसर भी पैदा होंगे। दीपावली के मौके पर हम दीए से लेकर रौशनी और सजावट के लिए विदेशी वस्तुओं विशेषकर चाइनीज़ लाइटों, झालरों, लड़ियों, इलैक्ट्रोनिक आइटम्स की ओर आकर्षित होते हैं, लेकिन हम अक्सर यह बात भूल जाते हैं कि दीपावली पर उन घरों में भी खुशियों के दीपक जलने चाहिए जो सड़क / फुटपाथ, ठेलों , रेहड़ियों या अन्य जगहों पर अपने हाथों से बनाए/तैयार स्थानीय उत्पाद बेचते हैं। आज हम मिट्टी के दीए कम इलैक्ट्रोनिक लाइटों, झालरों, लड़ियों को ज्यादा जलाते हैं और उनकी चमक-दमक से आकर्षित होते हैं और ऐसा करके हम बिजली की खपत तो अधिक करते ही हैं, हमारे स्थानीय उत्पाद तैयार करने वाले कारीगरों को भी कहीं न कहीं हतोत्साहित ही करते हैं। इलैक्ट्रोनिक लाइटों, झालरों को जलाने की बजाय मिट्टी के दीयों को जलाने से न हमें सिर्फ सकारात्मक ऊर्जा ही मिलती है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर को भी सहेजने का सादगीपूर्ण, पारंपरिक व सुंदर तरीका है। इसलिए हमें चाइनीज लाइट्स, मोमबत्तियों और रंग-बिरंगी विदेशी झालरों की बजाय दीयों का इस्तेमाल कर स्थानीय कारीगरों को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसका एक फायदा यह भी होगा कि इससे बिजली की भी खपत नियंत्रित होगी। हमें यह चाहिए कि हम दीपावली पर छोटे,मंझले, स्थानीय कामगारों, व्यापारियों, दुकानदारों, हस्त-शिल्पियों, कारीगरों को अधिकाधिक प्रोत्साहित कर वोकल फॉर लोकल अभियान को तवज्जो देनी चाहिए और हमारे देश की अर्थव्यवस्था, हमारे समाज को और अधिक मजबूत करना चाहिए। हमारी छोटी छोटी पहलों से ही बहुत कुछ संभव हो सकता है। तो आइए, इस दीपावली हम एक स्वच्छ, हरित और आत्मनिर्भर भारत के लिए संकल्प लें और अपने भारत को सपनों का भारत बनाएं।
सुनील कुमार महला, फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार, उत्तराखंड।
मोबाइल 9828108858
ई मेल mahalasunil@yahoo.com