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शिलचर की गलियों में हर दिन सिर्फ़ नई-नई टुकटुकियाँ नहीं उतर रहीं! साथ उतर रही हैं हज़ारों आवाज़ें — मौन चीखों में बदली हुई।

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राजू दास, 20 जून, शिलचर।
शिलचर शहर और समूचा बराक उपत्यका आज एक मौन आर्थिक संकट की ओर बढ़ रहा है। आने वाले समय में इस क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक संरचना जिस गहरे संकट में फँसने जा रही है, उसके संकेत अभी से शहर की हर गली, हर मोड़ पर खड़ी सैकड़ों बैटरीचालित ऑटो रिक्शा (जिसे कई लोग ‘टुकटुकी’ कहते हैं) की भीड़ में साफ़ देखी जा रही है।
पिछले कुछ वर्षों में शिलचर शहर में इलेक्ट्रिक ऑटो रिक्शा की संख्या जिस तरह से बढ़ी है, वह अभूतपूर्व है। यह केवल परिवहन संकट का हल नहीं, बल्कि शहर के बेरोज़गार युवाओं के लिए एक सहारा बन चुका है। यह मानना कि ऑटो केवल कम पढ़े-लिखे लोग ही चलाते हैं — पूरी तरह ग़लत धारणा है। इन चालकों में कोई बी.ए. पास है, कोई बी.कॉम ग्रेजुएट — नौकरी की तलाश करते-करते जीवन की सच्चाई को समझ कर वे मजबूरी में ऑटो चलाने लगे हैं।
एक ओर शिक्षा के बदले बेरोज़गारी से राहत पाने के लिए हाथ में स्टेयरिंग, दूसरी ओर इस वाहन को ख़रीदने के पीछे की एक करुण सच्चाई भी है। विभिन्न माइक्रो-फाइनेंस संस्थाएँ — SHG, बंधन, आशा या स्थानीय को-ऑपरेटिव — ऊँचे ब्याज दरों पर युवाओं को ऑटो खरीदने के लिए ऋण दे रही हैं। अधिकतर मामलों में यह ऋण दूसरे राज्यों में मजदूरी कर के जमा की गई थोड़ी पूंजी के साथ मिलाकर लिया जाता है। हर महीने की किस्त, गाड़ी की मरम्मत, घर का खर्च — सब मिलाकर ज़िंदगी का बोझ इन युवाओं को तोड़ कर रख दे रहा है।
अनुमान है कि सिर्फ़ शिलचर शहर में ही वर्तमान में 8,000 से 10,000 या उससे भी ज़्यादा इलेक्ट्रिक ऑटो रिक्शा चल रहे हैं। जिनमें से लगभग 75% ऑटो किश्तों पर खरीदे गए हैं। ट्रैफिक व्यवस्था की कमज़ोर बुनियाद के कारण जाम की समस्या हर दिन बढ़ रही है, यात्रियों की संख्या घट रही है। एक ही रूट पर घंटों खड़े रहकर भी कुछ लोग दिन भर में 200 रुपये भी नहीं कमा पाते। जबकि महीने के अंत में उन्हें 5,000 से 7,000 रुपये की किश्त चुकानी होती है।
यह स्थिति सिर्फ़ परिवहन संकट की ओर इशारा नहीं करती, बल्कि पूरी बराक उपत्यका में रोज़गार की भयावह स्थिति को उजागर करती है। प्रशासन की ओर से कोई ठोस रोजगार नीति, वैकल्पिक योजना या टुकटुकी के पंजीकरण पर नियंत्रण न होने से यह समस्या दिन-ब-दिन और बढ़ती जा रही है। कुल मिलाकर शहर की आर्थिक स्थिरता एक खतरनाक मोड़ पर आ गई है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन यह ‘टुकटुकी-आर्थिकता’ बुलबुले की तरह फूट जाएगी। तब हज़ारों युवा फिर से बेरोज़गार हो जाएंगे, जिनके पास रह जाएगा कर्ज़ का बोझ, जिम्मेदारियों की थकान और सपनों के टूटने की टीस।
इस हताशा की ज़मीन पर उगेंगे अनैतिक कार्य, बढ़ेगी असुरक्षा, बढ़ेगा असामाजिक गतिविधियों का जाल — क्योंकि कारण एक ही है: बेरोज़गारी। लेकिन पेट तो यह सब नहीं समझता!
शिलचर की गलियों में हर दिन सिर्फ़ नई टुकटुकियाँ नहीं उतर रही हैं, साथ उतर रही हैं हज़ारों कंठों की मौन चीखें।
कब हमें नौकरी मिलेगी?कब हम कर्ज़ से मुक्त होंगे?
कब इस गाड़ी की स्टेयरिंग से परे कोई अपना भविष्य बना पाएंगे?
इन्हीं सवालों के साए में जीने को मजबूर हैं न जाने कितने लोग…

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