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शिवसागर के सबक– प्रमोद तिवाड़ी

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गत 13 अगस्त को ऊपरी असम के शिवसागर में घटी घटना के बाद राज्य का मारवाड़ी समाज सदमे में है. इस घटना के बाद राज्य के मूल निवासियों के संगठनों के दबाव में आकर शिवसागर के मारवाड़ियों को घुटनों पर बैठकर क्षमा याचना करनी पड़ी थी. मूल निवासियों के कुछ संगठनों का कहना था कि मारवाड़ी समाज के संगठनों ने एक युवती के साथ मारपीट की घटना, जिसमें मारवाड़ी युवक शामिल थे, का विरोध नहीं किया था. वहां के स्थानीय सभा-संगठनों के सामने घुटनों पर बैठने वालों में मारवाड़ी महिलाएं और बुजुर्ग भी थे. यह तस्वीर विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जमकर वायरल हुई. जैसा कि कहा जाता है कि एक तस्वीर लाख शब्दों से ज्यादा असरदार और मारक होती है, इस वायरल तस्वीर और वीडियो ने मारवाड़ी समाज के आत्मसम्मान और उसकी संवेदनाओं को झकझोर कर रख दिया. असम में यह पहली बार नहीं हुआ है कि जब मारवाड़ी क्षेत्रीयतावादी ताकतों के निशाने पर आया हो. यहां वर्षों से निवास करने वाले लोगों के जेहन में आज भी साल 1968 में राज्य के प्रमुख व्यापारिक केंद्र फैंसी बाजार में हुई आगजनी और उसके बाद सन 1979 में शुरू हुए बहिरागत भगाओ आंदोलन के शुरुआती दौर की यादें ताजा हैं. तब भी सॉफ्ट टारगेट मारवाड़ी ही थे. गनीमत यह रही कि बाद में दक्षिणपंथी ताकतों ने सक्रिय होकर बहिरागत भगाओ आंदोलन को विदेशी भगाओ छात्र आंदोलन में तब्दील कर दिया था. पिछली शताब्दी के 80 और 90 के दशक के संयुक्त मुक्ति वाहिनी असम (अल्फा) और बोडो अलगाववाद के दौर में तो मारवाड़ी जाति को सबसे अधिक मार पड़ी थी. फिरौती के लिए अपहरण और हत्याओं से बेजार कई मारवाड़ियों ने तब इस देश को बेगाना समझ कर छोड़ तक दिया था. कोढ़ में खाज यह थी कि क्षेत्रीयतावाद की आड़ में उन दिनों कई चंदाजीवी संगठित होकर उभर आए थे. ऐसे लोगों ने मारवाड़ी व्यापारियों का जीना मुहाल कर दिया था. ऊपर से शासन और प्रशासन का भी सहयोग उन दिनों मारवाड़ियों को नहीं मिलता था. उल्टे सरकार और सरकारी मुलाजिम परोक्ष रूप से अतिवादियों का समर्थन करते थे. इसके बावजूद उन दिनों मारवाड़ी इतने उद्वेलित और गुस्से में नहीं दिखे, जितने शिवसागर की घटना के बाद दिख रहे हैं. इसका एक कारण संभवतः सोशल मीडिया भी हो सकता है. अब पलक झपकते सूचनाएं लोगों को सुलभ हो जाती हैं. किसी घटना विशेष को लेकर परसेप्शन बनाना और नैरेटिव गढ़ना अब पहले की तुलना में कहीं आसान हो गया है. इस तरह के परसेप्शन और नैरेटिव यथार्थ और तर्क के धरातल पर कितने सही होते हैं, यह एक अलग विमर्श का विषय हो सकता है. बहरहाल, इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता की शिवसागर की घटना से मारवाड़ी समाज के स्वाभिमान को बहुत ठेस पहुंची है. उनका सीधा-साधा तर्क यह है कि दो-तीन लोगों की गलती के लिए पूरे समाज को कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. कुछ समझदार यह कह रहे थे कि अपराधी की कोई जात नहीं होती. अगर किसी ने अपराध किया है तो कानून सम्मत तरीके से उसके खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए. पर उनकी सुनने वाला आज की तारीख में तो कम से कम कोई नहीं है. शिवसागर में जो कुछ हुआ वह सरकार और प्रशासन की मौजूदगी में हुआ. यहां तक कि राज्य सरकार के वरिष्ठ मंत्री भी मौके पर मौजूद थे. लिहाजा असहाय और मानसिक रूप से परेशान समाज के कुछ लोगों ने अपनी खीज अपनी ही सभा – संस्थाओं और उनके नेतृत्व पर उतारनी शुरू कर दी. इस सीधे- सरल तरीके से अपने अहम को तुष्ट करने के क्रम में मारवाड़ियों ने घटना के कारणों की पड़ताल करना भी जरूरी नहीं समझा. शिवसागर जैसी घटना क्यों घटी, इस तरह की घटना फिर से ना हो, अगर राज्य में कहीं मारवाड़ी समाज के साथ शिवसागर जैसे हालात बनते दिखते हैं तो समाज के पास उनसे निपटने के क्या उपाय है, इन ज्वलंत और समयानुकूल मुद्दों पर चर्चा की भी जरूरत किसी ने महसूस नहीं की.
पहली नजर में देखेंखे तो शिवसागर की घटना का कारण एक स्थानीय नाबालिग किशोरी के साथ दो-तीन मारवाड़ी लोगों द्वारा की गई मारपीट को बताया जा रहा है. उक्त किशोरी पंजा खेल की राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी है. घटना के बाद पुलिस ने कथित रूप से दोषी दो लोगों को पॉस्को कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया. उल्लेखनीय है कि जिन मारवाड़ियों पर मारपीट करने का आरोप है, उनका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है. वे रूटीन किस्म के व्यापारी हैं जो ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर के फलसफे में यकीन रखते हैं. ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि कानून-व्यवस्था की एक घटना ने शिवसागर सहित समूचे ऊपरी असम के जातीयतावादी एवं क्षेत्रीयतावादी खेमे को एकदम से आंदोलित क्यों कर दिया, जबकि पुलिस एवं प्रशासन की पूरी सहानुभूति पीड़िता किशोरी के साथ थी और है. बताते हैं कि मारवाड़ी समाज की ओर से भी मारपीट के दोषी लोगों को बचाने एवं उन्हें प्रत्यक्ष रूप से समर्थन देने का कोई काम नहीं किया गया. उधर जातीयतावादी- क्षेत्रीयतावादी खेमे का आरोप है कि मारवाड़ी समाज और उनकी सभा- संस्थाओं ने एक स्थानीय किशोरी के साथ घटी दुर्भाग्यजनक घटना का तरीके से प्रतिवाद तक नहीं किया. इस घटना के विरोध में आहूत सभा में मारवाड़ी समाज के लोगों की उपस्थिति नगण्य थी. मिली जानकारी के अनुसार केवल चार मारवाड़ी व्यक्ति उक्त प्रतिवाद सभा में पहुंचे थे. यहां इस बात का जिक्र करना समीचीन है कि मारवाड़ी मूलतः व्यापार- वाणिज्य करने वाला तथा अपने में ही सिमटे रहने वाला समाज है. जुलूस, जलसा, रैली, धरना-प्रदर्शन में सक्रिय रूप से भाग लेना उसकी फितरत नहीं रही है. और फिर इस घटना के बाद शिवसागर के माहौल में काफी उत्तेजना, तनाव और गुस्सा था. वीर लचित सेना और अन्य जनसमुदायों गोष्ठियों के संगठनों के नेता-कार्यकर्ता सरेआम मारवाड़ियों के विरोध में नारेबाजी कर रहे थे. किसी भी प्रकार के झोड़-झंझट से दूरी बनाए रखने में ही अपनी भलाई समझने वाले मारवाड़ियों ने अपने स्वभाव के अनुसार इस चार्जड अप माहौल में स्थानीय संगठनों द्वारा बुलाई गई सभा में बड़े पैमाने पर शिरकत नहीं की. मारवाड़ियों के सामाजिक व्यवहार को देखते हुए इस बात के लिए उन्हें बेनिफिट ऑफ डाउट दिया जा सकता था, पर ऐसा नहीं हुआ. दिलचस्प बात यह है कि बेनिफिट ऑफ डाउट नहीं दिया जाना अकारण नहीं था. इसके पीछे गूढ़ कारण हैं, जिन्हें जानना-समझना जरूरी है.
शिवसागर की घटना के कारण :
शिवसागर की घटना कोई अलग-थलग घटना (isolated incident) नहीं है. यह पिछले कुछ वर्षों से कई कारकों के घनीभूत होने का प्रतिफलन है. अपनी सुरक्षा और सामाजिक सम्मान को बचाए रखने के लिए जिन्हें समझना और तदनरूप आचरण करना मारवाड़ियों  के लिए बेहद जरूरी है.
असम के सामाजिक-राजनीतिक जीवन में क्षेत्रीयतावाद की जगह हमेशा रही है. पहले अखिल असम छात्र संघ (आसू) और असम जातीयतावादी युवा छात्र परिषद (अजायुछाप) राज्य में जातीयतावादी- क्षेत्रीयतावादी खेमे के छतरी (अंब्रेला) संगठन हुआ करते थे. सारे असम में उनकी धाक थी. कालांतर में स्थितियां बदली और पहले नागरिकता संशोधन बिल (कैब) और फिर नागरिकता संशोधन कानून (का) के खिलाफ जब आंदोलन हुए तो आसू को आंदोलन को सफल और सर्वव्यापी बनाने के लिए 30 अन्य क्षेत्रीयतावादी संगठनों का सहारा लेना पड़ा था. खासतौर पर ऊपरी असम में वहां की स्थानीय जन गोष्ठियों के कई छोटे-बड़े संगठन खड़े हो गए हैं. इनमें आहोम, मोरान, मटक और चुतिया जनगोष्ठियों के संगठन काफी प्रभावशाली हैं. मारवाड़ी समाज के मारवाड़ी युवा मंच और मारवाड़ी सम्मेलन जैसे संगठनों ने एक दौर में आसू और अजायुछाप के साथ तो कामकाजी रिश्ते बना लिए थे, इनमें एक हद तक संवाद भी होते रहता था, पर ऊपरी असम के इन नए संगठनों के साथ रिश्ते कायम करने में वे असफल रहे. इसके साथ ही विभिन्न कारणों के चलते मारवाड़ी समाज का असम के स्थानीय समाज से सामाजिक संपर्क भी पिछले दो दशकों में कम हुआ है. संवादहीनता और संपर्कहीनता की यह स्थिति शिवसागर जैसी घटना के समय मारवाड़ियों के लिए प्रतिकूल साबित हुई. उधर असमिया जाति के एक मजबूत प्रतिनिधि संगठन के रूप में आसू के कम होते प्रभाव ने कई छोटे-बड़े (फ्रिंज) संगठनों को जन्म दिया, जिनके साथ संवाद और रिश्ते कायम करना मारवाड़ी समाज के लिए संभव ही नहीं था. प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि ऊपरी असम की आहोम, मोरान, मटक, चुतिया और चाय जनगोष्ठियां कई वर्षों से जनजाति का दर्जा हासिल करने के लिए आंदोलनरत हैं. पहले कांग्रेस और फिर भारतीय जनता पार्टी की सरकारों ने उन्हें जनजाति का दर्जा दिलाने का आश्वासन दिया, पर यह काम अभी तक नहीं हो पाया है. जनजाति का दर्जा हासिल करने के लिए सरकारों पर दबाव बनाने के लिए इन जनगोष्ठियां के भी कई संगठन खड़े हो गए हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से आसू के नेतृत्व को स्वीकार तो करते हैं पर उनकी अपनी अलहदा पहचान भी हैं. वे अपने लोगों की मांगों के समर्थन में आंदोलन करते रहते हैं.
असम के लोग अपनी संस्कृति और भाषा को लेकर काफी संवेदनशील है. बाहरी (देशी और  विदेशी मूल के) लोगों की जनसंख्या के बढ़ते दबाव के कारण उन्हें अपनी जातिगत पहचान पर संकट मंडराता दिखता है. ऐसे में अपने अलग धार्मिक एवं सामाजिक रीति-रिवाजों को मानने वाले बाहरी लोग उन्हें सांस्कृतिक हमलावर की तरह लगते हैं. पिछले कुछ वर्षों में राज्य के मारवाड़ी समाज में असमिया भाषा को बोलने और सीखने की प्रवृत्ति कम हुई है. इन कारकों ने भी मारवाड़ियों के लिए स्थिति को पेचीदा बना दिया है.
इस सच्चाई से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में कतिपय कारणों से असमिया लोगों के हाथों से उनकी भूमि छिटकती जा रही है. ऐसे में अपने भूमि अधिकारों को लेकर वे काफी मुखर है. सर्वानंद सोनोवाल के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार तो माटी-भेटी के नारे पर ही सत्ता में आई थी. ऊपरी असम में चाय की बड़े पैमाने पर खेती होती है. चाय के बगीचे लगाने के लिए ब्रिटिश राज के दौर में वहां की अधिकांश भूमि हस्तांतरित हो गई थी. आज वह भूमि बड़े औद्योगिक घरानों के पास है. बची-खुची थोड़ी-बहुत भूमि स्थानीय मूल के (खिलंजिया) लोगों के पास है, जहां मुख्य रूप से धान की खेती होती है. ऊपरी असम के जिलों में बढ़ते शहरीकरण के चलते कई लोग अपनी जमीन बहिरागतों (पढ़ें मारवाड़ियों) को बेचकर बड़े शहरों की ओर रुख करने लगे हैं. यह ट्रेंड काफी दिनों से चल रहा है. निचले असम की लगभग सारी खेती योग्य भूमि बांग्ला भाषी मुसलमानों के हाथों गंवाने के बाद उपरी असम के लोग चौकन्ने हो गए हैं. निचले असम के बरअक्स ऊपरी असम के मूल निवासियों को लगता है कि उनकी भूमि मारवाड़ियों द्वारा हथियाई जा रही है.
व्यापार-वाणिज्य के प्रति असम के लोगों की एक खास सोच है. यहां के समाज जीवन में व्यापार को कोई अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता है. इसी सोच के विस्तार के रूप में मारवाड़ी व्यापारियों को शोषक, भ्रष्ट और सूदखोर समझा जाता है. वैसे व्यापारी जातियों के प्रति विद्वेष और दुराग्रही होना एक अखिल भारतीय वैश्विक परिघटना है. दूसरे समाजवाद से रूमानियत के चलते भी देश भर में व्यापार-वाणिज्य को हेय कर्म के रूप में देखा जाता है. प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि मारवाड़ियों की स्थिति बहुत हद तक यहूदियों से मिलती है. यहूदी दक्ष व्यापारी होते हैं. अपनी समझ और व्यापारिक दक्षता के चलते एक समय उन्होंने सारे यूरोप में अपना आर्थिक साम्राज्य खड़ा कर लिया था. यहूदियों की समृद्धि देखकर यूरोप की अन्य जाति और नस्ल के लोगों ने उन्हें शोषक और मक्कार समझना शुरू कर दिया. एक ऐसा नैरेटिव गढ़ा गया कि यहूदी अन्य लोगों के अवसरों में सेंधमारी कर रहे हैं. इस नैरेटिव के परवान चढ़ने के साथ ही अमूमन सारे यूरोप में उनके प्रति घृणा और विद्वेष का भाव पैदा हो गया. कुछ इसी तरह का हाल तमिलनाडु के चेट्टियार व्यापारियों के साथ हुआ. एक समय तमिलनाडु से प्रवास कर वे समूचे दक्षिण पूर्व एशिया में छा गए थे. उनका कारोबार म्यांमार, कंबोडिया, फिलिपींस, मलेशिया और इंडोनेशिया तक फैला हुआ था. कालांतर में उनकी आर्थिक समृद्धि स्थानीय लोगों की आंखों को चुभने लगी. नतीजतन उन्हें अपने कर्म भूमि छोड़ने को बाध्य होना पड़ा. ये कुछ उदाहरण भर हैंहै. मजे की बात यह है कि राजस्थान के लोक जीवन में भी ऐसी सैकड़ों कहावतें और मुहावरे प्रचलित है जो बनिया वर्ग को चिढ़ाती और उन्हें नीचा दिखाती प्रतीत होती है. बहरहाल, व्यापार-वाणिज्य के को लेकर असमिया जाति के विशिष्ट माइंडसेट का भी खामियाजा मारवाड़ी समाज को गाहे बगाहे भरना पड़ता है.
ऊपरी असम की राजनीति इस समय एक दिलचस्प मोड़ पर खड़ी है. गत मार्च-अप्रैल 2024 में हुए लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार की जोरहाट संसदीय सीट (ऊपरी असम में) से हार के बाद भगवा दल सकते में है. वह ऊपरी असम के प्राण केंद्र माने जाने वाले जोरहाट से अपनी हार को पचा नहीं पा रहा हैं. राज्य की लोकसभा एवं विधानसभा सीटों के परिसीमन (delimitation) की कवायद के बावजूद भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार का इस सीट से सीधे मुकाबले में कांग्रेस के गौरव गोगोई से हार जाना पार्टी के लिए खतरे की घंटी की तरह है. भाजपा को बड़ी शिद्दत के साथ इस बात का अंदाजा हो गया है कि साल 2026 में होने वाले विधानसभा चुनाव में अगर कांग्रेस, अखिल गोगोई का राइजर दल और लूरिन ज्योति गोगोई की क्षेत्रीयतावादी पार्टी असम जातीय परिषद मिलकर एक रणनीति के तहत चुनाव लड़ते हैं, तो ऊपरी असम और उत्तरी असम में उसकी संभावनाओं को बड़ा झटका लग सकता है. निचले असम में तो पार्टी ने वोटों का धार्मिक आधार पर पूरी तरह ध्रुवीकरण कर दिया है. पर ऊपरी असम के जिलों में बांग्ला भाषी मुसलमानों की संख्या अपेक्षाकृत कम होने के कारण वह वहां ऐसा करने में सफल नहीं हो पाई है. ऊपर से वहां की प्रभावशाली छह जन गोष्ठियों को जनजाति का दर्जा दिए जाने का मुद्दा अगर विपक्ष सही तरीके से उठा पाता है, तो भाजपा की समस्याएं और बढ़ जाएगी. पार्टी पिछले कई चुनावों से वहां की जनगोष्ठियों को जनजाति का दर्जा दिए जाने का आश्वासन दे रही है, पर कई संवैधानिक और कुछ व्यावहारिक परेशानियों के कारण वह चाह कर भी ऐसा नहीं कर पा रही है. ऐसे में लोहे को लोहे से काटने की नीति अख्तियार करते हुए बीजेपी ने वहां अतिवादी क्षेत्रीयतावाद को बढ़ावा देना शुरू कर दिया है. ऐसा करके वह एजेपी और राइजर दल के प्रभाव को सीमित करना चाहती है. जहां तक कांग्रेस की बात है तो उससे निपटने के लिए लगता है बीजेपी ने प्लान “बी” तैयार कर रखा है. हालिया शिवसागर प्रकरण के बाद सत्ताधारी दल की दोहरी भूमिका उपरोक्त बातों की पुष्टि करती प्रतीत होती है. शिवसागर में सरकार और प्रशासन ने दिए को साथ होने का भरोसा दिया था, पर वे वास्तव में हवाओं के साथ थे. उल्लेखनीय है कि जब-जब अतिवादी क्षेत्रीयतावादी ताकतें मजबूत हुई हैं, तब-तब व्यापारी वर्ग को विभिन्न प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ा है. यह बात केवल असम पर ही लागू नहीं होती. असम के अलावा देश के अन्य भागों में मारवाड़ी व्यापारी वर्ग उग्र क्षेत्रीयतावादी ताकतों के निशाने पर रहा है और आज भी है.
एक आम धारणा है कि मारवाड़ी व्यापारी वर्ग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी का कट्टर समर्थक है. इस अवधारणा की आड़ में वाम झुकाव वाले दल-संगठन व्यापारी वर्ग के खिलाफ सक्रिय देखे जाते हैं. ऊपरी असम के मामले में वे क्षेत्रीयतावादी शक्तियों को मारवाड़ियों के खिलाफ वैचारिक कवर फायर दे रहे थे. शिवसागर प्रकरण में वहां के क्षेत्रीयतावादी संगठनों के नेताओं के बयान एवं सड़कों पर लग रहे नारों से इस बात से इस बात को बल मिलता है. वैसे वामपंथी विचार और स्वभाव से अराजकतावादी होते हैं. अराजकता फैलाने के काम में उन्हें कुछ अन्य प्रभावशाली ताकतों का साथ मिल जाए तो उनके लिए सोने में सुहागे वाली स्थिति हो जाती है. शिवसागर की घटना में वहां सक्रिय वामपंथी रुझानों वाले दल-संगठनों की भूमिका को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए.
साल 2001 में असम गण परिषद की सरकार के जाने के बाद कांग्रेस के तरुण गोगोई राज्य के मुख्यमंत्री बने. उनके शासनकाल में साल 2003 में पड़ोसी देश भूटान में भारतीय सेना द्वारा ऑपरेशन ऑल क्लियर चलाया गया था . इस ऑपरेशन के दौरान वहां से अल्फा और बोडो उग्रवादियों का लगभग सफाया हो गया था. ऑपरेशन ऑल क्लियर के बाद अल्फा के बड़े नेताओं ने भूटान से भाग कर बांग्लादेश में शरण ली. पर वहां भी वे ज्यादा दिनों तक सकून से नहीं रह पाए. साल 2008 में बांग्लादेश में भारत समर्थक शेख हसीना वाजेद की सरकार बनी. उस सरकार ने एक-एक करके अपने देश से अल्फा सहित सभी भारतीय चरमपंथियों के कैंपों को ध्वस्त कर दिया. इस प्रकार देखा जाए तो साल 2003 के बाद से असम में उग्रवाद ढलान पर आ गया था. असम गण परिषद की हार के बाद क्षेत्रीयतावादी ताकतें भी हताश हो गई थीं. यह समय राज्य के मारवाड़ियों के लिए शांति कल की तरह था. कायदे से इतिहास से सबक लेते हुए इस कालखंड का उपयोग मारवाड़ियों को राज्य में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए करना चाहिए था. उन्हें अपनी सामाजिक सुरक्षा और आत्मसम्मान के मुद्दों पर आत्म मंथन कर यह सुनिश्चित करना था कि पिछली सदी के 80-90 के दशक के दौर के बुरे दिन समाज को फिर नहीं देखने  पड़े. पर लगता है मारवाड़ी समाज को सामूहिक रूप से भूलने की बीमारी है. शांति काल आते ही मारवाड़ी कंफर्ट जोन में चले गए. पिछली सदी के 80 और 90 के दशक में समाज को जिन दुश्वारियों का सामना करना पड़ा था, वे उन्हें भूल गए. समाज की सभा-संस्थाएं दिशाहीन होकर ऐसे कार्यक्रम लेने में मशगूल हो गईं, जो एक समाज के रूप में मारवाड़ियों के लिए खास फलदाई नहीं हैं. सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दे उनके लिए गौण हो गए. नाच-गाने और बेतुके धार्मिक कार्यक्रमों में समाज के संसाधन जाया होने लगे. चालू सदी का दूसरा दशक आते-आते मारवाड़ी समाज बौद्धिक नेतृत्व विहीन भी हो गया. दरअसल अब न तो समाज के लोगों को और न ही उनकी सामाजिक संस्थाओं को बौद्धिक दिशा-निर्देशों की आवश्यकता महसूस हो रही थी. ऐसे में शिवसागर जैसी घटना समाज और उसके नेतृत्व के लिए एक बड़े झटके की तरह है . यहां यह बात समझ में नहीं आती है कि असम सहित सारे पूर्वोत्तर में लगातार अस्तित्व की चुनौतियां झेलता मारवाड़ी समाज इस तरह उनींदेपन का शिकार कैसे हो सकता है. क्राइसिस तो परिपक्वता लाती है, पर मारवाड़ियों का सामाजिक व्यवहार इस बात की तस्दीक नहीं करता. वैसे भी जो कौम, जाति या समाज इतिहास से सबक नहीं लेता, वह इतिहास का दोहराव देखने को अभिशप्त होता है. शिवसागर में मारवाड़ी समाज के साथ घटी घटना इतिहास के दोहराव की श्रेणी में आती है.
संकट काल में मानव जाति की तो छोड़ ही दीजिए, पशु-पक्षी भी संगठित हो जाते हैं. संगठन की शक्ति का उन्हें भी आभास है. पर असम के मारवाड़ी इसके अपवाद हैं. शिवसागर प्रकरण को ही लीजिए. कायदे से इस घटना के बाद मारवाड़ियों को चिंतन-मनन और मंथन करना चाहिए था. घटना के कारणों की पड़ताल कर इसकी पुनरावृत्ति न हो, यह सुनिश्चित करने की दिशा में काम किया जाना चाहिए. पर ऐसा नहीं हो रहा है. इस घटना के बाद न तो सामाजिक संगठनों के नेतृत्व ने एकता दिखाई और न ही समाज के आम लोगों ने. जमकर एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप का दौर चल रहा है. मारवाड़ी समाज में आपसी विश्वास  का संकट (trust deficit) क्यों है, यह जानना भी समय की मांग है. उधर सोशल मीडिया के बयानवीर अलग सक्रिय हो गए हैं. मामले की गंभीरता और संवेदनशीलता को समझे बगैर वे अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं. सोशल मीडिया पर कट, पेस्ट और शेयर करने वालों की बन आई है. इन विपरीत हालात में भी कोई यह समझने को तैयार ही नहीं कि उनकी इन हरकतों से स्थिति और बिगड़ सकती है. सही मायने में देखा जाए तो ऐसा हो भी रहा है. राज्य के अलग-अलग हिस्सों से मारवाड़ियों के खिलाफ बयानबाजी और उनकी सभा-संस्थाओं पर प्रतिबंध लगाए जाने की बातें सामने आ रही है. जब जागे तब ही सवेरा. इस संकट काल में सामाजिक एकता का परिचय देने का अच्छा विकल्प मारवाड़ियों के लिए भी अभी भी खुला है.
इन हालाततों में शिवसागर प्रकरण को बड़े फलक पर देखना होगा. अगर 12 अगस्त के बाद वहां ऐसा कुछ नहीं होता तो, इसी पैटर्न पर कोई घटना देर-सवेर अन्य किसी जगह होनी ही थी. शिवसागर के बाद राज्य भर में मारवाड़ियों  के खिलाफ बना माहौल चीख-चीख कर कह रहा है कि यह सब अनायास या यकायक नहीं हुआ है.
( शिवसागर जैसी घटना की पुनरावृत्ति न हो, या फिर इस तरह की घटना का अंदेशा हो तो समाज और सामाजिक संगठनों को क्या करना चाहिए, शिवसागर जैसे हालात से निपटने के लिए मारवाड़ी समाज के पास क्या है अल्पकालिक उपाय, क्या हो सकते हैं लंबी अवधि के उपाय, शिवसागर की घटना के बाद मारवाड़ी सभा-संस्थाएं क्या कर रही थी, इन सभी प्रश्नों का उत्तर अगले अंक में….)

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