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आज भी यह दुनिया युद्ध को रोक नहीं सकी। सभ्यता का इतिहास जितना ज्ञान, तकनीक और विकास का है, उतना ही रक्त, विनाश और मृत्यु का भी इतिहास है। आज जब इस्राइल और फिलिस्तीन की ज़मीन पर बच्चों का खून धूल में मिल रहा है, तब सवाल उठता है—इस युद्ध को कौन चला रहा है? ईश्वर? या राजनीतिक अर्थव्यवस्था? या फिर मीडिया के स्टूडियो में बैठे अमीर चेतनाएं?
जीता कौन? और बचा कौन? तो क्या ईश्वर सिर्फ एक दर्शक हैं?
हर युद्ध में एक पक्ष कहता है, ईश्वर उसके साथ है! “अल्लाहु अकबर”, “God is with us”—इन नारों के बीच कौन किसकी जान ले रहा है, यह ईश्वर के नाम पर कहीं खो जाता है। मगर, ईश्वर मौन हैं। युद्ध के आंकड़ों में ईश्वर नहीं होते, वहाँ होते हैं सिर्फ लाशों की गिनती, बर्बाद हुए अस्पताल और खोया हुआ बचपन।
सवाल उठता है, अगर ईश्वर वाकई हैं—तो क्या वह इस अग्निकुंड से मुँह फेर चुके हैं? या फिर हम अपने अपराधों को छुपाने के लिए उन्हें इस्तेमाल कर रहे हैं?
आज युद्ध सिर्फ ज़मीन पर कब्जे के लिए नहीं हो रहा, यह एक तरह का प्रोडक्शन बन चुका है। एक “शांति प्रोडक्शन प्राइवेट लिमिटेड”, जहाँ बच्चों की चीखें, धुआँ, ड्रोन फुटेज और रिपोर्टरों की कृत्रिम संवेदनाएँ—सब एक कंटेंट पैकेज का हिस्सा हैं। फ्रेम में होता है खून, बैकग्राउंड में “ड्रैमेटिक म्यूज़िक”, और स्क्रॉल में चलता है—”BREAKING: एयरस्ट्राइक जारी है”।
बाज़ार में चलता है प्रोफ़ाइल फ्रेम—”Stand with…”, हैशटैग—”Pray for…”। लेकिन जो नीचे गिर जाते हैं, उनके लिए कौन खड़ा होता है?
वह बच्चा जो खिड़की के पास खड़ा होकर धुएं में अपना भविष्य खोज रहा है, वह किसी पक्ष का नहीं है। वह बस जीना चाहता है।
लेकिन इस दुनिया में क्या अब ताकत की परिभाषा मानवता में बंधी है? अब ताकत का मतलब है किसका बैलेंस शीट बड़ा है, किसके पास ज़्यादा हथियार हैं, कौन ज़्यादा असरदार नैरेटिव बना सकता है।
मानवता अब अख़बार की फुटी नोट में, फेसबुक पोस्ट में, या फिर किसी बयान के बीच में सिमट गई है—जहाँ सिर्फ शब्द हैं, एहसास नहीं।
युद्ध के अंत में शायद कोई “जीत” जाता है। शायद नए सिरे से सीमाएं खींची जाती हैं। शायद इतिहास की किताबों में लिखा जाता है—”यह पक्ष न्याय के लिए लड़ा”। लेकिन वह किताब नहीं पढ़ेगा, जो आज खाली हाथ खिड़की की ओर देख रहा है।
अंत में बस एक ही सवाल बचता है—जीता कौन? और बचा कौन?
कहाँ गई वह ‘पवित्र आकांक्षा’? मानवता की वही पवित्र आकांक्षा, जो कहती थी—अब बहुत हुआ, अब बस…
अगर ये सवाल हमारे भीतर बेचैनी पैदा करें,
तो शायद हम एक बार फिर इंसान बन सकें…




















