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श्री चैतन्य महाप्रभु: भक्ति आन्दोलन के अग्रदूत — डा. रणजीत कुमार तिवारी

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श्री चैतन्य महाप्रभु भारतीय भक्ति आंदोलन के महान प्रवर्तकों में से एक थे। उनके द्वारा प्रवाहित भक्ति-रसधारा ने संपूर्ण समाज को आध्यात्मिक चेतना से अनुप्राणित किया। वे न केवल एक महान संत थे, बल्कि ईश्वरीय प्रेम की प्रत्यक्ष मूर्ति भी माने जाते हैं। उनके जीवन और कार्यों ने वैश्विक स्तर पर भक्तिभावना को प्रोत्साहित किया। उनका जीवन श्रीकृष्ण की नित्य भक्ति का संदेश देता है और भक्ति-मार्ग के अनुसरणकर्ताओं के लिए प्रेरणास्त्रोत बना हुआ है।
१४८६ ख्रीष्टाब्द, फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को सिंह लग्न में, बंगाल के नवद्वीप ग्राम में, श्रीजगन्नाथ मिश्र और माता शची देवी के घर एक गौरवर्ण, तेजस्वी बालक का जन्म हुआ, जिन्हें प्रेम से “निमाई” कहा गया। इस शुभ अवसर के कारण नवद्वीप वैष्णवों के लिए वृंदावन के समान पावन बन गया। बाल्यकाल से ही निमाई असाधारण प्रतिभा के धनी थे और अपनी विद्वत्ता से उन्होंने अल्पायु में ही नवद्वीप के विद्वानों को चकित कर दिया। उनकी अलौकिक बुद्धि और प्रेममयी प्रकृति ने सभी को प्रभावित किया।
युवावस्था एवं भक्ति की ओर झुकाव युवावस्था में निमाई ने वैदिक शास्त्रों में अद्भुत प्रगति की और अपने गुरुओं को भी विस्मित कर दिया। जब उनके पिता का देहावसान हुआ, तब वे अपनी माता के लिए एकमात्र सहारा बने। इस समय उनकी विद्वत्ता शिखर पर थी, किंतु व्यक्तिगत जीवन में उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। पत्नी श्रीलक्ष्मी देवी के असमय निधन ने उनके हृदय को भक्ति की ओर प्रवृत्त कर दिया। उन्होंने श्रीकृष्ण भक्ति को अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बना लिया और भक्ति-मार्ग का प्रचार करने लगे।
संन्यास ग्रहण एवं तीर्थ यात्राएँ महाप्रभु ने मात्र 24 वर्ष की आयु में गृहस्थ जीवन त्यागकर श्रीकेशव भारती से संन्यास ग्रहण किया और “श्रीकृष्ण चैतन्य” नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने जगन्नाथपुरी को अपनी लीला स्थली बनाया और संपूर्ण भारत में तीर्थ यात्राएँ कीं। काशी, वृंदावन, दक्षिण भारत आदि स्थानों पर उन्होंने भक्ति का प्रचार किया और अनेक विद्वानों को अपने प्रेम-भाव से प्रभावित किया। वे अपने कीर्तन और प्रवचनों के माध्यम से समाज में प्रेम और शांति का संदेश देते थे।
भक्ति आंदोलन और समाज सुधार के लिये महाप्रभु ने प्रेम और भक्ति को सर्वोपरि बताया। वेदांत के प्रकांड विद्वानों को भी उन्होंने भक्ति के मर्म से परिचित कराया। उन्होंने जाति-पाति, ऊँच-नीच के भेदभाव को समाप्त कर सामाजिक समरसता स्थापित करने का प्रयास किया। उनके प्रभाव से जगाई-माधाई जैसे अपराधी भी संत बन गए। महाप्रभु का आंदोलन केवल धार्मिक नहीं था, बल्कि सामाजिक जागरूकता का भी प्रतीक था। उन्होंने समाज के सभी वर्गों को समान रूप से भक्ति का अधिकार दिया और प्रेम तथा अहिंसा के आदर्शों को अपनाने की प्रेरणा दी।
दार्शनिक विचार – श्रीकृष्ण ही परम देव हैं, जो सौंदर्य, प्रेम और माधुर्य के साक्षात स्वरूप हैं। वे अपनी तीन प्रमुख शक्तियों—परम ब्रह्म शक्ति, माया शक्ति और विलास शक्ति—के माध्यम से संपूर्ण सृष्टि और अपनी दिव्य लीलाओं को संचालित करते हैं। इनमें से विलास शक्ति दो प्रकार की होती है—प्राभव विलास और वैभव विलास। प्राभव विलास के द्वारा श्रीकृष्ण एक साथ अनेक रूपों में प्रकट होकर गोपियों संग रास-लीला करते हैं, जबकि वैभव विलास से वे चतुर्व्यूह रूप धारण कर विभिन्न दिव्य रूपों में विस्तार करते हैं।
चैतन्य मत में श्रीकृष्ण के व्यूह-सिद्धांत को प्रेम और लीला का आधार माना गया है। उनका धाम गोलोक है, जहाँ उनकी लीलाएँ अनंत और शाश्वत रूप में प्रवाहित होती हैं। प्रेम ही उनकी सर्वोच्च शक्ति है, जो आनंद का मूल कारण है। यह प्रेम जब भक्त के हृदय में पूर्ण रूप से स्थापित हो जाता है, तो वह महाभाव का स्वरूप धारण कर लेता है। यही महाभाव स्वयं राधा का रूप है। राधा श्रीकृष्ण के प्रेम की चरम परिणति और उसकी सर्वोच्च अभिव्यक्ति हैं। गोपियों और श्रीकृष्ण की प्रेम-लीला इसी दिव्य प्रेम का प्रतिफलन है, जिसमें भक्ति, आत्मसमर्पण और आनंद का चरम रूप प्रकट होता है।
अनुयायी एवं ग्रंथ रचना – श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य श्रीनित्यानंद प्रभु, श्रीअद्वैताचार्य, श्रीरूप गोस्वामी, श्रीसनातन गोस्वामी, श्रीजीव गोस्वामी, श्रीरघुनाथ भट्ट गोस्वामी, श्रीहरिदास ठाकुर आदि—भक्ति आंदोलन को आगे बढ़ाने में प्रमुख रहे। महाप्रभु ने स्वयं कोई ग्रंथ नहीं लिखा, परंतु उनके अनुयायियों ने उनके विचारों को संरक्षित किया। श्रीरूप गोस्वामी द्वारा रचित ‘भक्तिरसामृतसिन्धु’ और श्रीसनातन गोस्वामी की ‘बृहद्भागवतामृत’ उनकी शिक्षाओं का सार हैं। इसके अतिरिक्त, श्रीजीव गोस्वामी के ‘षट्संदर्भ’ और बलदेव विद्याभूषण के ‘गोविन्दभाष्य’ महाप्रभु की शिक्षाओं का प्रमाणिक स्रोत हैं।
श्री चैतन्य महाप्रभु की भक्ति धारा ने भजन, संकीर्तन और प्रेममयी भक्ति को एक नया आयाम दिया। उनकी काव्य रचनाएँ एवं भजन, विशेषकर श्रीशिक्षाष्टकम्, भक्ति-मार्ग में अनुसरणीय और प्रेरणादायक हैं।
१. हरे कृष्ण महामंत्र
महाप्रभु ने हरिनाम संकीर्तन को भक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन बताया और हरे कृष्ण महामंत्र के माध्यम से सभी को हरिनाम जपने का निर्देश दिया। यह महामंत्र इस प्रकार है:
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे॥
इस महामंत्र का निरंतर जप करने से व्यक्ति का हृदय शुद्ध होता है, उसमें श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम जाग्रत होता है, और वह सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर भक्ति-रस में लीन हो सकता है।
२. श्रीशिक्षाष्टकम् – महाप्रभु की आध्यात्मिक शिक्षा
श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा रचित श्रीशिक्षाष्टकम् आठ श्लोकों का एक दिव्य ग्रंथ है, जिसमें भक्ति, विनम्रता, समर्पण और प्रेम का उत्कृष्ट वर्णन है।
प्रथम श्लोक:
चेतो-दर्पण-मार्जनं भव-महा-दावाग्नि-निर्वापणम्।
श्रेयः-कैरव-चन्द्रिका-वितरणं विद्या-वधू-जीवनम्॥
आनन्दाम्बुधि-वर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्।
सर्वात्म-स्नपनं परं विजयते श्री-कृष्ण-संकीर्तनम्॥
अर्थ: श्रीकृष्ण का संकीर्तन मन के दर्पण को स्वच्छ करता है, जन्म-मृत्यु के महान दावानल को शांत करता है, चंद्रकिरणों के समान जीवन को शीतलता प्रदान करता है और आत्मा को कृष्ण-प्रेम से सराबोर कर देता है।
द्वितीय श्लोक:
नाम्नामकारि बहुधा निज-सर्व-शक्तिस्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।
एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः॥
अर्थ: प्रभु ने अनंत नामों में अपनी संपूर्ण शक्ति को भर दिया है, और इनका स्मरण करने के लिए कोई विशेष समय-नियम नहीं रखा। यह उनकी असीम कृपा है, लेकिन मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे इन नामों के प्रति प्रेम उत्पन्न नहीं हो रहा।
तृतीय श्लोक:
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तन्यः सदा हरिः॥
अर्थ: व्यक्ति को घास से भी अधिक विनम्र, वृक्ष से भी अधिक सहनशील और बिना किसी मान-अपेक्षा के सभी को सम्मान देने वाला होना चाहिए। तभी वह श्रीकृष्ण के नाम का निरंतर कीर्तन कर सकता है।
चतुर्थ श्लोक:
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनि ईश्वर भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि॥
अर्थ: हे प्रभु! मैं न तो धन चाहता हूँ, न अनुयायी, न ही सुंदर स्त्री या ज्ञान। मैं केवल जन्म-जन्मांतर तक आपकी अहैतुकी भक्ति चाहता हूँ।
महाप्रभु की भक्ति भावना और कीर्तन परंपरा –
श्री चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति को केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे प्रेम और उत्साह से भरे संकीर्तन के रूप में स्थापित किया। उन्होंने बताया कि हरिनाम संकीर्तन से ही कलियुग में मोक्ष संभव है। वे स्वयं भी अपनी भाव-विभोर अवस्था में कीर्तन करते समय श्रीकृष्ण-प्रेम में लीन होकर नृत्य करते थे। उनके प्रमुख शिष्य एवं अनुयायियों—श्री रूप गोस्वामी, श्री सनातन गोस्वामी, श्री जीव गोस्वामी आदि—ने भी इस प्रेम भक्ति को आगे बढ़ाया और गौड़ीय वैष्णव परंपरा को पूरे विश्व में फैलाया। श्री चैतन्य महाप्रभु की कविताएँ एवं भजन केवल शब्द मात्र नहीं हैं, बल्कि वे भक्ति और प्रेम के सजीव रूप हैं। श्रीशिक्षाष्टकम् की शिक्षाएँ आज भी भक्तों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं और हरिनाम संकीर्तन से जुड़ने का मार्ग दिखाती हैं।
महाप्रभु की अंतिम लीला एवं उनकी महिमा – श्री चैतन्य महाप्रभु अपने जीवन के अंतिम वर्षों में जगन्नाथपुरी में निवास कर रहे थे। उनका संपूर्ण अस्तित्व श्रीकृष्ण-प्रेम में विलीन हो चुका था। कहा जाता है कि वे अनवरत संकीर्तन और ध्यान में डूबे रहते थे। उनके भक्तों ने देखा कि वे कृष्ण-विरह की तीव्र अनुभूति में अपने चेतन और अचेतन अवस्था के बीच झूलते रहते थे। उनकी अंतिम लीला के विषय में अनेक भक्तों की विभिन्न मान्यताएँ हैं। कुछ के अनुसार, वे तोता गोपीनाथ मंदिर में ध्यानस्थ अवस्था में श्रीकृष्ण में लीन हो गए, तो कुछ का मानना है कि वे श्रीजगन्नाथ जी के श्रीविग्रह में विलीन हो गए। यह रहस्य ही रहा कि उनकी देह कहाँ गई, परंतु उनके भक्तों ने सदैव उनके दिव्य दर्शन और उपस्थिति का अनुभव किया। उनके जीवन और शिक्षाओं ने संपूर्ण विश्व में भक्ति की एक अमिट धारा प्रवाहित कर दी, जो आज भी अनगिनत भक्तों के हृदय में श्रीकृष्ण-प्रेम को जागृत कर रही है।
महाप्रभु का भक्ति आंदोलन और उनकी अमर विरासत – श्री चैतन्य महाप्रभु ने जो भक्ति आंदोलन प्रारंभ किया, वह केवल भारत तक सीमित नहीं रहा, बल्कि वैश्विक स्तर पर व्यापक रूप से फैल गया। उन्होंने श्रीकृष्ण-भक्ति को न केवल मंदिरों तक सीमित रखा, बल्कि आम जनता के बीच हरिनाम संकीर्तन को प्रचारित किया। उनके द्वारा प्रवाहित यह भक्तिधारा आज भी जगत में श्रीकृष्ण-प्रेम का संचार कर रही है। उनके प्रमुख योगदानों में शामिल हैं:
हरे कृष्ण महामंत्र का प्रचार – उन्होंने हरिनाम संकीर्तन को भक्ति का सर्वोत्तम साधन बताया और इसे जन-जन तक पहुँचाया।
गौड़ीय वैष्णव परंपरा की स्थापना – उनके प्रमुख शिष्यों, विशेषकर श्री रूप गोस्वामी, श्री सनातन गोस्वामी, श्री जीव गोस्वामी आदि ने उनकी शिक्षाओं को संहिताबद्ध किया और वैष्णव भक्ति ग्रंथों की रचना की।
सहिष्णुता, करुणा और प्रेम का संदेश – उन्होंने जात-पात से परे प्रेम और समर्पण पर आधारित भक्ति को अपनाने का उपदेश दिया।
अखिल विश्व में भक्ति का प्रचार – वर्तमान समय में इस्कॉन (ISKCON) जैसी संस्थाएँ श्री चैतन्य महाप्रभु के सिद्धांतों के आधार पर संपूर्ण विश्व में कृष्ण-भक्ति का प्रचार कर रही हैं।
श्री चैतन्य महाप्रभु का जीवन प्रेम, करुणा और भक्ति का अप्रतिम उदाहरण है। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि श्रीकृष्ण की भक्ति ही मनुष्य का परम लक्ष्य है और हरिनाम संकीर्तन ही इस कलियुग में मोक्ष का सर्वोत्तम साधन है। उनकी शिक्षाएँ आज भी मानवता के लिए प्रकाश-पथ हैं और भक्ति की अमृतधारा के रूप में अनवरत प्रवाहित हो रही हैं। महाप्रभु द्वारा प्रवर्तित कीर्तन परंपरा, जो हरे कृष्ण महामंत्र के जाप पर आधारित है, आज भी वैश्विक स्तर पर करोड़ों भक्तों द्वारा अपनाई जा रही है। उनकी शिक्षाएँ समाज को प्रेम, सहिष्णुता और आध्यात्मिकता की ओर प्रेरित करती हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु का भक्ति आंदोलन युगों-युगों तक जीवंत रहेगा और उनके द्वारा प्रवाहित यह भक्तिधारा समस्त विश्व में भक्तों के हृदय में श्रीकृष्ण-प्रेम की ज्योति जलाए रखेगी।
“जय श्री चैतन्य महाप्रभु!”
डा. रणजीत कुमार तिवारी
दर्शनसंकायाध्यक्ष, कु.भा.व.सं.पु.अ.विश्वविद्यालय, नलबारी, असम

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