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जिउतिया व्रत का उल्लेख पौराणिक ग्रंथ महाभारत के समय से ही है।जब अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से उत्तरा के गर्भ पर प्रभाव पड़ा तो भगवान श्री कृष्ण ने अपने पुण्य से एकत्रित फल के द्वारा उत्तरा के गर्भ की रक्षा की और उनके पुत्र को जीवित किया जो आगे चलकर राजा परीक्षित के नाम से विख्यात हुए। उसी समय से जीवित्पुत्रिका का व्रत किया जाने लगा।
जिउतिया व्रत संतान के दीर्घायु होने की कामना के लिए की जाती है।यह व्रत आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को किया जाता है।इस व्रत को खास करके बिहार और यूपी की महिलाएं करती हैं।यूपी और बिहार के अलग-अलग क्षेत्रों के नियम विधि में कुछ मामूली हेरफेर के साथ इस त्यौहार को मनाया जाता है।
लगातार तीन दिनों तक अर्थात सप्तमी से लेकर नवमी तक चलने वाले इस व्रत में प्रथम दिन नहाय खाय होता है। जिसमें सुबह दातुन से मुंह धोने के बाद सतपुतिया अथवा मड़ूवा पानी के साथ निगलना होता है तथा कुछ क्षेत्रों में मड़ूवा के आटे की रोटी और नूनी का साग खाया जाता है।उसके बाद ही चाय पानी और सात्विक भोजन लिया जाता है।बाद में अरहर या चने की दाल ,चावल,सतपुतिया की सब्जी बनाई जाती है।
रात के समय घर की बड़ी बुजुर्ग महिलाएं शुद्ध घी में शुद्ध आटे और गुड़ के मिश्रण से ठेकुआ बनाती हैं।प्रत्येक पुरुष सदस्य के हिसाब से एक-एक ठेकुआ बनता है और उसे वहीं पर चूल्हे के पास खड़ा करके कुछ देर तक रख दिया जाता है।साथ ही साथ धूप दीप के साथ उसी स्थान पर पूजा की जाती है। इस विधि द्वारा बने ठेकूवे को आम बोलचाल की भाषा में *ओठंघन* कहते हैं। जिसे घर के पुरुष सदस्य अष्टमी के दिन से खाते हैं।
उसके बाद ही सबके खाने के लिए पूड़ी, सब्जी, खस्ता, ठेकूवा बनाया जाता है और खाया जाता है।रात में 12:00 बजे तक *सरगही* खाने का नियम है।साथ ही साथ जिउतिया कथा की मुख्य पात्र *चिल्हो* और *सियारिन* दोनों बहनों को भी *सरगही* खाने के लिए *ठेकूवा* या *खस्ता* दही के साथ छत पर अथवा खुले आसमान के नीचे कहीं रख दिया जाता है और पानी भी पीने के लिए दिया जाता है ताकि आम महिलाओं के जैसा ही दोनों बहनें भी अगले दिन जितिया का व्रत करें।
रात में सरगही लेने के बाद मुंह धो लिया जाता है और अगले दिन अष्टमी को जब हम निर्जला व्रत करते हैं तो संभव हो तो नदी ,पोखर (ना हो तो घर में भी) में स्नान कर लेना चाहिए साथ ही साथ पिछले साल की धागे से बनी जितिया को नदी में प्रवाह कर देना चाहिए। दिन भर निर्जला रहना होता है।
शाम के समय नेनुआ के पत्ते पर लाल धागे (लाल मोती) में पिरोये ढोलक नुमा आकृति की जितिया *(प्रत्येक संतान के हिसाब से एक-एक)* जो कि सोने या चांदी की बनी होती है उसे लेकर के राजा *जीमूत वाहन* जो कि गंधर्वों के कम उम्र के उदार और परोपकारी राजा थे। उनका मन राजपाट में नहीं लगा तो वे पिता की सेवा करने वन चले गएं।वहां उनका विवाह मल्यावती नाम की एक राजकुमारी से हुआ।एक दिन जीमूत वाहन ने एक वृद्ध महिला को विलाप करते हुए देखा तो इसका कारण पूछा।
स्त्री ने कहा कि वह नागवंश की स्त्री है वहां प्रतिदिन पक्षी राज गरुड़ को खाने के लिए एक नाग की बलि देने की प्रतिज्ञा हुई है।आज मेरे पुत्र *शंखचूड़* की बारी है।यह मेरा एकलौता पुत्र है अगर इसकी बली चढ़ गयी तो मै किसके सहारे जीवित रहूंगी।वृद्ध महिला की बात सुनकर *जीमूत वाहन* स्वयं को लाल कपड़े में लपेट कर उस शीला पर लेट गए जहां गरुड़ नागों की बलि लेने आते थे।गरुड़ जीमूत वाहन को उठाकर ले जाने लगे तो देखा कि पंजे में जिसे दबोचा गया है उसकी आंखों में आंसू तक नहीं है।तो उन्होंने आश्चर्य से उसका परिचय पूछा।
जीमूत वाहन ने वृद्ध महिला से हुई बातों को बताया तो गरुड़ बहुत द्रवित हुए उन्होंने तब से प्रतिज्ञा की कि आज के बाद वह किसी नाग की बलि नहीं लेंगे।चूकि जीमूत वाहन ने बच्चे को जीवनदान दिया जिससे जीवित्पुत्रिका व्रत हर महिला करती है और जीमूत वाहन की पूजा करती हैं तथा कथा सुनती है।
और इसी तरह दूसरी कथा *चिल्हो तथा सियारिन* की भी सुनी जाती है।
कथा सुनने के बाद जितिया को पहले संतान के गले में डाला जाता है।उसके बाद माताएं पहनती हैं।अगले दिन जब नवमी तिथि हो जाती है तो ही पारण का समय होता है।कुछ घंटे बाद सुबह में उड़द और चावल (जो कि रात में ही भिंगो करके रख दिया जाता है) उड़द और चावल में से *पांच-पांच* उड़द और *पांच-पांच* चावल पानी के साथ पहले *चिल्हो और सियारिन* को दिया जाता है। फिर खुद लिया जाता है। इसी अन्न से पहले पारण किया जाता है।उसके बाद किसी किसी क्षेत्र में कढ़ी, चावल, फुलवरा (दही बड़ा),पकौड़ी और चने की सब्जी बनाकर खाई जाती है।
माया चौबे
तिनसुकिया ( असम )