66 Views
सभी शुभसंकल्पों और विकल्पों को केंद्रीभूत कर जिस क्षण पुरुषार्थ की शुरुआत की जाए,वही क्षण सबसे बड़ा शुभ मुहूर्त होता हैं और वही सबसे बड़ा शुभ संयोग होता हैं ।ऐसे क्षणों में किया जाने वाला कोई भी शुभ कार्य साध्य होता हैं । ज्योतिष शास्त्र में हिन्दु वर्ष के वैशाख शुक्ल की तृतीया तिथि को ग्रह-नक्षत्रों के संयोगों के अनुसार सर्वश्रेष्ठ बताया गया हैं। इस दिन किये जाने वाले कार्य का कभी क्षय नहीं होता हैं ,इसीलिए इसे अक्षय तृतीया के रूप में मनाया जाता हैं ।इस पूरी तिथि में सूर्य और चंद्रमा दोनों ही अपने उच्च भाव में होते हैं ,जो की सकारात्मकता का प्रभाव देते हैं और बहुत शुभ होते हैं । जैन शास्त्रों में बताया गया हैं कि आदि पुरुष ,धर्म संस्थापक प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभ देव जी के लगभग 400 दिनों के घोर उपवासों के पारण का प्रसंग इसी दिन सम्पन्न हुआ था ।संन्यास ग्रहण के पश्चात साधु श्री ऋषभदेव जी अखण्ड मौन व्रत धारण कर साधना रत रहें।घोर अभिग्रहों को धारण कर के गाँव गाँव भिक्षार्थ जाते ,भिक्षा और उसकी विधि का ज्ञान लोगों को नहीं होने से उन्हें भिक्षा प्राप्त नहीं हो रही थी ।इस तरह लगभग एक वर्ष बीत गया ।साधु श्री ऋषभदेव जी विचरण करते करते हस्तिनापुर पधारे जहां के युवराज श्रेयांस जी थे ।ज्ञानावरण के क्षयोपशम से श्रेयांस ने जाना कि ये साधु प्रथम तीर्थंकर हैं और इनको निर्दोष आहार दान करना चाहिए।इसके बाद श्रेयांस ने अहो भाव से निर्मल भाव के साथ आदिसाधु ऋषभदेव भगवान को इक्षुरस का दान दिया ।इस तरह भगवान के वर्ष भर की तपस्या का पारना हुआ और जगत को प्रथम आहारचर्या की शिक्षा मिली और इस तरह साधु और श्रावकों को तप और भिक्षादान के बारे में ज्ञान हुआ । भगवान ऋषभदेव की उक़्त कठोर तपस्या को हम वर्षीतप के रूप में संबोधित करते हैं आज सभी जैन संप्रदायों में वर्षीतप आराधना का बड़ा महत्त्व हैं ।यह प्रतिवर्ष कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरंभ होता हैं ,दूसरे वर्ष की वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की अक्षय तृतीया के दिन पारना कर पुण्य किया जाता हैं । वर्षीतप क़रीब तेरह मास और दस दिन का होता हैं हर दूसरे दिन उपवास करना होता हैं इसी प्रकार ये प्रक्रिया निरन्तर चलती हैं ।
और बहुत से श्रावक श्राविकाये तपस्यारत रहते हैं ।
सुंदरी पटवा (तप त्याग टीम )